Thursday 19 March 2015

ऐतिहासिक कथानक को सांस्कृतिक समझ से साथ उद्घाटित करता नाटक

         
                     राहुल देव
पुस्तक- सिद्धार्थ (नाटक)
लेखक- राजेन्द्र सिंह बघेल
प्रकाशक- यथार्थ प्रकाशन, नई दिल्ली

‘नाटक, काव्य का एक रूप है। जो रचना श्रवण द्वारा ही नहीं अपितु दृष्टि द्वारा भी दर्शकों के हृदय में रसानुभूति कराती है उसे नाटक या दृश्य-काव्य कहते हैं। नाटक में श्रव्य काव्य से अधिक रमणीयता होती है। श्रव्य काव्य होने के कारण यह लोक चेतना से अपेक्षाकृत अधिक घनिष्ठ रूप से संबद्ध है। नाट्यशास्त्र में लोक चेतना को नाटक के लेखन और मंचन की मूल प्रेरणा माना गया है।‘ नाटक की यह परिभाषा उदृत करने का उद्देश्य मात्र इतना है कि हिंदी साहित्य में नाटकों की रचना की एक समृद्ध परम्परा रही है लेकिन आज के समय में इस विधा में साहित्यकारों की रूचि घटती सी जा रही है| सब कविता, कहानी, उपन्यास के पीछे भाग रहे हैं जिससे साहित्य की अन्य विधाएँ उपेक्षित होती हैं| नाटक विधा भी उनमें से एक है, आज बहुत कम नाटक लिखे जा रहे हैं| हमें जानना चाहिए कि नाटक क्या है, नाटक की साहित्यिक परम्परा क्या है, उसके साहित्यिक मूल्य क्या हैं| ऐसे समय में इस समीक्ष्य किताब का मेरे हाथ में आना एक सुखद एवं स्वागतयोग्य प्रस्तुति है|

अभी तक बुद्ध के जीवन पर लिखने वाले ज्यादातर लेखकों का दृष्टिकोण साम्प्रदायिक रहा है लेकिन इस नाटक को पढ़ते हुए लेखक की ऐतिहासिक तथ्यों की बेहतरीन सांस्कृतिक समझ का आभास होता है| लेखक राजेन्द्र सिंह बघेल मेरे लिए एक नया नाम थे लेकिन जब मैंने किताब में उनका परिचय पढ़ा तो पता चला कि वे तो सूदूर अंचल में रहकर लिखने वाले एक सिद्धहस्त रचनाकार हैं| उन्होंने ऐतिहासिक विषय के अलावा सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक विषय पर भी नाटक लिखे हैं| तमाम भीड़-भाड़, जोड़-तोड़ और ख्याति से दूर रहकर समर्पण भाव से लेखन करने वाले ऐसे लेखकों को एक नए प्रकाशन द्वारा पाठकों के सामने लाए जाने का कार्य निश्चित रूप से सराहनीय है|

महात्मा बुद्ध का जीवन बहुत विशाल है| लेखक ने इसे लघु नाटक कहा है लेकिन यह लघु नाटक नहीं है| प्रस्तुत पुस्तक में नाटक के छोटे-बड़े 55 दृश्यों के सहारे बुद्ध के लगभग पूरे जीवन को समेटने की कोशिश की गयी है| नाटक प्रथम दृश्य में देवदत्त वाले हंस प्रकरण से शुरू होकर पचपनवें दृश्य बुद्ध के अंतिम उपदेश देने तक जाता है| अच्छी बात यह है कि लेखक ने बुद्ध को एक साधारण मनुष्य के रूप में दिखाया है किसी चमत्कारी या अलौकिक रूप में नहीं|


सिद्धार्थ का जन्म वि.पू. 505 समझा जाता है| वह उन्तीस वर्ष के थे, जब उन्होंने घर छोड़ा| उन्होंने छह वर्ष कठिन तपस्या की, तब बुद्ध हुए| फिर उन्होंने पैंतालीस वर्ष घूम-घूमकर उपदेश दिए| बुद्ध का अहिंसा, प्रेम, करुणा और सत्य पर आधारित जीवन दर्शन आज के हिंसा, घृणा और बेचैनी भरे जीवन का एक हल है| यों यह लम्बा जीवन विक्रम पूर्व 426 में पूरा हुआ और उसके बाद बौद्ध धर्म अपने रूप बदलता हुआ लगभग 1500 वर्ष भारत में रहा| बुद्ध के समय में समाज विषम था| वर्ण व्यवस्था और दास प्रथा अपने चरम पर थी| कुल, महाकुल, उपकुल, गण, आर्य-अनार्य के मध्य निरंतर संघर्ष होता रहता था| वास्तव में संस्कृतियों के उस संक्रमण काल में बुद्ध का जन्म होना एक अनिवार्य आवश्यकता सी बन गया था| नाटक के दूसरे दृश्य में जब सिद्धार्थ अपने कक्ष में विचारमग्न बैठे होते हैं तब वह महारानी से कहते हैं, “माँ, शास्त्र मुझे झूठे लगते हैं| उनका ज्ञान उस रहस्य को उद्घाटित नहीं करता जो जीवन-मरण के उद्देश्य को बताता है| मां शास्त्रों में ऐसा कुछ भी नहीं जो शांति प्रदान कर सके|” जब महारानी प्रत्युत्तर में सिद्धार्थ से कहती हैं कि, “...वीतराग मत बनो|...सांसारिक सुखों में जीवन की खोज़ करो|” तो सिद्धार्थ कितना स्पष्ट और सही तर्क देते हैं कि, “माँ! ये सुख क्षणिक हैं| इनमें जीवन की खोज़ करना व्यर्थ है|...” उन्हें सृष्टि के नियम कहकर या विधि का विधान कहकर बताई जाने वाली चीज़ें भ्रमित करती हैं| वह इस सत्य को तलाशने के लिए अन्दर और बाहर से बेचैन हो उठते हैं| आठवें दृश्य के अंतिम संवाद में वह कहते हैं, “...वाह रे संसार! माया का प्रपंच कितना भयंकर है| इससे बचकर निकल पाना सचमुच ही बहुत कठिन है|” उसके बाद के दृश्यों में उनके जीवन में यशोधरा का प्रवेश, सिद्धार्थ के मार्ग में क्रमशः बीमार, बूढ़े और मृत व्यक्ति का पड़ना और उनका व्यथित होना, पुत्र राहुल का जन्म और उसके बाद सिद्धार्थ का घर छोड़कर ज्ञान की तलाश में निकल पड़ना आदि प्रसंगों को क्रमानुसार जगह दी गयी है जिससे नाटक अपनी सम्पूर्णता की ओर बढ़ता है|

नाटक की प्रधान नारी पात्र यशोधरा भी उतना ही कहती और बोलती है जितना कि उस युग में नारी कह और बोल सकती थी| वह एक आदर्श नारी पात्र है| सिद्धार्थ से विवाह के बाद वह अपने पति से पूर्ण सहानुभूति रखती है| पन्द्रहवें दृश्य में सिद्धार्थ अपने मन की व्यथा को यशोधरा के सामने रखते हुए कहते हैं, “...यशोधरा! मैं यह जानना चाहता हूँ कि जीवन और मृत्यु का यह व्यापार चक्र कौन से रहस्य से घिरा हुआ है और माया के आदि गहन आवरण को विदीर्ण करके कैसे अपने ज्ञान चक्षुओं को प्रकाशित किया जा सकता है|” यशोधरा अपने स्वामी की जीवन से पलायन की समर्थक नहीं है लेकिन फिर भी वह कहती है कि अगर वे जाएँ तो उसे भी अपने साथ ले चलें| वह अपनी सीमा को समझती है लेकिन वह पति धर्म और अतिशय प्रेम से विवश होती है| उसे पता है कि उसका पति कोई साधारण इन्सान नहीं है| उसका जन्म तो मानवता का उद्धार करने के लिए हुआ है| दृश्य तीस में जब सिद्धार्थ आलार कलाम के आश्रम में दीक्षित होते हैं परन्तु फिर भी उन्हें अपने प्रश्नों का उत्तर प्राप्त नहीं हो पाता, तब वे अपने गुरु से यह सारगर्भित बात कहते हुए पुनः ज्ञान की खोज़ में अपने चार शिष्यों को साथ लेकर निकल जाते हैं, “गुरुदेव; मैं परम्पराओं के प्रति निष्ठावान हूँ परन्तु उनकी दासता स्वीकार नहीं कर सकता| किसी भी वस्तु का बिना विचारे पूरी तरह अनुसरण करना जीवन के प्रतिकूल है| मैं यह नहीं मानता कि युगों के इतिहास से बनी परम्पराएँ अंतिम सत्य, अपरिवर्तनीय और निरपेक्ष हैं| हाँ, इतना अवश्य मानता हूँ कि अतीत के अनुभव पथ पर पैर रखकर हम भविष्य के अज्ञात को पाने में सफलता पा सकते हैं...बशर्तें अतीत का वह पथ आत्मपुकार के प्रतिकूल न हो|” इसके कुछ समय बाद सिद्धार्थ को सुजाता की खीर खाने के बाद निरंजना नदी के तट पर पीपल के पेड़ के नीचे ज्ञान की प्राप्ति होती है और वह सिद्धार्थ से महात्मा बुद्ध बन जाते हैं| उसके बाद वह जगह-जगह लोगों के मध्य अपने उपदेश देते हैं और एक व्यापक जनचेतना का उदय होता है| नाटक में कुछ अन्य प्रसंगों के साथ पचपनवें दृश्य में उनके अंतिम उपदेश “अप्प दीपो भव” यानि अपनी मुक्ति की चाह में किसी और पर निर्भर होने के बजाय खुद के दीपक स्वयं बनो, कहकर नाटक का पटाक्षेप होता है|

वास्तव में किसी भी रचना की सम्पूर्णता कथ्य और शिल्प के सानुपातिक कलात्मक संयोजन में निहित रहती है। हिन्दी नाटकों में इन दोनों तत्वों के बीच तालमेल की स्थिति पर यदि विचार किया जाए तो हिन्दी के बहुत कम नाटक इस स्तर तक ऊँचे उठ पाते हैं। जब तक रंग जगत में वे सफल नहीं होते, उन्हें अर्थवान साबित नहीं किया जा सकता। यह एक सुखद संयोग है कि हिन्दी रंगमंच व्यापक स्तर पर राष्ट्रीय रंगमंच की भूमिका में क्रियाशील है। आज के हिन्दी नाटकों की उपलब्धि पर विचार किया जाए तो यह निष्कर्ष निकलता है कि हिन्दी नाटक ने अपनी निरर्थकता और कलाहीनता के घेरे को तोड़कर उल्लेखनीय सर्जनात्मकता प्राप्त करने की दिशा में कदम बढ़ाया है। और अब नाट्यलेखन केवल सतही सामाजिक उद्देश्यपरकता के आसपास चक्कर नहीं काटता बल्कि गहरी या मूलभूत मानवीय अनुभूति या स्थितियों का सन्धान करता है। इन नाटकों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे जीवन और समाज की विसंगतियों को उभारते हैं, पीड़ा संत्रास और अजनबीपन के बीच आज के मानव की दयनीय नियति को रेखांकित करते हैं। स्वतंत्रता के बाद नाटक आधुनिक युगबोध के साथ ही जुड़ता नहीं दिखाई देता, वरन रंगशिल्प के प्रति अधिक जागरूक भी हो गया है। नाटककार राजेन्द्र सिंह बघेल भी ऐतिहासिक कथानक के साथ चलते हुए हमेशा यह ध्यान में रखते हैं कि मंचन के समय व दृश्य की समाप्ति के बाद दर्शक पर अंतिम इम्प्रैशन क्या जाए| ऐतिहासिक विषय को साथ लेकर नाटक को उसके तमाम टूल्स के साथ युगीन आवश्यकता की संवेदना में ढालना किसी भी नाटककार के लिए एक कठिन चुनौती साबित होता है| प्रस्तुत पुस्तक में मुझे अन्य नाट्य कृतियों की तरह यह कमी कहीं दिखाई नहीं दी है|

इस पूरे नाटक में पूरी नाटकीयता के साथ भरपूर पठनीयता भी मौजूद है| इसे पढ़ते हुए पाठक स्वयं को रंगमंच का एक दर्शक समझने लगता है, जैसे लगता है कि मानो पूरा नाटक उसकी आँखों के सामने ही चल रहा हो| यह एक अच्छे नाटक की विशेषता है| हर जगह नाटककार ने सधी हुई सीधी-सरल भाषा-शैली का प्रयोग किया है और यथासंभव अपने को कठिन शब्दों के प्रयोग से बचाया है| नाटक में जो दृश्य छोटे हो सकते हैं उन्हें छोटा रखा गया है और जो थोड़ा बड़े हो सकते हैं उन्हें वैसा ही रखा गया है, इससे गति बनी रहती है| सीमित पात्रों के माध्यम से पूरे वातावरण का बड़ा ही जीवंत चित्रण करने में नाटककार को पूर्ण सफलता मिली है| कुल मिलाकर कहें तो यह एक पठनीय और सहेजने योग्य पुस्तक है|




सम्पर्क- 9/48 साहित्य सदन, कोतवाली मार्ग, महमूदाबाद (अवध) सीतापुर (उ.प्र. 261203
ईमेल- rahuldev.bly@gmail.com
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Sunday 1 March 2015

कुछ अपनी बात

ऋतुराज बसंत! शरद ऋतु की समाप्ति तथा ग्रीष्म के आगमन अर्थात् समशीतोष्ण वातावरण के प्रारम्भ होने का संकेत है बसंत। यह सृजनात्मक शक्ति के नव पल्लवन की ऋतु है। यह मौसम प्रकृति की सरसता में ऊर्जा का संचार करता है। यही कारण है कि इस मौसम में न केवल प्रकृति का कण-कण खिल उठता है वरन मानव, पशु-पक्षी सभी उल्लास से भर जाते हैं। तरंगित मन, पुलकित जीवन का मौसम बसंत जीवन में सकारात्मक ऊर्जा, आशा व विश्वास उत्पन्न करता है; नए सिरे से जीवन को शुरू करने का संकेत देता है। 
भारतीय सभ्यता- संस्कृति का सर्वोच्च त्यौहार होली बसंत ऋतु में मनाया जाता है। होली उल्लास का पर्व है। होली प्रतीक है अल्हड़ता का, उमंग का, रंगों का। होली के माध्यम से जीवन में उत्साह का संचार होता है। इस मौसम की मादकता से कोई अछूता नहीं रहता है। चारों ओर बिखरे रंग और उन्मुक्त हास-परिहास के बीच व्यक्ति इस आनंद-पर्व से अनुप्राणित होकर रंग-रस से सराबोर हो उठता है।
इस मौसम ने साहित्यकारों को भी अनुप्राणित किया है। यही कारण है कि हिन्दी साहित्य बसंत, फागुन और होली की रचनाओं से भरा पड़ा है! ऐसी ही कुछ चुनिन्दा रचनाओं का संकलन हम धरोहर के दूसरे भाग के रूप में इस अंक के साथ लेकर आपके समक्ष उपस्थित हैं। आपको यह संकलन कैसा लगा, यह तो आपकी प्रतिक्रियाओं से ही हमें पता चलेगा, जिनका हमें बेसब्री से इंतज़ार रहेगा।
 - बृजेश नीरज

Monday 23 February 2015

“अपनी-अपनी हिस्‍सेदारी“ का लोकार्पण


विश्‍व पुस्‍तक मेले में दिनांक 22 फरवरी, 2015 को हिन्‍दी अकादमी, दिल्‍ली के प्रकाशन सौजन्‍य से मंजुली प्रकाशन द्वारा सद्यय प्रकाशित सुश्री संगीता शर्मा अधिकारी के प्रथम कविता संग्रह अपनी-अपनी हिस्‍सेदारी का लोकार्पण कार्यक्रम प्रात: 11 बजे, लिखावट, कविता और विचार के मंच की ओर से हॉल न0 8, साहित्‍य मंच पर किया गया। कार्यक्रम की अध्‍यक्षता श्री मिथिलेश श्रीवास्‍तव ने की। आमंत्रित वक्‍ता श्री लक्ष्‍मी शंकर वाजपेयी, श्री अमर नाथ अमर, सुश्री अलका सिन्‍हा, सुश्री पुष्‍पा सिंह विसेन और श्री मनोज कुमार सिंह थे। सभी वक्‍ताओं ने वर्तमान कविता में विशेष रूप से पाए जाने वाले प्रेम, स्‍त्री-विमर्श, घर-परिवार, रिश्‍ते-नाते और समाज-राजनीति से लेकर वैश्विक सरोकारों के बीच उनकी कविताओं को व्‍याख्‍यायित किया तथा नवोदित कवियों में एक अलग तरह के मुहावरे के बीच अपनी पहचान बनाती हुई कविताएँ बताया। साथ ही उन्‍होंने संभावनाओं की जमीन तलाशती कविताओं के लिए युवा कवयित्री सुश्री संगीता शर्माअधिकारी को उनके प्रथम सृजनात्‍मक प्रयास की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ दीं। कार्यक्रम का बेहतरीन संचालन श्री अरविंद पथिक ने किया। अंत में लिखावट की संयोजिका श्रीमती अनीता श्रीवास्‍तव ने सभी का आभार व्‍यक्‍त करते हुए धन्‍यवाद ज्ञापित किया।  


Sunday 1 February 2015

कुछ अपनी बात

धरोहर! नामचीन साहित्यकारों की रचनाओं के संकलन की एक नयी श्रंखला इस अंक के साथ हम शुरू करने जा रहे हैं. इस श्रंखला का नाम होगा- धरोहर. इसके तहत साहित्य की अलग-अलग विधाओं पर केन्द्रित ऐसे अंक हम समय-समय पर आपके समक्ष प्रस्तुत करेंगे जिनमें नामचीन साहित्यकारों की प्रसिद्द रचनाओं का संकलन होगा.  यूँ तो हर अंक में हम नाद अनहद नाम से विश्व के प्रसिद्द साहित्यकारों की रचनाओं का प्रकाशन करते रहे हैं लेकिन शायद उतना पर्याप्त नहीं. विश्व साहित्य इतनी कालजयी रचनाओं से भरा पड़ा है कि उन्हें कुछ पन्नों के सहारे समेट पाना असंभव है, इसलिए इस अंक के साथ हम विशेषांकों की इस नयी श्रंखला को शुरुआत कर रहे हैं जिसमें विधा विशेष की प्रसिद्द रचनाओं को अपने पाठकों के लिए उपलब्ध कराने का प्रयास किया जाएगा.
यह पहला अंक कहानी विधा पर केन्द्रित है और एक प्रयोग के तौर पर केवल ६ कहानियों को सम्मिलित करते हुए इस अंक को आपके समक्ष प्रस्तुत किया गया है. इस अंक पर आपके सुझावों की हमें प्रतीक्षा रहेगी. आपके मार्गदर्शन की सहायता से हम आगामी विशेषांकों को और बेहतर बनाने का प्रयास करेंगे. 

- बृजेश नीरज 

Tuesday 27 January 2015

लघुकथा- मिलन वार्ता

2015 और 2014 के उस एक क्षण के मिलन में 2015 ने 2014 से पूछा, "बड़े भाईआपका आशीर्वाद देंसाथ ही अपना अनुभव भी बताएँमुझे 365 दिनों का श्वास मिला हैये दिन कैसे काटूँ ताकि जीवन शांत और अर्थपूर्ण रहे|"

2015 ने कहा, "कोशिश करो कि प्रकृति और मानव के बीच एक सेतु बनो ताकि दोनों एक दूसरे से लाभान्वित होंउन सारे तत्वों को संभाल कर रखो जो कि मानव-जीवन के लिए उपयोगी हैंमानव की और अधिक चिंता मत करोउन्हें तुम्हारे 365 दिनों की उम्मीद देने वाले बहुत से हैंमानव एक दिन लड़ेगा और दूसरे दिन शांति की बात करेगाउसके लिए प्रकृति की सुरक्षा से अधिक आवश्यक है स्वयं का भोगउसके लिये ईश्वरीय शांति पाने से ज़रूरी है अपनी भड़ास निकालना और सत्कर्मों से अधिक आवश्यक है- मीठी-मीठी बातें करनाये सभी के सभी तुम्हारे दिनों का हवाला देकर होंगे|

लेकिनएक आवश्यक सच सदैव याद रखना कि तुम्हारे अंतिम दिवस पर कोई रोयेगा नहींकोई यह नहीं कहेगा कि तुमने  365 दिनों तक मानव का साथ दियाप्रत्येक व्यक्ति 2016 के स्वागत में ही खुशियाँ मनायेगायह तो मानव का कर्म हैपर तुम इस छोटी सी बात के लिए अपने धर्म से विमुख मत होना|"
                                               - चंद्रेश कुमार छतलानी 

Sunday 11 January 2015

संगीता शर्मा की कविता

             संगीता शर्मा ‘अधिकारी’

पोषित पीठ 

क्यों सोचते हो तुम
तुम्हारी पीठ पर
कोई हो

क्या फ़र्क पड़ता है
इस बात से
कि कोई पोषित करे
तुम्हारी पीठ

क्या सिर्फ इसलिए
कि कोई न चढ़ बैठें
तुम्हारी छाती पर

पर क्यों नहीं सोचते तुम
बित्ती भर भी
कि किसी की छाती पर चढ़ना
इतना आसान नहीं

ग़र होता
तो
कर्म गौण
और
बल प्रधान
हो गया होता 

कल्पना रामानी के नवगीत

         कल्पना रामानी

धूप सखी 

धूप सखी, सुन विनती मेरी,
कुछ दिन जाकर शहर बिताना।
पुत्र गया धन वहाँ कमाने,
जाकर उसका तन सहलाना।

वहाँ शीत पड़ती है भारी।
कोहरा करता चौकीदारी।
तुम सूरज की परम प्रिया हो,
रख लेगा वो बात तुम्हारी।

दबे पाँव चुपचाप पहुँचकर,
उसे प्रेम से गले लगाना।

रात, नींद जब आती होगी
साँकल शीत बजाती होगी
छिपे हुए दर दीवारों पर,
बर्फ हर्फ लिख जाती होगी।

सुबह-सुबह तुम ज़रा झाँककर,
पुनः गाँव की याद दिलाना।

मैं दिन गिन-गिन जिया करूँगी।
इंतज़ार भी किया करूँगी।
अगर शीत ने मुझे सताया,
फटी रजाई सिया करूँगी।

लेकिन यदि हो कष्ट उसे तो,
सखी! साथ में लेती आना।  
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गुलमोहर की छाँव

गुलमोहर की छाँव, गाँव में
काट रही है दिन एकाकी।

ढूँढ रही है उन अपनों को,
शहर गए जो उसे भुलाकर।
उजियारों को पीठ दिखाई,
अँधियारों में साँस बसाकर।

जड़ पिंजड़ों से प्रीत जोड़ ली,
खोकर रसमय जीवन-झाँकी।

फल वृक्षों को छोड़ उन्होंने,
गमलों में बोन्साई सींचे।
अमराई आँगन कर सूने,
इमारतों में पर्दे खींचे।

भाग दौड़ आपाधापी में,
बिसरा दीं बातें पुरवा की। 

बंद बड़ों की हुई चटाई,
खुली हुई है केवल खिड़की।
किसको वे आवाज़ लगाएँ,
किसे सुनाएँ मीठी झिड़की।

खबरें कौन सुनाए उनको,
खेल-खेल में अब दुनिया की।

फिर से उनको याद दिलाने,
छाया ने भेजी है पाती।
गुलमोहर की शाख-शाख को
उनकी याद बहुत है आती। 

कल्प-वृक्ष है यहीं उसे, पहचानें

और न कहना बाकी।

केदार के मुहल्ले में स्थित केदारसभगार में केदार सम्मान

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