विश्व पुस्तक मेले में दिनांक 22 फरवरी, 2015 को हिन्दी अकादमी,
दिल्ली के प्रकाशन सौजन्य से मंजुली प्रकाशन द्वारा सद्यय प्रकाशित सुश्री संगीता
शर्मा ‘अधिकारी’ के प्रथम कविता संग्रह “अपनी-अपनी हिस्सेदारी“ का लोकार्पण कार्यक्रम प्रात: 11 बजे, लिखावट, कविता और विचार के मंच की
ओर से हॉल न0 8, साहित्य मंच पर किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता श्री मिथिलेश श्रीवास्तव
ने की। आमंत्रित वक्ता श्री लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, श्री अमर नाथ अमर, सुश्री अलका
सिन्हा, सुश्री पुष्पा सिंह विसेन और श्री मनोज कुमार सिंह थे। सभी वक्ताओं ने वर्तमान
कविता में विशेष रूप से पाए जाने वाले प्रेम, स्त्री-विमर्श, घर-परिवार, रिश्ते-नाते
और समाज-राजनीति से लेकर वैश्विक सरोकारों के बीच उनकी कविताओं को व्याख्यायित किया
तथा नवोदित कवियों में एक अलग तरह के मुहावरे के बीच अपनी पहचान बनाती हुई कविताएँ
बताया। साथ ही उन्होंने ‘संभावनाओं की जमीन तलाशती कविताओं’ के लिए युवा कवयित्री सुश्री
संगीता शर्मा ‘अधिकारी’ को उनके प्रथम सृजनात्मक प्रयास की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ दीं। कार्यक्रम
का बेहतरीन संचालन श्री अरविंद पथिक ने किया। अंत में लिखावट की संयोजिका श्रीमती अनीता
श्रीवास्तव ने सभी का आभार व्यक्त करते हुए धन्यवाद ज्ञापित किया।
Monday 23 February 2015
Sunday 1 February 2015
कुछ अपनी बात
धरोहर! नामचीन साहित्यकारों की रचनाओं
के संकलन की एक नयी श्रंखला इस अंक के साथ हम शुरू करने जा रहे हैं. इस श्रंखला का
नाम होगा- ‘धरोहर’. इसके तहत साहित्य
की अलग-अलग विधाओं पर केन्द्रित ऐसे अंक हम समय-समय पर आपके समक्ष प्रस्तुत करेंगे
जिनमें नामचीन साहित्यकारों की प्रसिद्द रचनाओं का संकलन होगा. यूँ तो हर अंक में हम ‘नाद अनहद’ नाम से विश्व के
प्रसिद्द साहित्यकारों की रचनाओं का प्रकाशन करते रहे हैं लेकिन शायद उतना
पर्याप्त नहीं. विश्व साहित्य इतनी कालजयी रचनाओं से भरा पड़ा है कि उन्हें कुछ पन्नों
के सहारे समेट पाना असंभव है, इसलिए इस अंक के साथ हम विशेषांकों की इस नयी
श्रंखला को शुरुआत कर रहे हैं जिसमें विधा विशेष की प्रसिद्द रचनाओं को अपने
पाठकों के लिए उपलब्ध कराने का प्रयास किया जाएगा.
यह पहला अंक कहानी विधा पर केन्द्रित है
और एक प्रयोग के तौर पर केवल ६ कहानियों को सम्मिलित करते हुए इस अंक को आपके
समक्ष प्रस्तुत किया गया है. इस अंक पर आपके सुझावों की हमें प्रतीक्षा रहेगी.
आपके मार्गदर्शन की सहायता से हम आगामी विशेषांकों को और बेहतर बनाने का प्रयास
करेंगे.
- बृजेश
नीरज
Tuesday 27 January 2015
लघुकथा- मिलन वार्ता
2015 और 2014 के उस एक क्षण के मिलन में 2015 ने 2014 से पूछा, "बड़े भाई, आपका आशीर्वाद दें, साथ ही अपना अनुभव भी बताएँ, मुझे 365 दिनों का श्वास मिला है, ये दिन कैसे काटूँ ताकि जीवन शांत और अर्थपूर्ण रहे|"
2015 ने कहा, "कोशिश करो कि प्रकृति और मानव के बीच एक सेतु बनो ताकि दोनों एक दूसरे से लाभान्वित हों, उन सारे तत्वों को संभाल कर रखो जो कि मानव-जीवन के लिए उपयोगी हैं| मानव की और अधिक चिंता मत करो, उन्हें तुम्हारे 365 दिनों की उम्मीद देने वाले बहुत से हैं| मानव एक दिन लड़ेगा और दूसरे दिन शांति की बात करेगा| उसके लिए प्रकृति की सुरक्षा से अधिक आवश्यक है स्वयं का भोग, उसके लिये ईश्वरीय शांति पाने से ज़रूरी है अपनी भड़ास निकालना और सत्कर्मों से अधिक आवश्यक है- मीठी-मीठी बातें करना| ये सभी के सभी तुम्हारे दिनों का हवाला देकर होंगे|
लेकिन, एक आवश्यक सच सदैव याद रखना कि तुम्हारे अंतिम दिवस पर कोई रोयेगा नहीं, कोई यह नहीं कहेगा कि तुमने 365 दिनों तक मानव का साथ दिया, प्रत्येक व्यक्ति 2016 के स्वागत में ही खुशियाँ मनायेगा| यह तो मानव का कर्म है, पर तुम इस छोटी सी बात के लिए अपने धर्म से विमुख मत होना|"
- चंद्रेश कुमार छतलानी
Sunday 11 January 2015
कल्पना रामानी के नवगीत
कल्पना रामानी
धूप
सखी
धूप
सखी, सुन विनती मेरी,
कुछ
दिन जाकर शहर बिताना।
पुत्र
गया धन वहाँ कमाने,
जाकर
उसका तन सहलाना।
वहाँ
शीत पड़ती है भारी।
कोहरा
करता चौकीदारी।
तुम
सूरज की परम प्रिया हो,
रख
लेगा वो बात तुम्हारी।
दबे
पाँव चुपचाप पहुँचकर,
उसे
प्रेम से गले लगाना।
रात, नींद
जब आती होगी
साँकल
शीत बजाती होगी
छिपे
हुए दर दीवारों पर,
बर्फ
हर्फ लिख जाती होगी।
सुबह-सुबह
तुम ज़रा झाँककर,
पुनः
गाँव की याद दिलाना।
मैं
दिन गिन-गिन जिया करूँगी।
इंतज़ार
भी किया करूँगी।
अगर
शीत ने मुझे सताया,
फटी
रजाई सिया करूँगी।
लेकिन
यदि हो कष्ट उसे तो,
सखी!
साथ में लेती आना।
------------------
गुलमोहर
की छाँव
गुलमोहर
की छाँव, गाँव में
काट
रही है दिन एकाकी।
ढूँढ
रही है उन अपनों को,
शहर
गए जो उसे भुलाकर।
उजियारों
को पीठ दिखाई,
अँधियारों
में साँस बसाकर।
जड़
पिंजड़ों से प्रीत जोड़ ली,
खोकर
रसमय जीवन-झाँकी।
फल
वृक्षों को छोड़ उन्होंने,
गमलों
में बोन्साई सींचे।
अमराई
आँगन कर सूने,
इमारतों
में पर्दे खींचे।
भाग
दौड़ आपाधापी में,
बिसरा
दीं बातें पुरवा की।
बंद
बड़ों की हुई चटाई,
खुली
हुई है केवल खिड़की।
किसको
वे आवाज़ लगाएँ,
किसे
सुनाएँ मीठी झिड़की।
खबरें
कौन सुनाए उनको,
खेल-खेल
में अब दुनिया की।
फिर
से उनको याद दिलाने,
छाया
ने भेजी है पाती।
गुलमोहर
की शाख-शाख को
उनकी
याद बहुत है आती।
कल्प-वृक्ष
है यहीं उसे, पहचानें
और न
कहना बाकी।
Saturday 10 January 2015
शोध पत्र
उपेन्द्रनाथ अश्क के नाट्य-साहित्य में
चित्रित मध्यवर्गीय समाज की समस्याएँ
- तरूणा यादव
शोधार्थी (हिन्दी)
वनस्थली विद्यापीठ (राज.)
साहित्य का विकास समाज सापेक्ष होता है।
यह मानव की अत्यन्त रमणीय एवं सशक्त मानसी अनुभूति है। समाज की आधारभूत ईकाई
परिवार है तथा परिवार की आधारभूत ईकाई व्यक्ति है। इस प्रकार व्यक्ति से परिवार
तथा परिवारों के समूह से समाज बनता है। अतः समाज शब्द का प्रयोग मानव समूह के लिए
किया जाता है। परिवार से लेकर विश्वव्यापी मानव समूह तक को समाज की संज्ञा दी जाती
है। विभिन्न शब्द कोशों में ‘समाज’ शब्द के अर्थ को
स्पष्ट किया है- संस्कृत कोश ग्रन्थ में- ‘‘समाज
शब्द की उत्पत्ति ‘सम’ उपसर्ग पूर्वक अज्
धातु से धज् प्रत्यय करने से होती है। (सम $
अज् $ धज्)
जिसका अर्थ सभा, मण्डल, गोष्ठी, समिति या परिषद।’’
नालन्दा विशाल शब्दसागर के अनुसार - ‘‘समाज का शाब्दिक
अर्थ है समूह या गिरोह।’’
साधारणतया उन सभी संगठनों के समूह को
समाज कहा जाता है जिन्हें मानव अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपने जीवन को
सुखी व पूर्ण बनाने के लिए निर्मित करता है।
समाज में होने वाले परिवर्तन का साहित्य
पर प्रभाव पड़ता है और साहित्य भी समाज में परिवर्तन लाने की क्षमता रखता है।
आर्थिक आधार पर विभाजित समाज के वर्ग या श्रेणियाँ प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप
से साहित्य के वस्तुतत्व को प्रभावित तथा निर्धारित करते हैं। मध्यवर्ग समाज का
प्रमुख तथा व्यापक वर्ग होने के नाते साहित्य का भी केन्द्रीय वर्ग रहा है।
साहित्य की लगभग प्रत्येक विधा में इस वर्ग के जीवन सम्बन्धी समस्याओं की
अभिव्यक्ति हुई है। साहित्यकार ने मध्यवर्गीय जीवन तथा समस्याओं को ग्रहण कर समाज
से सीधे जुड़ने का प्रयास किया है। अतः साहित्यकार स्वयं मध्यवर्ग से सम्बन्धित रहा
है जिससे मध्यवर्गीय जीवन का समग्र रूप साहित्य क्षेत्र में उभर कर आया है।
मंजुलता सिंह ने एक साहित्यकार की
मनोवृतियों का वर्णन करते हुए कहा है- ‘‘मानव
की परिस्थितियों एवं उसकी मनोवृतियों का संघर्ष मात्र दिखाकर ही आज के साहित्य का
उत्तरदायित्व पूर्ण नहीं होता, परन्तु
निरन्तर बदलते हुए बाहरी और भीतरी परिवेश से प्राप्त अनुभवों के फलस्वरूप जो
परिवर्तन उत्पन्न होते हैं उन्हें भी साहित्यकार को चित्रित करना पड़ता है।’’ अतः
साहित्य साहित्यकार के परिवेशगत जनजीवन की सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक एवं धार्मिक समस्याओं आदि का
लेखा-जोखा है।
मध्यवर्गीय परिवार से सम्बन्धित होने के
कारण उपेन्द्रनाथ अश्क ने
मध्यवर्गीय समाज से ही जुड़ी समस्याओं को अपनी रचना का विषय बनाया। उनके मध्यवर्गीय
पात्र अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए परिवार और समाज से लड़ते हैं परन्तु असफल
रहते हैं। बाह्य संघर्षों में असफल और क्षुब्ध होकर मध्यवर्ग का आक्रोश जीवन के हर
पक्ष में दिखाई देता है। सामाजिक संगतियों-विसंगतियों, जीवनगत अभावों, जड़ताओं, जीवन मूल्यों एवम्
विश्वास और उनके बनते-बिगड़ते सम्बन्धों से हमेशा ग्रस्त दिखाई देता है।
उपेन्द्रनाथ अश्क का नाट्य-साहित्य पारिवारिक
सम्बन्धों का अथाह सागर है। कहीं कोई सम्बन्ध मधुर है तो कहीं वही सम्बन्ध भी कटु
हो उठा है। शिक्षा के प्रसार और पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण ने मध्यवर्गीय
पारिवारिक जीवन को गहरा आघात पहुँचाया है। जिसके परिणामस्वरूप भारतीय संस्कृति की
आत्मा कहे जाने वाले संयुक्त परिवार भी बिखर कर अलग हो गए। पारिवारिक बन्धनों एवं
अनावश्यक औपचारिकताओं के कारण मध्यवर्गीय पति-पत्नी के दाम्पत्य जीवन में विश्वास
की कमी हो जाती है। जिसका परिणाम यह होता है कि दाम्पत्य जीवन नीरस हो उठता है। एक
पुरानी लोकोक्ति है कि ‘जब
तक दाँत मसूढ़ों से सटे होते हैं, तभी
तक उपयोगी होते हैं, हिल
जाने पर उखाड़ फेकना ही उचित होता है।’
मध्यवर्गीय समाज में दाम्पत्य जीवन की
नीरसता एवम् कृत्रिमता का विद्रूप व्यंग्य अशोक के इस कथन में निहित है। मिस्टर
अशोक - ‘‘चीख
रहा हूँ। क्या कहूँ, बीस
बार कहा कि भाई आराम करो। समय पर एक घड़ी का आराम बाद की एक वर्ष की मुसीबत से
बचाता है। पर यह मानती ही नहीं, पर
ज्यों ही मैंने बताया कि तुम्हारा खाना है। तो झट रसोई में जा बैठी मैं सब्जी लेने
गया था- मेरे आते ही इन्होंने खीर बना डाली।’’ अशोक एक घुटन का
शिकार है जिसकी तकलीफ बर्दाश्त से बाहर होने पर भी उसे सहकर मित्र के सामने अपने
विवश दर्द को छिपाने के लिए जीवन की कृत्रिमता से संघर्ष कर रहा है। विसंगतिपूर्ण
मध्यवर्गीय दाम्पत्य जीवन की खुरदरी जिंदगी की इस त्रासदी को अशोक और राजेन्द्र ही
भोग रहे हों, ऐसा नहीं है। कमोबेश समाज का हर तबका इन स्थितियों का शिकार है।
उपेन्द्रनाथ अश्क ने विवाह और प्रेम
की समस्या के सामाजिक पस-मंजर याने पृष्ठभूमि पर मध्यवर्गीय संस्कारों वाली स्त्री
और पुरुष के चित्र खींचे हैं। मदन का विवाह यदि अनिच्छा से किया गया तो जातीय
बन्धन का अभिशाप है तो दूसरी और एक अन्य नाटक ‘कैद’ में अप्पी का विवाह
अवांछित है। विशेष परिस्थितियोंवश अप्पी का विवाह उसके प्रेमी से न होकर बहनोई से
हो जाता है। अप्पी की घुटन आन्तरिक है। घुटन के इस जहर को पीकर भी अप्पी अन्दर-ही-अन्दर
घुट कर न जी पाती है और न मर पाती है। मदन की भाँति पुनर्विवाह का साहस उसमें भी
नहीं है, चूँकि
भारतीय नारी के परम्परागत संस्कार उसकी चेतना को जकड़े हुए है। उसकी यह विवशता इन
शब्दों में साकार हो उठी है- ‘‘हम
गरीबों का क्या है, जहाँ
बैठा दिया, जा
बैठी।’’ वैवाहिक जीवन की इस
असंगति ने अप्पी और प्राणनाथ के दाम्पत्य जीवन पर अवसाद और विषाद के घने कोहरे की
एक चादर तान दी है।
मध्यवर्गीय समाज में पुनर्विवाह के
सम्बन्ध में स्त्री और पुरुष के दोहरे मानदण्ड देखने को मिलते है। पुरुषों को
पुनर्विवाह की अनुमति हैै और स्त्री को नहीं। प्राणनाथ की पत्नी के मृत्यु के बाद
उसका विवाह उसकी साली (अप्पी) सेे किया जाता है। जिसके कारण वह अभिशप्त जीवन
व्यतीत करती है- ‘‘यदि
मैं तुम्हारी बहन की मृत्यु के बाद दिल्ली न गया होता तो तुम्हारी हँसी-खुशी का
सोता भी यो न सूख जाता और मेरे जीवन की पहाड़ी पर यांे गहरे धुंधलके न छा जाते।’’ अप्पी
मध्यवर्गीय साहसहीन लड़कियों की तरह विवाह तो कर लेती है लेकिन अपने विसंगतिपूर्ण
अनमेल दाम्पत्य जीवन की खुरदरी त्रासदी से समझौता नहीं कर पाती। ‘अलग-अलग रास्ते’ के मदन की राह से
गुजर कर यदि अप्पी परम्परागत सामाजिक मान-मर्यादाओं का दमन कर अपने प्रेमी दिलीप
से पुनर्विवाह कर लेती तो निश्चय ही उसका मानस रोग स्वस्थता में बदल सकता था।
सामाजिक लोकलाज एवं भय के कारण सुरेश और नीति का विवाह सम्पन्न नहीं होता और सुरेश
गंगा में कूदकर आत्महत्या कर लेता है। परम्परागत रूढ़ियों और संकीर्ण विचारों के
कारण मध्यवर्गीय समाज में प्रेम और विवाह की समस्या एक ज्वलंत समस्या है। भारतीय
मध्यवर्ग में अनेक कुरीतियाँ व्याप्त हैं उनमें वैवाहिक सम्बन्धी कुरीतियों में
दहेज सबसे जटिल समस्या उभरकर सामने आया है- ‘‘दहेज
की प्रथा प्रायः समाज के उच्च एवं मध्यवर्ग में पायी जाती हैं, लेकिन मध्यवर्ग में
दहेज विवशता का प्रतीक हैं तो उच्च एवं अभिजात वर्ग में प्रदर्शन का।’’ ‘अश्क’ द्वारा रचित ‘अलग-अलग रास्ते’ की रानी का
असंगतिपूर्ण दाम्पत्य जीवन दहेज-प्रथा की बलिवेदी का प्रसाद है। इच्छानुसार दहेज न
मिलने के कारण ससुराल वाले रानी पर अमानुषिक अत्याचार करते है। ऐसे गर्हित
पारिवारिक जीवन से ऊब कर रानी अपने पिता के घर से वापिस पति के घर जाने को किसी भी
कीमत पर तैयार नहीं है। अपनी मान-मर्यादा की रक्षा के लिए जब पिता वर पक्ष की
इच्छा पूर्ण करने का प्रयत्न करते हैं तब रानी कहती है- ‘‘आप यह समझते हैं कि
ये मकान मेरे नाम करके मुझ पर कोई उपकार कर रहे है? ये मेरे गले में सदा के लिए दासता की
बेड़ी डाल रहे हैं। मुझे ऐसे व्यक्ति के साथ रहने को विवश कर रहे हैं जिसके लिए
मेरे मन में लेशमात्र भी सम्मान नहीं। मुझे फिर उस नरक में ढकेलना चाहते हैं, जहाँ मैं घुट-घुटकर
अधमरी हो गयी हूँ।’’ त्रिलोक लोभवश रानी
को ले जाने के लिए तैयार है परन्तु रानी धन-लोलुप पति के साथ नहीं जाना चाहती।
वस्तुतः मध्यवर्गीय समाज में नारी की
दयनीय स्थिति को उभारकर नाटककार ने दाम्पत्य जीवन की असंगतिपूर्ण विद्रूपताओं पर
कसकता व्यंग्य किया है, जिसने
अप्पी, राज
और रानी जैसी न जाने कितनी नवयुवतियों के जीवन रस को छानकर जिदंगी को इतना खुरदरा
बना दिया है कि वे उसकी खराद पर ठीक बैठना चाहकर भी नहीं बैठ पा रही और उसकी यही
विवशता उसके दाम्पत्य जीवन की अभिशप्त त्रासदी बनकर उभर आती है।
‘उपेन्द्रनाथ अश्क’ के नाट्य साहित्य
में धर्म के नाम पर साम्प्रदायिकता को उमाड़ने वाली पूँजीवादी मनोवृति और उसके पीछे
नेता वर्ग की साजिशों का पर्दाफाश भी किया है। मुसलमानों की रक्षा करते हुए हिन्दू
गुण्डे़ से मारा जाने वाला प्रधान पात्र घीसू मरते समय दांत पीस कर कहता है- ‘‘एक तूफान आ रहा है।
जिसमें ये सब दादे, ये
गुण्डे़, ये
धर्म और जाति-पाति के दर्प, गरीबों
का लोहू पीने वाले पूंजीपति, ये
भोले-भाले लोगों को लड़वाकर अपना उल्लू सीधा करने वाले नेता-सब मिट जायेंगे।’’ ‘अश्क’ ने मध्यवर्गीय जीवन
में पूँजीवादी प्रभावों से उत्पन्न विशृंखलताओं और उच्छशृंखलताओं तथा उस जीवन के
अन्तर्विरोधों के व्यंग्यात्मक चित्र उपस्थित करने के साथ-साथ जीवन के उदात्त
मानवीय भावों का चित्र भी प्रस्तुत किया है। ‘अश्क’ ने मध्यवर्गीय जीवन
की विभिनन समस्याओं का विश्लेषण करते हुए उस वर्ग के तमाम अन्तविरोधों और उसके
प्रतिगामी तत्वों का यथार्थ उद्घाटन किया है।
सन्दर्भ-सूची
वामन श्विराम आप्टे: (सं.) संस्कृत
हिन्दी कोश, पृ.
सं. 1076
नवल
जी: (सं.) नालन्दा विशाल शब्द सागर, पृ.
सं. 15
मंजुलता
सिंह: हिन्दी उपन्यासों में मध्यवर्ग, पृ.
सं. 19
उपेन्द्रनाथ
अश्क: स्वर्ग की झलक नाटक, पृ.
सं. 56-57
वही, कैद और उड़ान नाटक, पृ. सं. 70
वही, पृ. सं. 44
डाॅ.
स्वर्णलता तलवार: हिन्दी उपन्यास और नारी समस्याएँ, पृ. सं. 60
उपेन्द्रनाथ
अश्क: अलग-अलग रास्ते नाटक, पृ.
सं. 112
वही, तूफान से पहले
एकांकी संग्रह, (तूफान
से पहले एकांकी, पृ.
सं. 42)
अध्यात्म- आलेख
श्रीप्रकाश
प्रेम, ईश्वर और मनुष्य
मानवता
की विकास यात्रा आदि से वर्तमान तक जिस रूप में प्रारंभ हुई थी उसका स्वरुप
विभिन्न कालखण्डों में घटता-बढ़ता देखा जाता रहा है| अतीत का भाव प्रधान मनुष्य
वर्तमान में बुद्धिप्रधान बन बैठा है| यही कारण है कि आज मनुष्य मानव कम, दानव
अधिक है| महाकवि प्रसाद ने ठीक ही कहा है- “उनको कैसे समझा दूँ तेरे रहस्य की
बातें, जो खुद को समझ चुकें हैं अपने विलास की घातें|”
अर्थात
प्रेम का रहस्य साधारण मनुष्य से परे है, इसमें मुझे किंचित मात्र भी संदेह नहीं
लगता| यदि प्रश्न करें कि क्या मानव प्रेम स्वरूप ईश्वर बन सकता है? तो हमें उत्तर
मिलता है की मनुष्य प्रेम का स्वरुप अपनाता कहाँ है? प्रेम के भाव प्रधान होने के
कारण उसमें न तो श्रद्धा की कमी होती है और न तो विश्वास का अभाव| प्रेम अँधा होता
है| जिसे दिखाई नहीं देता उसे अपने पात्र में सब कुछ सकारात्मक ही दृष्टिगोचर होता
है|
अब आप
ही देखिए कि भगवान् राम को अतिशय प्रेमवश शबरी ने जूठे बेर ही खिला डाले और
ईश्वरावतार प्रभु राम ने उसे सहर्ष खा भी लिया| प्रेम जोड़ता है अलगाव नहीं
उत्पन्न करता, इसीलिए विवेकानंद ने प्रेम को ईश्वरीय संज्ञा देने में कोई संकोच
नहीं किया|
प्रेम
ही ईश्वर है| इस जगत में प्रेम को विद्वानों ने दो भागों में बांटा है- लौकिक और
आध्यात्मिक| पारलौकिक प्रेम श्रद्धास्पद है जबकि लौकिक प्रेम के कई अर्थ हो जाते
हैं जैसे अनुराग, राग, स्नेह आदि|
यहाँ
पर हम प्रेम के विराट स्वरुप की चर्चा करना चाहेंगे जिसे कवि प्रसाद ने प्रेम पथिक
में स्वीकार किया है – “इस पथ का उद्देश्य नही है; श्रांत भवन में टिक रहना |” प्रेम में गति है, निरंतरता
है, हलचल है, जीवन है, प्राण है तभी वह ईश्वर के निकट रह लेता है|
प्रकृति
और पुरुष की संलग्नता जीवन को जन्म देती है| अकेली प्रकृति अस्तित्वहीन है| इसी
प्रकार अकेला पुरुष शक्तिविहीन है| पुरुष जब तक प्रकृति के साथ प्रेम स्थापना नहीं
करता, निष्प्राणता ही देखी जा सकती है|
अब
प्रश्न उठता है कि प्रेम है क्या? उत्तर मिलता है- एक प्रकार का भाव जो मानव/जीव के
अंतर्जगत में स्वाभाविक रूप से पनपता है| आध्यात्मिक प्रेम ईश्वरीय आभा से
परिपूर्ण होता है तथा इसमें नष्ट होने की कोई गुंजाईश नहीं होती है|
‘सीय राम मय सब जग जानी’ कहकर संत कवि तुलसी ने विश्व प्रेम का परिचय दिया है वहीँ पर ‘ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होए’ कहकर कबीर ने प्रेम की
विराटता का सन्देश विश्व में प्रसारित किया है| मानव ह्रदय का यही प्रेम भाव जब
विराट फलक ले लेता है तब वह ईश्वर का स्वरुप बन जाता है जैसे भगवान बुद्ध, महावीर,
कृष्ण आदि|
अब
प्रश्न यह उठता है की क्या साधारण मनुष्य के ह्रदय में यह विश्व प्रेम उपज सकता
है? उत्तर प्राप्त होता है- क्यों नहीं! आप उस स्थिति तक तो पहुँचिये| फिर प्रश्न
उठता है कैसे पहुंचा जा सकता है? श्री मद्भगवदगीता में इसका योग साधना द्वारा
स्पष्ट हल है|
दरअसल
शरीर में स्थित स्व के दो पक्ष उद्घाटित हैं- एक मन, दूसरा आत्मा| जब तक आत्मा पर
मन का शासन होगा तब तक हमारा दृष्टिकोण संकुचित रहेगा और जब मन पर आत्मा का शासन
होगा तब दृष्टिकोण विराट होगा| यहीं से विश्व प्रेम की यात्रा प्रारंभ होती है|
वेद कहता है कि यह शरीर एक रथ है, इसमें स्थित इन्द्रियाँ घोड़े हैं| मन-बुद्धि
सारथी हैं और आत्मा सवार है|
मन को
ड्राईवर न बनने दें| यदि मन ड्राईवर बनता है तो खंदक में गाड़ी जाना निश्चित है| जब
आपके शरीर का ड्राईवर आत्मा होगी तो दिशा-निर्देश सही होगा, दृष्टिकोण बड़ा होगा|
यहाँ इस जगत में जो कुछ भी दिखाई देता है इन भौतिक आँखों से, वह सब नश्वर है, जो
अंतर्जगत की आँखें देखती हैं वही ईश्वर है| आप अकेले हैं किन्तु आपका भाव जगत
विराट है| जो स्थूल है उसी में सूक्ष्म तलाश कीजिए, निश्चित ही आप मानव से ईश्वर बनने
की क्षमता उत्पन्न कर लेंगे|
जब आप
स्वार्थी होंगे, तब प्रेम का संकुचित रूप आपके साथ होगा| जब आप परमार्थी होंगे तब
प्रेम के विराट स्वरुप से आपका परिचय होगा जो जीवन और प्राणवत्ता की सम्पन्नता का
सन्देश बिखेरेगा|
इस
मामले में भारतीय दर्शन और वैदिक साहित्य हमें ज्यादा शिक्षा प्रदान करता है| अब
एक प्रश्न पुनः उभरता है| आखिर मानव जीवन का उद्देश्य क्या है? भोग-विलास करके
मृत्यु को प्राप्त होना या फिर योग-विलास करके मुक्ति को प्राप्त करना|
आप
हसेंगे मुक्ति! कैसी मुक्ति! जी हाँ मुक्ति, गीता कहती है- ‘न मैं अतीत में हूँ, न भविष्य में| मैं सिर्फ वर्तमान में हूँ| मुझे
वर्तमान में ही इस कार्यक्षेत्र में लड़ना है|’ वर्तमान, कैसा? वर्तमान
अर्थात जो सदा विद्यमान रहे, वही सत्य है, जिसका स्वरुप हमें सदा देखने को मिले|
वह क्या है? वह आत्मा के अंतर्जगत में स्थित परमात्मा है| उसके साथ प्रेम करना
जीवन की सार्थकता है| आप कहेंगे कर्म में शून्यता आएगी| नहीं, कर्म करना तो शाश्वत
सत्य है| परमात्मा भी निरंतर जीव से कर्म करवा रहा है इसलिए परमात्मसत्ता के साथ
में लगाव (प्रेम करना) ही जीवन का सर्वोच्च प्रेम कहा जाएगा| यह प्रेम साकार में
वात्सल्य, भक्ति के क्षेत्र में सेवक और मालिक- तुलसी का राम के प्रति, ज्ञान के
क्षेत्र में निराकार के प्रति लगाव|
किसी
योगी को प्रकृति की लीला जब साफ़ समझ में आने लगती है तो यह उसका आध्यात्म प्रेम ही
कहा जाएगा| हिंदी साहित्य ने भी आदिकाल से आज तक प्रेम को अनुराग के रूप में
विभिन्न रूपों में भोगा है|
ऊपर
कहा जा चुका है कि प्रेम के मुख्यतः दो रूप होते हैं- लौकिक और आध्यात्मिक लेकिन
लौकिक प्रेम के माध्यम से जब पारलौकिकता की अनुभूति हो जाती है तभी वह पूर्ण प्रेम
माना जाएगा जैसे- लैला-मंजनू, शीरीं-फरहाद, भगवान् कृष्ण और राधा| सच्चे प्रेम में
भोग नगण्य है, वह विराट होता है तभी मनुष्य ईश्वर बन जाता है और समाज को नयी दिशा
प्रदान करने लगता है| कृष्ण और राधा का प्रेम प्रकृति और पुरुष का प्रेम है, शक्ति
और शिव का प्रतीक है| पीछे कहा भी जा चुका है कि शक्ति के बिना शिव मात्र शव है|
पौराणिक
मान्यता है कि आदि में ब्रह्म ही है, बाद में विष्णु जी के बाएँ अंग से लक्ष्मी जी
का जन्म हुआ जो कि शक्तिस्वरूपा थीं| दर्शन के क्षेत्र में जीव-ब्रह्म और माया
अथवा प्रकृति, जीव और परमसत्ता| त्रिदेव की मान्यतानुसार ब्रह्मा, विष्णु और महेश
हैं| महेश (शंकर) के दो रूप हैं- एक कल्याणकारी और दूसरा संहराक प्रकृति; वह जब-जब
विद्रोह करती है शिव उसे शांत करता है| काल की सीमा से परे उसका अस्तित्व है शायद!
कुछ लोगों की मान्यता है कि हम आदिम-हौवा की संतान हैं तो कुछ के अनुसार
श्रद्धा और मनु की| ये सब अलग-अलग मत हैं| प्रेम का स्वरुप ईश्वरमय तभी बन सकता है
जब हम सबमें ईश्वर के दर्शन करें| यह भारतीय मत है| अनेकता में एकता स्थापित करना
भारतीय संस्कृति का मूल है, जिसका आधार प्रेम भावना ही तो है|
संपर्क- 9/48 साहित्य सदन,
कोतवाली मार्ग, महमूदाबाद (अवध), सीतापुर-261203
ईमेल- sahitya_sadan@rediffmail.com
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संदीप द्विवेदी (वाहिद काशीवासी) आज के समय में हमारे देश में काव्य की अनेक विधाएँ प्रचलित हैं जो हमें साहित्य के रस से सिक्त कर आनंदित करती ह...
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10 सितंबर , 1932 को अल्मोड़ा (उत्तराखंड) के गाँव ओलियागाँव के एक किसान परिवार में जन्मे शेखर जोशी कथा-लेखन को दायित्वपूर्ण कर्म मानते है...
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- डा0 गोपाल नारायन श्रीवास्तव जब हम भाषा के वैश्विक परिदृश्य की बात करते हैं तो सबसे पहले हमें भाषा विशेष की क्षमताओं क...