Monday 24 February 2020

केदार के मुहल्ले में स्थित केदारसभगार में केदार सम्मान

हमारी पीढ़ी में सबसे अधिक लम्बी कविताएँ सुधीर सक्सेना ने लिखीं - स्वप्निल श्रीवास्तव 

सुधीर सक्सेना का गद्य-पद्य उनके अनुभव की व्यापकता को व्यक्त करता है - कौशल किशोर 

मित्रता और आत्मीयता का बड़ा कवि - अजीत प्रियदर्शी 

मुक्तिचक्र और जनवादी लेखक मंच द्वारा प्रदत्त किये जाने वाले जनकवि केदारनाथ अग्रवाल सम्मान 2018 का दो दिवसीय आयोजन बाँदा और कालिंजर में दिनांक 22 दिसम्बर और 23 दिसम्बर को सम्पन्न हुआ। यह सम्मान वरिष्ठ कवि सुधीर सक्सेना को दिया गया था अस्तु डीसीडीएफ स्थित कवि केदारनाथ अग्रवाल सभागार में आयोजित 22 दिसम्बर के आयोजन में चर्चा के केन्द्र में सुधीर सक्सेना का बहुआयामी व्यक्तित्व व रचनाकर्म रहा। अध्यक्षता वरिष्ठ कवि स्वप्निल श्रीवास्तव ने की व मुख्य वक्ता वरिष्ठ कवि रेवान्त के प्रधान सम्पादक एक्टिविस्ट श्री कौशल किशोर थे। अन्य वक्ताओं में लखनऊ से आये युवा आलोचक अजीत प्रियदर्शी, युवा कवि बृजेश नीरज और फतेहपुर से आये युवा कवि आलोचक प्रेमनन्दन रहे। शुरुआत में संचालक उमाशंकर सिंह परमार ने सुधीर सक्सेना का परिचय देते हुए उनके साथ अपने सम्बन्धों व उनकी कविताओं पर विस्तार से अपनी बात रखी। बाँदा में केदारबाबू के शिष्य वरिष्ठ गीतकार जवाहर लाल जलज ने सभी आगन्तुकों का स्वागत करते हुए जनकवि केदारनाथ अग्रवाल सम्मान की रूपरेखा और सार्थकता सबके सामने रखी व इस सम्मान को एक आन्दोलन का प्रतिफलन कहते हुए बाँदा में केदार की विरासत को आगे बढ़ाने का संकल्प लिया। लखनऊ से आए मुख्य अतिथि वरिष्ठ कवि कौशल किशोर ने सुधीर सक्सेना, स्वप्निल और अपनी मित्रता के संस्मरण सुनाये तथा आज के खतरों से आगाह करते हुए इन खतरों के समक्ष बौनी पड़ रही पत्रकारिता पर दुख व्यक्त किया और कहा कि हिन्दी पत्रकारिता की पक्षधरता सच्चाई रही है वह सच से कभी पीछे नहीं रही। आज रघुवीर सहाय और सुधीर सक्सेना जैसे पत्रकारों को हमें अपने आदर्श पर रखना होगा। सुधीर सक्सेना की 'समरकन्द में बाबर' और 'अयोध्या' कविता का जिक्र करते हुए उनकी राजनैतिक विचारधारा और काव्य मर्म का उदघाटन किया। जनवादी लेखक मंच के सचिव प्रद्युम्न कुमार सिंह ने सुधीर सक्सेना पर सम्मान पत्र का वाचन किया और मुक्तिचक्र सम्पादक गोयल जी ने अंग वस्त्र भेंट किया। रामावतार साहू, रामकरण साहू, नारायण दास गुप्त, मुकेश गुप्त, रामप्रताप सिंह परिहार ने अतिथियों को अंंग वस्त्र देकर स्वागत किया। अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ कवि स्वप्निल श्रीवास्तव ने प्रतीक चिह्न देकर सुधीर सक्सेना को जनकवि केदार सम्मान से सम्मानित किया। युवा आलोचक अजीत प्रियदर्शी ने सुधीर सक्सेना के कविता संग्रह 'किताबें दीवार नहीं जोतीं' का जिक्र करते हुए कहा आज हमारे समाज का सबसे बड़ा संकट है कि मैत्री भाव घटता जा रहा है। सुधीर सक्सेना ने अपने सौ मित्रों पर कविता लिखकर और विभिन्न शहरों पर कविता लिखकर आत्मीयता का रचाव किया है। प्रेमनन्दन ने कहा कि सुधीर सक्सेना ने सबसे अधिक और शानदार कविताएँ शहरों पर लिखी हैं। वह जिस भी शहर से जुड़े उसी पर लिखा। सम्मानित कवि सुधीर सक्सेना ने अपने संक्षिप्त वक्तव्य में बाँदा की धरती और बाँदा के साथ अपने लम्बे जुड़ाव का जिक्र किया। उन्होंने कहा कि बाँदा को केन बाँधती है या फिर कविता और कोई भी बाँदा को घेर नहीं सकता। बाँदा की संस्कृति कविता की संस्कृति है, तुलसी से लेकर अब तक यह संस्कृति अडिग और अविचल भाव से चली आ रही है, निरन्तर आगे बढ़ती रहेगी। केदार की धरती में केदार सभागार मेंं केदार की विरासत के लिए काम कर रहे मुक्तिचक्र और जनवादी लेखक मंच द्वारा केदार सम्मान पाकर मैंं धन्य हूँ। सुधीर सक्सेना ने अपनी पाँच कविताओं का पाठ किया- काशी में प्रेम, विडम्बना कविता को लोगों ने खूब सराहा। युवा ग़ज़लकार कालीचरण सिंह ने बीच-बीच में अपनी ग़जल कहकर श्रोताओं की तालियाँ बटोरीं और सम्मान समारोह में रसवत्ता बनाये रखी। अध्यक्षता कर रहे स्वप्निल श्रीवास्तव ने सुधीर सक्सेना को अपनी पीढ़ी का एकमात्र कवि कहा जिसने सबसे अधिक लम्बी कवितायें लिखी और सुधीर सक्सेना को यह सम्मान मिलने पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुये कहा कि हम सब इस ने समारोह में उपस्थित होकर फिर एक बार केदार की धरती की ऊर्जा देख ली । मुक्तिचक्र सम्पादक गोपाल गोयल ने केदार सम्मान की पीठिका बताते हुए कहा कि सुधीर सक्सेना कौशल किशोर स्वप्निल जी का बाँदा आना हमारे लिए बडी उपलब्धि है। गोष्ठी को वरिष्ठ अधिवक्ता आनन्द सिन्हा ,  रणवीर सिंह चौहान , रामकरण साहू, रामावतार साहू , चन्द्रपाल कश्यप जी ने भी सम्बोधित किया । और अन्त में डीसीडीएफ अध्यक्ष सीपीआईएम नेता वामपंथी विचारक सुधीर सिंह ने सभी आगन्तुकों का आभार व्यक्त किया ।

बुन्देली  अवशेषों में कविता की चमक 

बाँदा से लगभग साठ कीमी दूर मध्य प्रदेश की सीमा सतना और पन्ना से सटा हुआ चन्देलकालीन दुर्ग कालिंजर जनपद बाँदा की ऐतिहासिक धरोहर है कालिंजर को बाँदा के लोग भावुकता की हद तक प्यार करते हैं यही कारण है सरकारी बेरुखी और संसाधनों के अभाव के व खण्डित तथा ध्वस्त होने के बावजूद भी अपने भीतर बुन्देलखण्ड के पुरातन वैभव की कथा कह रहा है । रानी महल, अमान सिंह का महल, विभिन्न शैली में नृत्य आकृतियों से जटित दीवारों से युक्त विशाल रंगमहल, मृगदाव, शिव मन्दिर, बावडी, पोखर, तालाब, सैनिक कक्ष, राजदरबार, जैसे आकर्षक निर्मितियों को देखकर प्रतीत होता है कि बुन्देलखण्ड का स्थापत्य किसी जिन्दा कविता से कमतर नही है। रंगमहल में प्रवेश करते ही शीतलता का आभास होता है लम्बा चौडा आँगन और आँगन के चारो तरफ़ बारामदे हैं चारो तरफ ऊपर जाने की सीढिया हैं जिनसे चढ़कर हम सामने की छत पर बैठ गये इसी रंगमहल में कविता पाठ का आयोजन हुआ। रंगमहल में कविता पढ़ना एक बार पुनः इतिहास की ओर लौटना है । इस ध्वन्सावशेष मे कभी रात दिन संगीत और शब्द का झंकृत निनाद रहा होगा और उसी जगह पर पुनः शब्दों की गूँज उठी । अध्यक्षता स्वप्निल श्रीवास्तव ने की और संचालन स्वयं  सुधीर सक्सेना ने किया । पहली कविता संचालक ने पढ़ी जिसकी सराहना सभी ने की । जवाहर लाल जलज ने ओजस्वी शब्दों में व्यक्ति की जिजिविषा और जीवन के मध्य अन्तराल पर बात रखी । वरिष्ठ कवि कौशल किशोर ने "खोदा पहाड़ निकली चुहिया" कविता का पाठ किया जिसमे आज के बुद्धिजीवी वर्ग के खोखलेपन को उजागर किया गया है। प्रेमनन्दन ने जनवादी चेतना की प्रगतिशील कविताओं का पाठ किया उनकी कविता मेरा गाँव को लोगों ने पसंद किया । पीके सिंह ने अपनी प्रेम कविताओं का पाठ कर सबका मन मोह लिया । बृजेश नीरज ने हिन्दी गज़लों को पाठ किया बृजेश ने परिनिष्ठित भाषा मे ग़जल के व्याकरण का निर्वाह कर शानदार उदाहरण पेश किया। युवा ग़ज़लकार कालीचरण सिंह ने तरन्नुम की गज़ल कहीं उनकी गजल "कहीं और चलें चलें" को सबने सराहा। अजीत प्रियदर्शी ने अपनी निजी पीडाओं के आलोक में समूचे समाज और समाज के ठेकेदारों की नकली संवेदना को अपनी कविताओं में दिखाया। उमाशंकर सिंह परमार ने लौटना और सन्नाटा कविता का पाठ किया दोनो कवितायें रेवान्त के ताजा अंक में प्रकाशित हैं। जनवादी लेखक मंच के कोषाध्यक्ष नारायण दास गुप्त ने अपने बुन्देली लोक गीत खागा सकल पट्यौला खा गा और साईकिल के पिछले टायर का अगला होना कविताओं का पाठ किया। अध्यक्षता कर रहे स्वप्निल श्रीवास्तव में एक प्रेम कविता और एक बंजारे कविता का पाठ किया। उनकी बंजारे कविता की पंक्ति "जितना मै आगे बढता गया उतना ही पीछे छूटता गया" कालिंजर के इतिहास को भी व्यक्ति कर देती है समय और इतिहास जितना आगे बढता गया ऊँची पहाडी में स्थित यह ऐतिहासिक दुर्ग अपनी भव्यता खोता गया। अन्त में संचालक, कवि केदार सम्मान से सम्मानित कवि सुधीर सक्सेना ने घोषणा की कि दुनिया इन दिनो कवि केदारनाथ अग्रवाल पर जल्द ही विशेषांक लायेगी साथ ही कविता पाठ के समापन की घोषणा की। 

उमाशंकर सिंह परमार 

9838610776



Thursday 12 December 2019

आलोचना का विपक्ष

साहित्य में ऐसे बहुत से लेखक कवि हैं, जिनका जन संघर्ष से दूर-दूर तक वास्ता नहीं। सरप्लस पूँजी से सैर- सपाटे और मौज-मस्ती करते हैं और अपने कमरे में बैठकर मार्क्स की खूब सारी किताबें पढ़कर जनचेतना का मुलम्मा अपने ऊपर चढ़ाते हैं। गोष्ठियों और मंचों पर  खूब भाषण देते हैं। भारतवर्ष में ऐसे नवबुजुर्वा लोकवादियों की कमी नहीं। ये मार्क्सवाद और लोक चेतना का चोला पहनकर अपनी गलत कमाई को सफेद  करना चाहते हैं। अपने पक्ष में एक माहौल बनाना चाहते हैं। ये पूँजीपतियों और सामंतों से कम खतरनाक नहीं है। इनका एक प्रमुख अभिलक्षण यह भी है कि ये केवल सत्ता का विरोध करते हैं, शोषक समाज का नहीं, क्योंकि यह उनके ही अंग होते हैं। लोक चेतना और वर्ग संघर्ष उनका मुखौटा है। उनका डीक्लासीफिकेसन एक छलावा है इसलिए हमारी लड़ाई केवल सत्ता और पूँजी  से नहीं, इन तथाकथित सफेदपोशों से भी है जो अपने  को वर्गविहीन कहकर हमें ठगते हैं।'' यह कथन इसी  आलोचना पुस्तक से है। इसी लोकधर्मी आलोचना की खराद में समकालीन हिंदी कविता के कवियों की कविताओं को रखा गया है। जो समकालीन हिंदी कविता के एक नये विमर्श को कविता  के  पाठकों  के  सामने  रखती  है |आज के  इस  चर्चित  आलोचक  का  पूरी  तरह  से  यह  मानना  है  की  ये  कवि  कविताओं  में या  तो  कलावाद  को मोमेंटम  प्रदान  करते  हैं या फिर  गद्य  लेखन  मार्क्सवाद , स्त्री  विमर्श  आदि  का  कोइ  न  कोइ  विचार  वितंडा  खड़ा  कर  अपने  को  सामने  लानें  का उपक्रम  करते  है  यह  तो  साहित्य  में  स्वयम  को  चर्चा  में  लाने  का सायास प्रयत्न  भर  है | निश्चय  ही सुशील कुमार  की  यह  आलोचना  पुस्तक  साहित्य  के  पाठकों  के  सामने  काव्य  आलोचना  के  महत्वपूर्ण   सवालों  को  लेकर  खड़ी  होती  है | यह  किताब  हाल  ही  में  लोकोदय प्रकाशन  लखनऊ  से  प्रकाशित  हुई  है |

Wednesday 12 July 2017

गोरख पाण्डेय की कविताएँ

तमाम विद्रूपताओं और अंधे संघर्षों के बावजूद जीवन में उम्मीद और प्यार के पल बिखरे मिलते हैं. इन्हीं पलों को बुनने वाले कवि का नाम है गोरख पाण्डेय. इनकी कविताओं में जीवन और समाज की सच्चाईयाँ अपनी पूरी कुरूपता के साथ मौजूद हैं लेकिन इनके बीच जीवन का सौन्दर्य आशा की किरण बनकर निखर आता है.  


प्रस्तुत हैं सौन्दर्य और संघर्ष के कवि गोरख पाण्डेय की कुछ कविताएँ-

सात सुरों में पुकारता है प्यार 
(रामजी राय से एक लोकगीत सुनकर)

माँ, मैं जोगी के साथ जाऊँगी

जोगी शिरीष तले
मुझे मिला

सिर्फ एक बाँसुरी थी उसके हाथ में
आँखों में आकाश का सपना
पैरों में धूल और घाव

गाँव-गाँव वन-वन
भटकता है जोगी
जैसे ढूँढ रहा हो खोया हुआ प्यार
भूली-बिसरी सुधियों और
नामों को बाँसुरी पर टेरता

जोगी देखते ही भा गया मुझे
माँ, मैं जोगी के साथ जाऊँगी

नहीं उसका कोई ठौर ठिकाना
नहीं ज़ात-पाँत
दर्द का एक राग
गाँवों और जंगलों को
गुंजाता भटकता है जोगी
कौन-सा दर्द है उसे माँ
क्या धरती पर उसे
कभी प्यार नहीं मिला?
माँ, मैं जोगी के साथ जाऊँगी

ससुराल वाले आएँगे
लिए डोली-कहार बाजा-गाजा
बेशक़ीमती कपड़ों में भरे
दूल्हा राजा
हाथी-घोड़ा शान-शौकत
तुम संकोच मत करना, माँ
अगर वे गुस्सा हों मुझे न पाकर

तुमने बहुत सहा है
तुमने जाना है किस तरह
स्त्री का कलेजा पत्थर हो जाता है
स्त्री पत्थर हो जाती है
महल अटारी में सजाने के लायक

मैं एक हाड़-माँस क़ी स्त्री
नहीं हो पाऊँगी पत्थर
न ही माल-असबाब
तुम डोली सजा देना
उसमें काठ की पुतली रख देना
उसे चूनर भी ओढ़ा देना
और उनसे कहना-
लो, यह रही तुम्हारी दुलहन

मैं तो जोगी के साथ जाऊँगी, माँ
सुनो, वह फिर से बाँसुरी
बजा रहा है

सात सुरों में पुकार रहा है प्यार

भला मैं कैसे
मना कर सकती हूँ उसे ?


हे भले आदमियो!
  
डबाडबा गई है तारों-भरी
शरद से पहले की यह
अँधेरी नम
रात।
उतर रही है नींद
सपनों के पंख फैलाए
छोटे-मोटे ह्ज़ार दुखों से
जर्जर पंख फैलाए
उतर रही है नींद
हत्यारों के भी सिरहाने।
हे भले आदमियो!
कब जागोगे
और हथियारों को
बेमतलब बना दोगे?
हे भले आदमियों!
सपने भी सुखी और
आज़ाद होना चाहते हैं।



तटस्थ के प्रति  

चैन की बाँसुरी बजाइए आप
शहर जलता है और गाइए आप
हैं तटस्थ या कि आप नीरो हैं
असली सूरत ज़रा दिखाइए आप



फूल और उम्मीद

हमारी यादों में छटपटाते हैं
कारीगर के कटे हाथ
सच पर कटी ज़ुबानें चीखती हैं हमारी यादों में
हमारी यादों में तड़पता है
दीवारों में चिना हुआ
प्यार।

अत्याचारी के साथ लगातार
होने वाली मुठभेड़ों से
भरे हैं हमारे अनुभव।

यहीं पर
एक बूढ़ा माली
हमारे मृत्युग्रस्त सपनों में
फूल और उम्मीद
रख जाता है।



समझदारों का गीत  
 
हवा का रुख कैसा है, हम समझते हैं
हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं, हम समझते हैं
हम समझते हैं ख़ून का मतलब
पैसे की कीमत हम समझते हैं
क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है, हम समझते हैं
हम इतना समझते हैं
कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं।

चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं
बोलते हैं तो सोच-समझकर बोलते हैं हम
हम बोलने की आजादी का
मतलब समझते हैं
टुटपुंजिया नौकरी के लिए
आज़ादी बेचने का मतलब हम समझते हैं
मगर हम क्या कर सकते हैं
अगर बेरोज़गारी अन्याय से
तेज़ दर से बढ़ रही है
हम आज़ादी और बेरोज़गारी दोनों के
ख़तरे समझते हैं
हम ख़तरों से बाल-बाल बच जाते हैं
हम समझते हैं
हम क्यों बच जाते हैं, यह भी हम समझते हैं।

हम ईश्वर से दुखी रहते हैं अगर वह
सिर्फ़ कल्पना नहीं है
हम सरकार से दुखी रहते हैं
कि समझती क्यों नहीं
हम जनता से दुखी रहते हैं
कि भेड़िया-धसान होती है।

हम सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं
हम समझते हैं
मगर हम कितना दुखी रहते हैं यह भी
हम समझते हैं
यहाँ विरोध ही बाजिब क़दम है
हम समझते हैं
हम क़दम-क़दम पर समझौते करते हैं
हम समझते हैं
हम समझौते के लिए तर्क गढ़ते हैं
हर तर्क गोल-मटोल भाषा में
पेश करते हैं, हम समझते हैं
हम इस गोल-मटोल भाषा का तर्क भी
समझते हैं।

वैसे हम अपने को किसी से कम
नहीं समझते हैं
हर स्याह को सफे़द और
सफ़ेद को स्याह कर सकते हैं
हम चाय की प्यालियों में
तूफ़ान खड़ा कर सकते हैं
करने को तो हम क्रांति भी कर सकते हैं
अगर सरकार कमज़ोर हो
और जनता समझदार
लेकिन हम समझते हैं
कि हम कुछ नहीं कर सकते हैं
हम क्यों कुछ नहीं कर सकते हैं
यह भी हम समझते हैं।



फूल  

फूल हैं गोया मिट्टी के दिल हैं
धड़कते हुए
बादलों के ग़लीचों पे रंगीन बच्चे
मचलते हुए
प्यार के काँपते होंठ हैं
मौत पर खिलखिलाती हुई चम्पई

ज़िन्दगी
जो कभी मात खाए नहीं
और ख़ुशबू हैं
जिसको कोई बाँध पाए नहीं

ख़ूबसूरत हैं इतने
कि बरबस ही जीने की इच्छा जगा दें
कि दुनिया को और जीने लायक बनाने की
इच्छा जगा दें।



रफ़्ता-रफ़्ता नज़रबंदी का ज़ादू घटता जाए है
  
रफ़्ता-रफ़्ता नज़रबंदी का ज़ादू घटता जाए है
रुख से उनके रफ़्ता-रफ़्ता परदा उतरता जाए है

ऊँचे से ऊँचे उससे भी ऊँचे और ऊँचे जो रहते हैं
उनके नीचे का खालीपन कंधों से पटता जाए है

गालिब-मीर की दिल्ली देखी, देख के हम हैरान हुए
उनका शहर लोहे का बना था फूलों से कटता जाए है

ये तो अंधेरों के मालिक हैं हम उनको भी जाने हैं
जिनका सूरज डूबता जाए तख़्ता पलटता जाए है।




समाजवाद  

समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई
समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई

हाथी से आई, घोड़ा से आई
अँगरेजी बाजा बजाई, समाजवाद...

नोटवा से आई, बोटवा से आई
बिड़ला के घर में समाई, समाजवाद...

गाँधी से आई, आँधी से आई
टुटही मड़इयो उड़ाई, समाजवाद...

काँगरेस से आई, जनता से आई
झंडा से बदली हो आई, समाजवाद...

डालर से आई, रूबल से आई
देसवा के बान्हे धराई, समाजवाद...

वादा से आई, लबादा से आई
जनता के कुरसी बनाई, समाजवाद...

लाठी से आई, गोली से आई
लेकिन अंहिसा कहाई, समाजवाद...

महंगी ले आई, ग़रीबी ले आई
केतनो मजूरा कमाई, समाजवाद...

छोटका का छोटहन, बड़का का बड़हन
बखरा बराबर लगाई, समाजवाद...

परसों ले आई, बरसों ले आई
हरदम अकासे तकाई, समाजवाद...

धीरे-धीरे आई, चुपे-चुपे आई
अँखियन पर परदा लगाई

समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई
समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई



गुहार  

सुरु बा किसान के लड़इया चल तूहूँ लड़े बदे भइया।
कब तक सुतब, मूँदि के नयनवा
कब तक ढोवब सुख के सपनवा
फूटलि ललकि किरनिया, चल तूहूँ लड़े बदे भइया
सुरु बा किसान के लड़इया, चल तूहूँ लड़े बदे भइया।

तोहरे पसीवना से अन धन सोनवा
तोहरा के चूसि-चूसि बढ़े उनके तोनवा
तोह के बा मुठ्ठी भर मकइया, चल तूहूँ लड़े बदे भइया।
सुरु बा किसान के लड़इया, चल तूहूँ लड़े बदे भइया।

तोहरे लरिकवन से फउजि बनावे
उनके बनूकि देके तोरे पर चलावे
जेल के बतावे कचहरिया, चल तूहूँ लड़े बदे भइया।
सुरु बा किसान के लड़इया, चल तूहूँ लड़े बदे भइया।

तोहरी अंगुरिया पर दुनिया टिकलि बा
बखरा में तोहरे नरके परल बा
उठ, भहरावे के ई दुनिया, चल तूहूँ लड़े बदे भइया।
सुरु बा किसान के लड़इया, चल तूहूँ लड़े बदे भइया।


जनमलि तोहरे खून से फउजिया
खेत करखनवा के ललकी फउजिया
तेहके बोलावे दिन रतिया, चल तूहूँ लड़े बदे भइया।
सुरु बा किसान के लड़इया, चल तूहूँ लड़े बदे भइया।

Tuesday 27 December 2016

कहानी - जली हुई रस्सी

- शानी

अपने बर्फ जैसे हाथों से वाहिद ने गर्दन से उलझा हुआ मफलर निकाला और साफिया की ओर फेंक दिया। पलक-भर वाहिद की ओर देखकर साफिया ने मफलर उठाया और उसे तह करती हुई धीमे स्वर में बोली, 'क्या मीलाद में गए थे?'
वाहिद ने बड़े ठंडे ढंग से स्वीकृतिसूचक सिर हिलाया और पास की खूँटी में कोट टाँग खिड़की के पास आया। खिड़की के बाहर अँधेरा था, केवल सन्नाटे की ठंडी साँय-साँय थी, जिसे लपेटे बर्फीली हवा बह रही थी। किंचित सिहरकर वाहिद ने खिड़की पर पल्ले लगा दिए और अपने बज उठते दाँतों को एक-दूसरे पर जमाते हुए बोला 'कितनी सर्दी है! जिस्म बर्फ हुआ जा रहा है, चूल्हे में आग है क्या?'
प्रश्न पर साफिया ने आश्चर्य से वाहिद की ओर देखा। बोली नहीं। चुपचाप खाट पर लेटे वाहिद के पास आई, बैठी और उसके कंधे पर हाथ रखकर स्नेह-सिक्त स्वर में बोली, 'मेरा बिस्तर गर्म है, वहाँ सो जाओ।'
वाहिद अपनी जगह लेटा रहा, कुछ बोला नहीं। थोड़ी देर के बाद उठकर पास ही पड़ी पोटली खींची, उसकी गाँठें खोली और कागज की पुड़िया रूमाल से अलग कर बोला, 'शीरनी है, लो खाओ।'
'रहने दो,' साफिया बोली 'सुबह खा लूँगी। क्या मीलाद में बहुत लोग थे? किसके यहाँ थी?'
'वकील साहब के यहाँ। एक तो ग्यारहवें शरीफ की मीलादें और दूसरे इतनी सर्दी।'
वाहिद ने रजाई गर्दन तक खींच ली। अनायास भर उठने वाली झुरझुरी से एक बार सिहर कर अपना जिस्म समेटा और एक कोने में हो रहा। बंद किवाड़ों को धक्का मारकर अँधेरे और शीत में ठिठुरती हवा लौट गई और किवाड़ों की दराज में सिमटकर हवा दोशीजा की नटखट छुअन की तरह गर्म रजाई में भी वाहिद को छूकर कँपा गई।
पास वाले मकान से एक शोर उठ रहा था, एक बड़ी मीठी चहल-पहल, जिसमें पुरुष-स्त्रियों के स्वर और हँसी-मजाक के फव्वारे, देगों की उठा-पटक बल्लियों और कफगीरों के टकराने और झनझनाने की आवाजों के साथ घुले-मिले थे।
सफिया ने कहा 'मुनीर साहब के यहाँ कल सुबह दावत है।'
वाहिद ने सुन-भर लिया और आँखें बंद कर लीं।
मुनीर साहब वाहिद के घर के पास ही रहते थे। आज से कोई छह साल पहले मुनीर साहब यहाँ मुनीम थे, पर बाद में उन्होंने नौकरी छोड़ दी और गल्ले का व्यापार शुरू कर दिया। किस्मत अच्छी थी, अतः दो साल के अंदर ही उन्होंने हजारों रुपए कमाए और अपना पुराना माटी का कच्चा मकान तुड़वाकर पक्का और बड़ा मकान बनवाया।
उस दावत की चर्चा वाहिद पिछले कई दिनों से सफिया से सुन रहा था। मुनीर साहब की पत्नी ने जो, अक्सर वाहिद के यहाँ दोपहर में आ जाया करती थी, दो हफ्ते पहले ही अपने यहाँ होने वाली दावत की घोषणा कर दी थी। जब कभी सफिया से भेंट हुई, थोड़ी इधर-उधर की चर्चा के पश्चात बात ग्यारहवीं शरीफ के महीने, मीलादों और दावतों पर पलट आई और उसने बातों ही बातों में कई बार सुनाया कि उनके यहाँ की दावत में कितने मन का पुलाव, कितना जर्दा और कितने मन के बकरे कटने को हैं और इतने दिन पहले ही उनके रिश्तेदार चावल-दाल चुनने-बीनने और दूसरे कामों के लिए आ गए हैं। इस जरूरत से ज्यादा इंतजाम करने के लिए उन्होंने सफाई दी कि मीलाद, तीजा और किसी धार्मिक काम में चाहे लोग न आएँ, पर खाने की दावत हो, तो एक बुलाओ, चार आएँगे। जब मामूली दावतों का यह हाल होता है तो यह तो आम दावत है।
सफिया को बुरा लगा हो, ऐसी बात नहीं, पर उसने कभी कुछ नहीं कहा।
वही दावत कल होने जा रही थी।
बड़ी देर से छा गई चुप्पी को सहसा तोड़कर बड़े निराश स्वर में सफिया बोली 'मुनीर साहब की बीवी के पाँव तो जमीन पर ही नहीं पड़ते । इतनी उम्र हो गई फिर भी जेवरों से लदी पीली-उजली दुल्हन बनी फिरती हैं। भला बहू-बेटियों के सामने बुढ़ियों का सिंगार क्या अच्छा लगता है।'
वाहिद ने करवट बदली और एक लंबी साँस लेकर कहा 'जिसे खुदा ने इतना दिया है, वह क्यों न पहने? अपने-अपने नसीब हैं सफिया।'
सफिया को संतोष नहीं हुआ। थोड़ी देर चुप रहकर बड़े भरे हुए स्वर में बोली 'एक अपने नसीब हैं, खुदा जाने तुम्हारे मुकदमे का फैसला माटी मिला कब होगा!' और सफिया के भीतर से बड़ी लंबी और गहरी साँस निकली जो सीधे वाहिद के कलेजे में उतर गई।

वाहिद एक ढीला-ढाला, मँझोले कद का आदमी था। गरीबी और अभाव से उसका परिचय बचपन से ही था। बड़ी आर्थिक कठिनाइयों के बीच आठवीं की शिक्षा प्राप्त कर सका था। आठवीं के बाद किसी तरह कोशिश कर-कराके उसे फारेस्ट डिपार्टमेंट में फारेस्ट गार्ड की नौकरी मिल गई और आठ साल के भीतर ही वह डिप्टी रेंजर तक पहुँच गया। जंगल महकमे वालों को भला किस चीज की कमी। चार साल के अंदर ही वाहिद के नाम पोस्ट ऑफिस में डेढ़ हजार की रकम जमा हो गई जिसमें से सात सौ उसके ब्याह में खर्च हुए। पर सफिया का भाग्य शायद अच्छा नहीं था। पूरे दो साल भी सुख से नहीं रह पाई थी कि वाहिद को रिश्वत के आरोप में मुअत्तल कर दिया गया। वाहिद ने बहुत हाथ-पाँव मारे। पोस्ट ऑफिस से तीन सौ और निकल गए। हेड क्लर्क की कई दावतें हुईं। रेंज आफिसर साहब (जिनके सर्किल में वाहिद आता था और जिन्होंने रिपोर्ट आगे बढ़ाई थी) के यहाँ उसने कई बार, मिठाई, फलों की टोकरियाँ और शहर के भारी-भरकम आदमियों से ढेर सारी सिफारिशें भिजवाईं और डी.एफ.ओ. साहब की बीवी के पास (हालाँकि उसके पहले एक बार भी वहाँ जाने का अवसर नहीं आया था) सफिया को दो-तीन बार भेजा, पर कुछ नहीं हुआ। केस पुलिस को दे दिया गया और वाहिद पर मुकदमा चलने लगा।
पहले कुछ महीने तो वाहिद को काफी सांत्वनाएँ मिलीं  कि केस में कोई दम नहीं, खारिज हो जाएगा। यहाँ वाले ज्यादती और अन्याय करें पर ऊपर तो सबकी चिंता रखने वाला है और वाहिद के केस के साथ अकेले वाहिद का नहीं दो और जनों का भाग्य जुड़ा है। अगर वाहिद दोषी भी है, तो वे लोग तो निर्दोष हैं इत्यादि।
जब एक साल का अर्सा बीत जाने पर मुकदमा तय नहीं हुआ, पोस्ट आफिस से पूरे पैसे निकल गए और सफिया के जिस्म पर एक भी जेवर न रहा तो वाहिद की हिम्मत टूट गई और पहले जुम्मे के अलावा कभी भी मस्जिद की ओर रुख न करने वाला वाहिद अब पाँचों वक्त नवाज पढ़ने लगा।
लगभग दो साल के बाद फैसला हुआ और आशा के विपरीत, अच्छे से अच्छा वकील लगाने के बावजूद, वाहिद को साल भर की सजा हो गई।
वैसे तो अकस्मात टूट पड़ने वाली मुसीबत पहाड़ से कम न थी पर रिश्तेदारों और दोस्तों ने हाईकोर्ट में अपील करने का किसी-न-किसी तरह प्रबंध कर दिया और पूरे डेढ़ बरस से वाहिद हाईकोर्ट के फैसले का इंतजार कर रहा है, भले उस प्रतीक्षा में एक जून के खाने के बाद दूसरे जून की चिंता की हड़बड़ाहट, सफिया की शिकायतें, दिन-प्रतिदिन टूटता उसका स्वास्थ्य और उस दुर्दिन में माँ बनने की एहतियात, आवश्यक दवाई व देखभाल की सारी समस्याएँ शामिल थीं।

मुनीर साहब के यहाँ से देगों में भारी कफगीरों के फेरने-टकारने का स्वर गूँजा, बड़े जोर से छनन-छन्न की आवाज हुई और फिर घी में पड़े ढेर सारे मसालों की मीठी-सोंधी खुशबू फैल गई।
घी अब वाहिद के लिए ख्वाब है। जब तक लोअर कोर्ट से फैसला नहीं हुआ था, ऑफिस से मुअत्तली का एलाउंस मिल जाया करता था, उसका ही सहारा कम न था। पर अब कहीं का कोई आसरा नहीं। उन कड़वे दिनों को वाहिद और सफिया मिलकर झेल भी लें, लेकिन उस मासूम जान का क्या होगा, जो वाहिद के दुर्दिन में ही सफिया के भाग्य में आने को थी? प्राइवेट फंड की जो भी थोड़ी बहुत रकम जमा थी और वापस मिलने को थी, उसके जाने के बहुत पहले से रास्ते तैयार थे, अतः उसका क्या भरोसा?
एक दिन झिझकती हुई सफिया बोली 'एक बात कहूँ?'
पल भर के लिए वाहिद डर सा गया, पता नहीं सफिया कौन-सी बात कहेगी? तुरंत जवाब देते नहीं बना। क्षण भर उसकी तरफ देखता रहा फिर पास जाकर अपनी हथेलियों में उसका चेहरा ले बड़ी उदास आँखों से देखने लगा 'क्या कहती हो?'
सफिया बोली 'प्राइवेट फंड के पैसे मिलेंगे, तो घी ला दोगे? बहुत दिनों से अपने यहाँ पुलाव नहीं बना।'
वाहिद के भीतर जैसे किसी ने हाथ डालकर खँगाल दिया हो। अपने को किसी तरह पहले वह संयत कर धीरे से मुस्कराया, फिर जरा जोर से बनाई हुई हँसी हँसता हुआ बोला 'बस?'
सफिया संकोच से लाल होकर मुस्कराती हुई वाहिद के सीने में छिप गई।
वहाँ से हटकर जब वाहिद दूसरे कमरे में आ गया तो निढाल सा खाट में पड़ गया। भीतर से उफनती रुलाई का आवेग पलकों पर, ओठों पर बिछल रहा था। मुँह पोंछने के बहाने रुमाल से उसने आँखें पोंछीं और अपने लरज रहे ओंठ बाँहों में भींच लिए।
उस बात को भी तीन माह हो गए थे। सफिया ने एक-दो बार अप्रत्यक्ष रूप से पूछने की कोशिश की और चुप रह गई। उस रकम की वाहिद को आज भी प्रतीक्षा है।
वाहिद ने करवट बदली। मुनीर साहब के यहाँ का शोर थम गया था और इक्की-दुक्की आवाजें आ रही थीं। सफिया थककर सो गई थी।

सर्दी की सुबह वाहिद के लिए आठ से पहले नहीं होती। पर उस दिन देर से सोने पर भी आँख सुबह जल्दी खुल गई। वैसे काम होने या न होने पर भी वह चाय आदि से निपटकर नौ से पहले ही बाहर निकल जाता है लेकिन उस दिन उसकी चाय दस बजे हुई।
बाहर मुनीर साहब के यहाँ भीड़ इकट्ठी हो रही थी साइकिल और पाँवों की रौंद से उभड़-उभड़कर धूल का बादल फैल-बिखर रहा था और दिनों की तरह चाय देते हुए आज सफिया ने न तो राशन के समाप्त होने की बात कही और न पूछा कि आज वाहिद कहाँ से क्या प्रबंध करेगा। पिछली रात भी कुछ नही था। सुबह का बच रहा थोड़ा खाना वाहिद और सफिया ने मिलकर खा लिया था। रात की मीलाद की शीरनी नाश्ते का काम दे गई थी।
वाहिद ने पूछा 'क्यों, क्या मुनीर साहब के यहाँ से कोई आया था?'
सफिया ने थोड़ा झिझकते हुए जवाब दिया 'नहीं, हज्जाम आया था, आम दावत की खबर दे गया है।'
वाहिद ने और कुछ नहीं पूछा और बाहर निकल आया। मुनीर साहब के घर के सामने से लेकर दूसरे मोड़ तक लोगों का आना-जाना लगा था। रंगीन धारीदार तहमत लपेटे, सफेद और काली टोपियाँ लगाए, सिर में रूमाल बाँधे लोग, मुनीर साहब के घर की ओर बढ़ रहे थे। एकाएक सामने से रिजवी साहब दिखाई दिए। वाहिद उनसे कतराना चाहता था पर जब सामने पड़ ही गए, तो बरबस मुस्कराकर आदाब करना ही पड़ा। रिजवी साहब के साथ नौ से लेकर तीन साल तक के चार बच्चे चल रहे थे, जिनके सिर पर आढ़ी-टेढ़ी, गंदी और तेल में चीकट मुड़ी-मुड़ाई टोपियाँ थी।
रिजवी साहब ने मुस्कराकर पूछा 'क्यों भाई, मुनीर साहब के यहाँ से आए हो क्या?'
वाहिद ने झिझककर कहा 'जी नहीं।'
वाहिद से रिजवी साहब बोले 'तो फिर चलो न?'
वाहिद क्षण भर चुप रहा। फिर सँभलकर बोला 'आप चलिए, मैं अभी आया।'
रिजवी साहब आगे बढ़ गए।
कोई दो घंटों के बाद जब वाहिद लौटा, तो मुनीद साहब के घर के सामने से भीड़ छँट गई थी, पर महफिल अभी भी चल रही थी। कोई पूछे या न पूछे, स्वागत करे या न करे, लोग आते, सामने के नल पर हाथ धोते और बैठ जाते थे।
एक ओर से कंधे पर कपड़े से ढका तश्त लिए, चिंचोड़ी गई हड्डियों के गिर्द फैले ढेर सारे कुत्तों को हँकालती हमीदा की माँ निकली। हमीदा की माँ पिछले पाँच वर्षों से मुनीर साहब के यहाँ नौकर थी। अक्सर तीज-त्यौहारों के अवसर पर मुनीर साहब के यहाँ से शीरनी लेकर हमीदा की माँ वाहिद के यहाँ आया करती थी। उससे बात करने की न तो वाहिद को ही कभी आवश्यकता पड़ी और न अवसर ही आया। फिर भी वाहिद ने आज रोककर पूछा 'हमीदा की माँ, क्या लिए जा रही हो?'
हमीदा की माँ ने पल्लू सँभालकर कहा 'खाना है भैया, सिटी साहब के यहाँ पहुँचाने जा रही हूँ।'
'भला वह क्यों?'
'अब पता नहीं, सिटी साहब आम दावत में आना पसंद करें, न करें, सो बेगम साहबा भिजवा रही हैं।'
और हमीदा की माँ आगे बढ़ने लगी, तभी एकाएक चौंककर, (जैसे कोई महत्वपूर्ण और विशेष बात छूटी जा रही हो) जरा आवाज ऊँची करके, रोकने के अंदाज में वाहिद ने पूछा, 'और कहाँ-कहाँ ले जाना है हामिद की माँ?'
हामिद की माँ ने थोड़ा रुककर कहा 'पता नहीं भैया! फिर भी इतना जानती हूँ, अभी मेरी जान को छुटकारा नहीं।'
वाहिद ओठों में ही मुस्कराया और मुनीर साहब के घर की ओर बढ़ा। सामने आँगन में दो-तीन बड़ी-बड़ी दरियाँ (जो संभवतः हर दावत में पहुँच-पहुँच कर गंदी हो चली थीं) बिछी हुई थीं, जिन पर साफ, नए कपड़े पहने कुछ बच्चे खेल रहे थे। पास के नल से क्षण-प्रतिक्षण बह रहे पानी से आँगन के आधे हिस्से में कीचड़ फैल चुका था। पास ही दो-तीन चारपाइयाँ डाल दी गई थीं। चारपाइयाँ शायद उन उम्मीदवारों के बैठने के लिए जो देर से आने के कारण चल रही पाँत समाप्त होने और दूसरी पाँत के प्रारंभ होने की प्रतीक्षा करते हैं। उन्ही लोगों में से क्या वाहिद भी है? वह बड़े फीके ढंग से मन-ही-मन हँसा। रस्सी भले ही जल गई हो, पर क्या उसका बल इतनी जल्दी निकल जाएगा।
थोड़ी देर वाहिद वहीं खड़ा रहा। वहाँ बैठने-बिठाने अथवा पूछने के लिए किसी की आवश्यकता नहीं थी। लोग आते थे, जाते थे।
भीतर के कमरे से जहाँ खाना चल रहा था, बर्तनों की टकराहट के साथ पुलाव की महक साँसों के साथ वाहिद के फेंफड़ों में भर गई। मुँह भर आया, घूँट हलक के नीचे उतारकर वाहिद एक ओर खड़े दाँत खोदते औक थूकते दो-तीन दाढ़ी वाले बुजुर्गों के पास जा खड़ा हुआ। दाँत के अँतरों में फँस गए गोश्त के टुकड़ों को तीली से निकाल फेंकने की जी-तोड़ कोशिश करते हुए उन लोगों ने केवल वही सवाल किया, जिसका जवाब वाहिद पिछले डेढ़ बरस से प्रायः हर मिलने वाले को दिया करता था कि उसके केस का क्या हुआ, किस वकील को लगाया है, कितनी परेशानियाँ हो गई और अपील के फैसले को कितनी देर है? आदि।
वाहिद ने सैकड़ों बार कही बात एक बार फिर अपने अनमने ढंग से दोहरा दी। तबी दरवाजे के पास मुनीर साहब दिखाई दिए। इधर से ध्यान हटाकर वाहिद ने मुनीर साहब के चेहरे की तरफ अपनी आँखें जमा दी। पर लगातार कई मिनटों तक मुनीर साहब के चेहरे की तरफ देखते रहने पर भी उनका ध्यान वाहिद की तरफ नहीं लौटा और वह अपने किसी नौकर को हिदायतें देकर लौटने लगे, तो अपनी जगह से एकदम आगे आ, पुकारकर वाहिद ने कहा, 'मुनीर साहब, आदाब अर्ज है।'
मुनीर साहब जाते-जाते पल भर को रुके, आदाब लिया, वाहिद की ओर देखकर मुस्कराए और तेजी से भीतर चले गए।
एक दम पीछे अपनी जगह से लौटने से पूर्व वाहिद ने सुना, पास के दाढ़ी वाले सज्जन उसका नाम लेकर पुकार रहे थे। लौटकर देखा तो उन्होंने कहा 'वाहिद मियाँ, पान लीजिए।'
एक कम उम्र का लड़का वाहिद के आगे पान की तश्तरी बढ़ाए खड़ा था। क्षण भर रुककर वाहिद ने अपने इर्द-गिर्द देखा, सामने खड़े लड़के पर एक निगाह डाली, तश्तरी से एक पान उठाकर मुँह में रखा और लौट रहे लोगों के पीछे हो लिया।
घर पहुँचकर देखा, सफिया तकिए में मुँह डाले चुपचाप पड़ी थी। बावर्चीखाने की ओर निगाह गई, चूल्हा लिपा-पुता साफ था और धुले-मँजे बर्तन चमक रहे थे। वाहिद को देखकर सफिया उठ बैठी और अपनी ओर घूरकर देख रहे वाहिद की आँखों में केवल निमिष-भरे के लिए देखकर ठंडे स्वर में पूछा 'कितने लोग थे दावत में?
हामिद की माँ तो आई नहीं?'

वाहिद के जले पर जैसे किसी ने नमक छिड़क दिया हो। तिलमिलाकर तीखे स्वर में उसने कहा, 'हमीदा की माँ की ऐसी की तैसी! मैं ऐसी दावतों में नहीं जाता, यह जानकर भी तुम ऐसे सवाल करती हो? हमने क्या पुलाव नहीं खाया? जिसने न देखा हो वह सालों के यहाँ जाए!'

केदार के मुहल्ले में स्थित केदारसभगार में केदार सम्मान

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