Wednesday 7 January 2015

प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा का आलेख

आखिर कब तक
- प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा
थूकना एक आम प्रवृति है. प्रकृति के अनुसार प्रायः विजातीय द्रव्य को बाहर निकालना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. प्रत्येक प्राणी के मुँह में लार बनती है जो पाचन क्रिया को दुरुस्त रखने का एक प्रमुख कारक है. खाना खाने में इसीलिए कम से कम ३२ बार चबाकर खाने को कहा जाता है कि एक तो जो पदार्थ हम खा रहे हैं वह अच्छी तरह चबाने से सूक्ष्म होगा, साथ ही मुँह की लार ग्रंथि से निकलने वाला द्रव (लार) अच्छी तरह से खाने वाले पदार्थ के साथ मिलकर भोज्य पदार्थ को आसानी से पचा देगा. प्रायः कुछ परिस्थतियों यथा व्रत/ रोजा जिनमें पानी का ग्रहण वर्जित होता है, को छोड़कर थूकना सामान्यतया विपरीत प्रक्रिया की श्रेणी में आता है. पशुओं को मैंने तो थूकते नहीं देखा, हाँ लार टपकाते अवश्य देखा है.
पहले आदमी आगे-पीछे देखकर थूकता था कि किसी के ऊपर पड़ न जाए. यदि अनजाने में किसी के ऊपर थूक पड़ जाए तो अति विनम्रता के साथ कई बार खेद प्रकट करते हुए क्षमा माँगता था, परन्तु आज की परिस्थतियाँ भिन्न हैं. पान खाए सैयाँ हमार, मलमल के कुरते पर छींट लाल लाल का मधुर गीत और कुव्याख्या आनंद देती है और अपने कुरते पर पड़ी छींटें कुरता पहनने वाले को गौरव का अहसास कराती थीं. सुखद आनंद, सुखद अनुभूति …? पान की पीक को मुँह में भरे गुलुल गुलुल बात करना, अंदाजे-बयां और ही है. पीक कितनी दूर जाएगी, यह भी कम्पटीशन होता था.
खैर, थूकिए, थूकने का मजा कुछ और ही है, विशेषकर जहाँ लिखा हो थूकना मना है उस स्थान पर. भवन की दीवार, जीने के कोने. वाह, वाह! चित्रकारी के उत्कृष्ट नमूने मिल जाएँगे. चित्रकारी के लिए वहाँ से नए-नए आइडिया मिल सकते हैं. चित्रकार भले ही आइडिया न ले पाए हों.
कुछ वर्षों पहले शायद आपने देखा और पढ़ा होगा की कुछ लोगों द्वारा थू थू अभियान चलाया गया था. प्रदर्शन का एक तरीका यह भी था. खैर, आजकल थूकना सामान्य प्रक्रिया के स्थान पर कौन कितना ज्यादा थूक सकता है एक सामयिक प्रतिस्पर्धा के रूप में चल रहा है. हालत तो यह हो गई है कि शरीर में ईश्वर कि व्यवस्था के अनुसार उपलब्ध कराई गई लार ग्रंथि अब प्राकृतिक कार्य के लिए कम पड़ रही है और लगता है कि आदमी अतिरिक्त लार ग्रंथि अपने शरीर में लगवा लिए हैं. यही नहीं, स्थिति यही रही तो ग्रंथियों का स्टाक कम पड़ेगा, तब आदमी को कारबोरेटर लगवाना पड़ेगा ताकि थूकने का माइलेज बढ़ सके और वह थूक प्रतियोगिता में हार न जाए. पद व गरिमा तो ताक पर रख दी गई. किसी का कोई लिहाज नहीं. स्वयं को आदमी अब नहीं देख रहा है कि वह क्या है, उसके स्वयं के कार्य कैसे हैं, वह क्या कर चुका है और आगे क्या करेगा. राष्ट्र का गौरव, समाज की संस्कृति, अपने पूर्वजों के संस्कारों कि इतनी अनदेखी. उसे भी अपने परिवार से ऐसा मिल रहा है या मिले, तो क्या होगा. अपने पर छींट भी पड़ जाए तो आत्मा तक व्यथित हो जाती है पर दूसरे पर पड़े तो क्या ? इतना थूका जा रहा है कि अब तो खिचड़ी ने भी पचना छोड़ दिया है. लार पेट में तो जा ही नहीं रही है. भूख इतनी बढ़ चुकी है कि जो भी मिले वो भी कम. बस निंदा ….निंदा …..परनिन्दा. कौन कितना किसी को अपमानित कर सकता है, नीचा दिखा सकता है, वही श्रेष्ठतम व्यक्ति कि श्रेणी में आता है, सम्मान पाता है, पद पाता है, अतिप्रिय और स्वामिभक्त माना जाता है. आदमी अपनी मेहनत, कौशल के बल पर नहीं बढ़ना चाहता. चाटुकारिता और निंदा के कुत्सित अस्त्रों से विजय प्राप्त करना चाहता है. यद्दपि अधिकांश लोग इसमें कदाचित सफलता प्राप्त कर रहे हैं पर क्या वह स्थाई रहेगी ?
तलवार बनी तो उसके लिए म्यान बनाई गई. जुबान के लिए ३२ दांत प्रहरी स्वरुप में प्रकृति ने निर्धारित किए. आशय यह कि धार का इस्तेमाल आवश्यकता पर ही किया जाए. कहीं यह धार अपने व समाज के लिए घातक न बने. वाणी पर नियंत्रण आवश्यक है. स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति के अधिकार के रूप में इस्तेमाल करने में कोई आपत्ति किसी को नहीं, पर अभिव्यक्ति के अधिकार की प्राप्ति हेतु दायित्व निर्वहन प्रथम कर्तव्य है.

भवनों और सीढ़ियों के कोनों पर तो ईश्वर की टाइल्स लगाकर लोगों ने इन स्थानों पर तो थूकने से रोक लिया पर यह शरीर जिसमें ईश्वर का वास है, इस ईश्वर प्रदत्त मंदिर पर थूकने के प्रवाह पर रोकने हेतु कब विचार जाग्रत होंगे.

Tuesday 6 January 2015

हमारे रचनाकार- करीम पठान 'अनमोल'

करीम पठान अनमोल

जन्मतिथि- 19 सितंबर 1989
जन्मस्थान- सांचोर (जालोर)
शिक्षा- एम. ए. (हिन्दी)
लेखन विधाएँ- ग़ज़ल, गीत, कविता, दोहा, कहानी आदि विधाओं में लेखन
सम्प्रति- वेब पत्रिका 'साहित्य रागिनी' में प्रधान संपादक
प्रकाशन- ग़ज़ल संग्रह 'इक उम्र मुकम्मल' प्रकाशित (2013)
        विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित
पता- बहलिमों का वास, सांचोर
     (जालोर) राज. 343041
मो.- 09829813958
ई-मेल k.k.pathan.anmol@gmail.com

करीम पठान अनमोल की कविताएँ 

हाँ...मैं कवि हूँ

हाँ...मैं कवि हूँ
वेदना, विडंबना
और विरह की
धुंधली-सी
एक छवि हूँ
हाँ...मैं कवि हूँ
जेठ दुपहरी में
नभ के माथे पर
अपने ही संताप में
तपता हुआ
संतप्त रवि हूँ
हाँ...मैं कवि हूँ
जीवन-यज्ञ में
अभीष्ट की
कामना लिए
अंग-अंग
आहुत होता
स्वयं हवि हूँ
हाँ...मैं कवि हूँ

तीन क्षणिकाएँ तुम्हारे लिए

(1)
सुनो!
तुम्हारी कविता के शब्द
मेरी कलम का
हाथ थामकर
बहुत दूर
निकल जाना चाहते हैं
किसी ऐसी जगह
जहाँ वे अपने
दिल की बात
कह सकें मुझसे
बेझिझक
बिना रोक-टोक के

(2)
तुम्हें पता है?
तुम्हारी कविताओं के प्रतीक
बाक़ायदा
जीवित हो उठते हैं
कभी-कभी
जैसे 'चाँद' और मुझमें
कोई फ़र्क नहीं रहता
'जलता चिराग'
इंतज़ार की शक़्ल ले लेता है
'उदास शाम'
बेचैनी बन
मेरी रगों में दौड़ने लगती है

(3)
तुम
एक नदी
मेरे व्यक्तित्व के
समंदर में
ऐसे आ मिली
कि भर गया
मेरा सारा खालीपन
अब मैं मुकम्मल हूँ

तुम्हारा प्यार

तुम्हारा प्यार
एक सागर
जितना डूबता हूँ
उतना गहराता है

भरी रहती है
मेरी रूह
लबालब
इक मिठास से
वो मिठास
आती है
तुम्हारे अहसास से

कभी कभी सोचता हूँ
लिखूँ तुम पर
प्यार भरी कई कविताएँ
लेकिन
तुम्हारा प्यार
एक अहसास
जितना कहता हूँ
उतना ही अनकहा रह जाता है...


माँ..

माँ..
समस्त पृथ्वी पर
व्याप्त प्रेम
जिसकी गोद में आकर
प्रेम की
सभी परिभाषाएँ,
सभी सीमाएँ
समाप्त हो जातीं हैं

माँ..
दिल में बसा
एक कोमल अहसास
जिसके आगे
दुनिया की
सारी मिठास
फीकी पड़ जाती है

माँ..
हमेशा
पूरी होने वाली
एक दुआ
जो औलाद के साथ
क़दम-दर-क़दम
चलती रहती है

माँ..
पहली पाठशाला
जहाँ बच्चा
बोलना, हँसना,
रोना, खेलना के साथ
ऐसी बातें सीखता है
जो दुनिया की
किसी पाठशाला में
नहीं सिखाई जाती

माँ..
एक ऐसा शब्द
जिसे विश्व की
किसी भी भाषा में
परिभाषित
नहीं किया जा सकता

चाँद मिल गया है

ठण्ड रातभर
तापती रही
यादों का अलाव

फ़िक्र के धुएँ से
लाल हो गयी है
आँखें

सितारे
ठिठुरकर
बन गये हैं
ओस की बूँदें

पहर दर पहर
भेजा है
मैंने एक संदेश
तुम्हारे नाम

अभी तक
नींद
लौटी नहीं है
ख़्वाबों के पनघट से

अभी तक
मन
तुम्हारे सिरहाने
बैठा है
ताक रहा है
इसका भी मन
कब भरता है
तुम्हें देखने से

अभी अभी ही
अजां हुई है
अभी अभी ही
शंख बजा है
मंदिर में भी
सुनाई दी है
भोर की दस्तक

अभी अभी ही
इक पंछी ने
ख़बर सुनाई
तुम ठीक हो।

अभी अभी ही
खिल उठा है
उदास मौसम का
चेहरा

अब उठ जाओ!
दिन निकल आया है
अँधेरी सुरंग से बाहर

और
रात में खोया चाँद
मिल गया है

Sunday 4 January 2015

जनवादी लेखक संघ का सातवाँ राज्य सम्मलेन मुरादाबाद में संपन्न

  जनवादी लेखक संघ का सातवाँ राज्य सम्मलेन 13 दिसम्बर को मुरादाबाद में संपन्न हुआ| सम्मलेन का उद्घाटन करते हुए जलेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रख्यात साहित्यकार दूधनाथ सिंह ने कहा कि दक्षिणपंथ ने कभी भी कोई बड़ा लेखक, कलाकार, संस्कृतिकर्मी नहीं पैदा किया और न ही कर सकता है। हमारी जनता प्राय: मिथ्या चेतना की शिकार हुई है और इसी के चलते दक्षिणपन्थ का यह दौर दौरा आया है जो ज्यादा दिनों तक नहीं चलेगा|
उन्होंने यह भी कहा कि भोजपुरी, अवधी आदि बोलियों को भाषा की तरह दर्जा नहीं दिया जा सकता। केदार नाथ सिंह भोजपुरी की बड़ी वकालत करते हैं लेकिन वो भोजपुरी में एक अच्छी कविता लिख कर दिखाएँ।संगीनों से आप सब कुछ कर सकते हैं सिवा उन पर बैठने के' -इस कथन से शुरू करके युवा आलोचक और जलेस के उपमहासचिव संजीव कुमार ने मौजूदा हालात के बारे में प्रासंगिक बातें जलेस के राज्य सम्मेलन में कहीं। उन्होंने प्रो. बत्रा की भी क्लास ली और उनके विचारों से आने वाले समय में शिक्षा पर पड़ने जा रहे प्रभावों से सचेत किया| गीतकार माहेश्वर तिवारी ने भी जलेस के उ. प्र. राज्य सम्मेलन के उदघाटन सत्र में प्रतिनिधियों को सम्बोधित किया| नलिन रंजन सिंह ने 'मौजूदा हालात में साहित्य के सरोकार और लेखक की भूमिका' पर बोलते हुए महत्वपूर्ण बातें कहीं। नमिता सिंह,चंचल चौहान,ओंकार सिंह,मुशर्रफ अली,रमेश कुमार एवं प्रदीप सक्सेना ने भी अपने विचार रखे| सांगठनिक सत्र में सचिव प्रदीप सक्सेना ने रिपोर्ट प्रस्तुत की जिस पर विस्तार से चर्चा हुयी| 
  सांगठनिक सत्र में लेखकों के नए नेतृत्व का चुनाव हुआ। चुनाव में नमिता सिंह (अलीगढ) को  अध्यक्ष, प्रदीप सक्सेना (अलीगढ) को सचिव और नलिन रंजन सिंह (लखनऊ) को कार्यकारी सचिव चुना गया| कुल छः उपाध्यक्ष चुने गए जिनके नाम इस प्रकार हैं- हरीश चन्द्र पांडे (इलाहाबाद), सुधीर सिंह (इलाहाबाद), अनिल कुमार सिंह (फैजाबाद), शौक अमरोहवी (अमरोहा), मुनीश त्यागी (मेरठ) और प्रमोद कुमार (गोरखपुर)| इस अवसर पर चुने गए चार उप सचिव इस प्रकार हैं- रमेश कुमार (अलीगढ), संतोष चतुर्वेदी (इलाहाबाद), उमा शंकर परमार (बाँदा) और तारिक छतारी (अलीगढ)| मुशर्रफ़ अली (मुरादाबाद) को कोषाध्यक्ष चुना गया| नए संरक्षक मंडल में शेखर जोशी, दूधनाथ सिंह, काजी अब्दुल सत्तार, गिरीश चन्द्र श्रीवास्तव, विनोद दत्ता और माहेश्वर तिवारी को चुना गया। केशव तिवारी (बाँदा), संध्या सिंह (लखनऊ), टिकेन्द्र शाद (मथुरा), वेद प्रकाश (गोरखपुर), प्रियंवद (नॉएडा), अजय बिसारिया (अलीगढ), अली बाकर जैदी (लखनऊ), ओंकार सिंह (मुरादाबाद), एम् पी सिंह (वाराणसी)  अता रहीम और के.के. नाज़ को कार्यकारिणी में और अजित प्रियदर्शी (लखनऊ), रामवीर सिंह, तस्लीम सुहैल, हनीफ मदार (मथुरा), ज्ञान प्रकाश चौबे (लखनऊ), प्रेमनंदन (फतेहपुर), रामपाल सिंह (मुरादाबाद), सुरेश चन्द्र, पी के सिंह (बाँदा)और अमरनाथ मधुर को राज्य पार्षद चुना गया।
  शाम को काव्य संध्या का आयोजन किया गया जिसमें नलिन रंजन सिंह, ज्ञान प्रकाश चौबे, के.पी.सिंह, संतोष चतुर्वेदी, अजित प्रियदर्शी, महेंद्र प्रताप, संध्या सिंह, सुजीत कुमार सिंह, शिवानन्द मिश्रा, अजय कुमार पाण्डेय आदि ने प्रतिभागिता की|

प्रस्तुति- नलिन रंजन सिंह
कार्यकारी सचिव

उ.प्र. जनवादी लेखक संघ  

जनवादी लेखक संघ का सातवाँ राज्य सम्मलेन मुरादाबाद में संपन्न

  जनवादी लेखक संघ का सातवाँ राज्य सम्मलेन 13 दिसम्बर को मुरादाबाद में संपन्न हुआ| सम्मलेन का उद्घाटन करते हुए जलेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रख्यात साहित्यकार दूधनाथ सिंह ने कहा कि दक्षिणपंथ ने कभी भी कोई बड़ा लेखक, कलाकार, संस्कृतिकर्मी नहीं पैदा किया और न ही कर सकता है। हमारी जनता प्राय: मिथ्या चेतना की शिकार हुई है और इसी के चलते दक्षिणपन्थ का यह दौर दौरा आया है जो ज्यादा दिनों तक नहीं चलेगा |
उन्होंने यह भी कहा कि भोजपुरी, अवधी आदि बोलियों को भाषा की तरह दर्जा नहीं दिया जा सकता। केदार नाथ सिंह भोजपुरी की बड़ी वकालत करते हैं लेकिन वो भोजपुरी में एक अच्छी कविता लिख कर दिखाएँ।संगीनों से आप सब कुछ कर सकते हैं सिवा उन पर बैठने के' - इस कथन से शुरू करके युवा आलोचक और जलेस के उपमहासचिव संजीव कुमार ने मौजूदा हालात के बारे में प्रासंगिक बातें जलेस के राज्य सम्मेलन में कहीं। उन्होंने प्रो. बत्रा की भी क्लास ली और उनके विचारों से आने वाले समय में शिक्षा पर पड़ने जा रहे प्रभावों से सचेत किया| गीतकार माहेश्वर तिवारी ने भी जलेस के उ.प्र. राज्य सम्मेलन के उदघाटन सत्र में प्रतिनिधियों को सम्बोधित किया | नलिन रंजन सिंह ने 'मौजूदा हालात में साहित्य के सरोकार और लेखक की भूमिका' पर बोलते हुए महत्वपूर्ण बातें कहीं। नमिता सिंह,चंचल चौहान,ओंकार सिंह,मुशर्रफ अली,रमेश कुमार एवं प्रदीप सक्सेना ने भी अपने विचार रखे| सांगठनिक सत्र में सचिव प्रदीप सक्सेना ने रिपोर्ट प्रस्तुत की जिस पर विस्तार से चर्चा हुयी | 
  सांगठनिक सत्र में लेखकों के नए नेतृत्व का चुनाव हुआ। चुनाव में नमिता सिंह (अलीगढ) को  अध्यक्ष, प्रदीप सक्सेना (अलीगढ) को सचिव और नलिन रंजन सिंह (लखनऊ) को कार्यकारी सचिव चुना गया| कुल छः उपाध्यक्ष चुने गए जिनके नाम इस प्रकार हैं- हरीश चन्द्र पांडे (इलाहाबाद), सुधीर सिंह (इलाहाबाद), अनिल कुमार सिंह (फैजाबाद), शौक अमरोहवी (अमरोहा), मुनीश त्यागी (मेरठ) और प्रमोद कुमार (गोरखपुर)| इस अवसर पर चुने गए चार उप सचिव इस प्रकार हैं- रमेश कुमार (अलीगढ), संतोष चतुर्वेदी (इलाहाबाद), उमा शंकर परमार (बाँदा) और तारिक छतारी (अलीगढ) | मुशर्रफ़ अली (मुरादाबाद) को कोषाध्यक्ष चुना गया| नए संरक्षक मंडल में शेखर जोशी, दूधनाथ सिंह, काजी अब्दुल सत्तार, गिरीश चन्द्र श्रीवास्तव, विनोद दत्ता और माहेश्वर तिवारी को चुना गया। केशव तिवारी (बाँदा), संध्या सिंह (लखनऊ), टिकेन्द्र शाद (मथुरा), वेद प्रकाश (गोरखपुर), प्रियंवद (नॉएडा), अजय बिसारिया (अलीगढ), अली बाकर जैदी (लखनऊ), ओंकार सिंह (मुरादाबाद), एम् पी सिंह (वाराणसी)  अता रहीम और के.के. नाज़ को कार्यकारिणी में और अजित प्रियदर्शी (लखनऊ), रामवीर सिंह, तस्लीम सुहैल, हनीफ मदार (मथुरा), ज्ञान प्रकाश चौबे (लखनऊ),प्रेमनंदन (फतेहपुर), रामपाल सिंह (मुरादाबाद), सुरेश चन्द्र, पी के सिंह (बाँदा)और अमरनाथ मधुर को राज्य पार्षद चुना गया।
  शाम को काव्य संध्या का आयोजन किया गया जिसमें नलिन रंजन सिंह, ज्ञान प्रकाश चौबे, के.पी.सिंह, संतोष चतुर्वेदी, अजित प्रियदर्शी, महेंद्र प्रताप, संध्या सिंह, सुजीत कुमार सिंह, शिवानन्द मिश्रा, अजय कुमार पाण्डेय आदि ने प्रतिभागिता की |
                                                                                          प्रस्तुति- नलिन रंजन सिंह                                                                  कार्यकारी सचिव                                                                 उ.प्र.जनवादी लेखक संघ 


Saturday 3 January 2015

सुरेन्द्र अग्निहोत्री का गीत

सुरेन्द्र अग्निहोत्री

सावधान ! यह चंचल मन

प्रेम-प्रीत की बातें करता
फिर सहलाता है कंगन
छल से दपर्ण में भी
रूप देख इठलाता मन
सावधान ! यह चंचल मन

दुर्गम-पथ का राही वन
राह भुलाता यह दुश्मन
तन से मन की बातें करता
धक-धक करता रहता तन
सावधान ! यह चंचल मन

पलक मूँद कर जब बैठा था
पायल की करता है रूनझुन
सिन्दूरी शामों में यह तो
मस्त योगी सा घूमे वन-वन
सावधान ! यह चंचल मन

दोहरी-तिहरी मात दिलाता
मौन नदी का अपनापन
नस-नस में बहता रहता है
तेरा ही अब मतवालापन

सावधान ! यह चंचल मन

हमारे रचनाकार- कल्पना रमानी


६ जून १९५१ को उज्जैन में जन्मी कल्पना रामानी ने हालांकि हाई स्कूल तक ही औपचारिक शिक्षा प्राप्त की परन्तु उनके साहित्य प्रेम ने उन्हें निरंतर पढ़ते रहने को प्रेरित किया। पारिवारिक उत्तरदायित्वों तथा समस्याओं के बावजूद उनका साहित्य-प्रेम बरकरार रहा।
वे गीत, गजल, दोहे कुण्डलिया आदि छंद-रचनाओं में विशेष रुचि रखती हैं। उनकी रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं और अंतर्जाल पर प्रकाशित होती रहती हैं।
वर्तमान में वे वेब की सर्वाधिक प्रतिष्ठित पत्रिका अभिव्यक्ति-अनुभूतिके संपादक मण्डल की सदस्य हैं।
प्रकाशित कृतियाँ- गीत संग्रह- हौसलों के पंख

ईमेल- kalpanasramani@gmail.com

नवगीत
(१)
चलो नवगीत गाएँ

गर्दिशों के भूलकर शिकवे गिले,
फिर उमंगों के चलो नवगीत गाएँ।

प्रकृति आती
रोज़ नव शृंगार कर।
रूप अनुपम, रंग उजले
गोद भर।

जो हमारे हिय छुपा है चित्रकार,
भाव की ले तूलिका उसको जगाएँ।

झोलियाँ भर
ख़ुशबुएँ लाती हवा।
मखमली जाजम बिछा
जाती घटा।

ख़्वाहिशों के, बाग से चुनकर सुमन,
शेष शूलों की चलो होली जलाएँ।

नित्य खबरें
क्यों सुनें खूँ से भरी।
क्यों न उनकी काट दें
उगती कड़ी।

लेखनी ले हाथ में नव क्रांति की,
हर खबर को खुशनुमा मिलकर बनाएँ।

देख दुख, क्यों
हों दुखी, संसार का।
पृष्ठ कर दें बंद क्यों ना 
हार का। 

खोजकर राहें नवल निस्तार की,
जीत की अनुपम, नई दुनिया बसाएँ।
---------------
(२)
कैसे बीते काले दिन

ज़रा पूछिए इन लोगों से,
कैसे बीते काले दिन।
फुटपाथों की सर्द सेज पर,
क्रूर कुहासे वाले दिन।

सूरज, जो इनका हमजोली,
वो भी करता रहा ठिठोली।
तहखाने में भेज रश्मियाँ,
ले आता कुहरा भर, झोली।

गर्म वस्त्र तो मौज मनाते,
इन्हें सौंपते छाले दिन।

दूर जली जब आग देखते,
नज़रों से ही ताप सेंकते
बैरन रात न काटे कटती,
गात हवा के तीर छेदते।

इन अधनंगों ने गठरी बन,
घुटनों बीच सँभाले दिन।

धरा धुरी पर चलती रहती,
धूप उतरती चढ़ती रहती।
हर मौसम के परिवर्तन पर,
कुदरत इनको छलती रहती।

ख्वाबों में नवनीत इन्होंने,
देख, छाछ पर पाले दिन।

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ग़ज़ल

(१)
आज खबरों में जहाँ जाती नज़र है।
रक्त में डूबी हुई, होती खबर है।

फिर रहा है दिन उजाले को छिपाकर,
रात पूनम पर अमावस की मुहर है।

ढूँढते हैं दीप लेकर लोग उसको,
भोर का तारा छिपा जाने किधर है। 

डर रहे हैं रास्ते मंज़िल दिखाते,
मंज़िलों पर खौफ का दिखता कहर है।

खो चुके हैं नद-नदी रफ्तार अपनी,
साहिलों की ओट छिपती हर लहर है।

साज़ हैं खामोश, चुप है रागिनी भी,
गीत गुमसुम, मूक सुर, बेबस बहर है। 

हसरतों के फूल चुनता मन का माली,
नफरतों के शूल बुनती सेज पर है। 

आज मेरा देश क्यों भयभीत इतना,
हर गली सुनसान, सहमा हर शहर है।

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 (२)
बल भी उसके सामने निर्बल रहा है।
घोर आँधी में जो दीपक जल रहा है।

डाल रक्षित ढूँढते, हारा पखेरू,
नीड़ का निर्माण, फिर फिर टल रहा है।

हाथ फैलाकर खड़ा दानी कुआँ वो,
शेष बूँदें अब न जिसमें जल रहा है।

सूर्य ने अपने नियम बदले हैं जब से,
दिन हथेली पर दिया ले चल रहा है।

क्यों तुला मानव उसी को नष्ट करने,
जो हरा भू का सदा आँचल रहा है।

देखिये इस बात पर कुछ गौर करके,
आज से बेहतर हमारा कल रहा है। 

मन को जिसने आज तक शीतल रखा था,
सब्र का घन धीरे-धीरे गल रहा है।

ख्वाब है जनतन्त्र का अब तक अधूरा,
आदि से जो इन दृगों में पल रहा है।
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 (३)
सुनहरी भोर बागों में, बिछाती ओस की बूँदें!
नयन का नूर होती हैं, नवेली ओस की बूँदें!

चपल भँवरों की कलियों से, चुहल पर मुग्ध सी होतीं,
मिला सुर गुनगुनाती हैं, सलोनी ओस की बूँदें!

चितेरा कौन है? जो रात, में जाजम बिछा जाता,
न जाने रैन कब बुनती, अकेली ओस की बूँदें!

करिश्मा है खुदा का या, कि ऋतु रानी का ये जादू,
घुमाकर जो छड़ी कोई, गिराती ओस की बूँदें!

नवल सूरज की किरणों में, छिपी होती हैं ये शायद,
जो पुरवाई पवन लाती, सुधा सी ओस की बूँदें!

टहलने चल पड़ें साथी, निहारें रूप  प्रातः का,
न जाने कब बिखर जाएँ, फरेबी ओस की बूँदें!
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केदार के मुहल्ले में स्थित केदारसभगार में केदार सम्मान

हमारी पीढ़ी में सबसे अधिक लम्बी कविताएँ सुधीर सक्सेना ने लिखीं - स्वप्निल श्रीवास्तव  सुधीर सक्सेना का गद्य-पद्य उनके अनुभव की व्यापकता को व्...