Sunday 4 January 2015

जनवादी लेखक संघ का सातवाँ राज्य सम्मलेन मुरादाबाद में संपन्न

  जनवादी लेखक संघ का सातवाँ राज्य सम्मलेन 13 दिसम्बर को मुरादाबाद में संपन्न हुआ| सम्मलेन का उद्घाटन करते हुए जलेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रख्यात साहित्यकार दूधनाथ सिंह ने कहा कि दक्षिणपंथ ने कभी भी कोई बड़ा लेखक, कलाकार, संस्कृतिकर्मी नहीं पैदा किया और न ही कर सकता है। हमारी जनता प्राय: मिथ्या चेतना की शिकार हुई है और इसी के चलते दक्षिणपन्थ का यह दौर दौरा आया है जो ज्यादा दिनों तक नहीं चलेगा|
उन्होंने यह भी कहा कि भोजपुरी, अवधी आदि बोलियों को भाषा की तरह दर्जा नहीं दिया जा सकता। केदार नाथ सिंह भोजपुरी की बड़ी वकालत करते हैं लेकिन वो भोजपुरी में एक अच्छी कविता लिख कर दिखाएँ।संगीनों से आप सब कुछ कर सकते हैं सिवा उन पर बैठने के' -इस कथन से शुरू करके युवा आलोचक और जलेस के उपमहासचिव संजीव कुमार ने मौजूदा हालात के बारे में प्रासंगिक बातें जलेस के राज्य सम्मेलन में कहीं। उन्होंने प्रो. बत्रा की भी क्लास ली और उनके विचारों से आने वाले समय में शिक्षा पर पड़ने जा रहे प्रभावों से सचेत किया| गीतकार माहेश्वर तिवारी ने भी जलेस के उ. प्र. राज्य सम्मेलन के उदघाटन सत्र में प्रतिनिधियों को सम्बोधित किया| नलिन रंजन सिंह ने 'मौजूदा हालात में साहित्य के सरोकार और लेखक की भूमिका' पर बोलते हुए महत्वपूर्ण बातें कहीं। नमिता सिंह,चंचल चौहान,ओंकार सिंह,मुशर्रफ अली,रमेश कुमार एवं प्रदीप सक्सेना ने भी अपने विचार रखे| सांगठनिक सत्र में सचिव प्रदीप सक्सेना ने रिपोर्ट प्रस्तुत की जिस पर विस्तार से चर्चा हुयी| 
  सांगठनिक सत्र में लेखकों के नए नेतृत्व का चुनाव हुआ। चुनाव में नमिता सिंह (अलीगढ) को  अध्यक्ष, प्रदीप सक्सेना (अलीगढ) को सचिव और नलिन रंजन सिंह (लखनऊ) को कार्यकारी सचिव चुना गया| कुल छः उपाध्यक्ष चुने गए जिनके नाम इस प्रकार हैं- हरीश चन्द्र पांडे (इलाहाबाद), सुधीर सिंह (इलाहाबाद), अनिल कुमार सिंह (फैजाबाद), शौक अमरोहवी (अमरोहा), मुनीश त्यागी (मेरठ) और प्रमोद कुमार (गोरखपुर)| इस अवसर पर चुने गए चार उप सचिव इस प्रकार हैं- रमेश कुमार (अलीगढ), संतोष चतुर्वेदी (इलाहाबाद), उमा शंकर परमार (बाँदा) और तारिक छतारी (अलीगढ)| मुशर्रफ़ अली (मुरादाबाद) को कोषाध्यक्ष चुना गया| नए संरक्षक मंडल में शेखर जोशी, दूधनाथ सिंह, काजी अब्दुल सत्तार, गिरीश चन्द्र श्रीवास्तव, विनोद दत्ता और माहेश्वर तिवारी को चुना गया। केशव तिवारी (बाँदा), संध्या सिंह (लखनऊ), टिकेन्द्र शाद (मथुरा), वेद प्रकाश (गोरखपुर), प्रियंवद (नॉएडा), अजय बिसारिया (अलीगढ), अली बाकर जैदी (लखनऊ), ओंकार सिंह (मुरादाबाद), एम् पी सिंह (वाराणसी)  अता रहीम और के.के. नाज़ को कार्यकारिणी में और अजित प्रियदर्शी (लखनऊ), रामवीर सिंह, तस्लीम सुहैल, हनीफ मदार (मथुरा), ज्ञान प्रकाश चौबे (लखनऊ), प्रेमनंदन (फतेहपुर), रामपाल सिंह (मुरादाबाद), सुरेश चन्द्र, पी के सिंह (बाँदा)और अमरनाथ मधुर को राज्य पार्षद चुना गया।
  शाम को काव्य संध्या का आयोजन किया गया जिसमें नलिन रंजन सिंह, ज्ञान प्रकाश चौबे, के.पी.सिंह, संतोष चतुर्वेदी, अजित प्रियदर्शी, महेंद्र प्रताप, संध्या सिंह, सुजीत कुमार सिंह, शिवानन्द मिश्रा, अजय कुमार पाण्डेय आदि ने प्रतिभागिता की|

प्रस्तुति- नलिन रंजन सिंह
कार्यकारी सचिव

उ.प्र. जनवादी लेखक संघ  

जनवादी लेखक संघ का सातवाँ राज्य सम्मलेन मुरादाबाद में संपन्न

  जनवादी लेखक संघ का सातवाँ राज्य सम्मलेन 13 दिसम्बर को मुरादाबाद में संपन्न हुआ| सम्मलेन का उद्घाटन करते हुए जलेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रख्यात साहित्यकार दूधनाथ सिंह ने कहा कि दक्षिणपंथ ने कभी भी कोई बड़ा लेखक, कलाकार, संस्कृतिकर्मी नहीं पैदा किया और न ही कर सकता है। हमारी जनता प्राय: मिथ्या चेतना की शिकार हुई है और इसी के चलते दक्षिणपन्थ का यह दौर दौरा आया है जो ज्यादा दिनों तक नहीं चलेगा |
उन्होंने यह भी कहा कि भोजपुरी, अवधी आदि बोलियों को भाषा की तरह दर्जा नहीं दिया जा सकता। केदार नाथ सिंह भोजपुरी की बड़ी वकालत करते हैं लेकिन वो भोजपुरी में एक अच्छी कविता लिख कर दिखाएँ।संगीनों से आप सब कुछ कर सकते हैं सिवा उन पर बैठने के' - इस कथन से शुरू करके युवा आलोचक और जलेस के उपमहासचिव संजीव कुमार ने मौजूदा हालात के बारे में प्रासंगिक बातें जलेस के राज्य सम्मेलन में कहीं। उन्होंने प्रो. बत्रा की भी क्लास ली और उनके विचारों से आने वाले समय में शिक्षा पर पड़ने जा रहे प्रभावों से सचेत किया| गीतकार माहेश्वर तिवारी ने भी जलेस के उ.प्र. राज्य सम्मेलन के उदघाटन सत्र में प्रतिनिधियों को सम्बोधित किया | नलिन रंजन सिंह ने 'मौजूदा हालात में साहित्य के सरोकार और लेखक की भूमिका' पर बोलते हुए महत्वपूर्ण बातें कहीं। नमिता सिंह,चंचल चौहान,ओंकार सिंह,मुशर्रफ अली,रमेश कुमार एवं प्रदीप सक्सेना ने भी अपने विचार रखे| सांगठनिक सत्र में सचिव प्रदीप सक्सेना ने रिपोर्ट प्रस्तुत की जिस पर विस्तार से चर्चा हुयी | 
  सांगठनिक सत्र में लेखकों के नए नेतृत्व का चुनाव हुआ। चुनाव में नमिता सिंह (अलीगढ) को  अध्यक्ष, प्रदीप सक्सेना (अलीगढ) को सचिव और नलिन रंजन सिंह (लखनऊ) को कार्यकारी सचिव चुना गया| कुल छः उपाध्यक्ष चुने गए जिनके नाम इस प्रकार हैं- हरीश चन्द्र पांडे (इलाहाबाद), सुधीर सिंह (इलाहाबाद), अनिल कुमार सिंह (फैजाबाद), शौक अमरोहवी (अमरोहा), मुनीश त्यागी (मेरठ) और प्रमोद कुमार (गोरखपुर)| इस अवसर पर चुने गए चार उप सचिव इस प्रकार हैं- रमेश कुमार (अलीगढ), संतोष चतुर्वेदी (इलाहाबाद), उमा शंकर परमार (बाँदा) और तारिक छतारी (अलीगढ) | मुशर्रफ़ अली (मुरादाबाद) को कोषाध्यक्ष चुना गया| नए संरक्षक मंडल में शेखर जोशी, दूधनाथ सिंह, काजी अब्दुल सत्तार, गिरीश चन्द्र श्रीवास्तव, विनोद दत्ता और माहेश्वर तिवारी को चुना गया। केशव तिवारी (बाँदा), संध्या सिंह (लखनऊ), टिकेन्द्र शाद (मथुरा), वेद प्रकाश (गोरखपुर), प्रियंवद (नॉएडा), अजय बिसारिया (अलीगढ), अली बाकर जैदी (लखनऊ), ओंकार सिंह (मुरादाबाद), एम् पी सिंह (वाराणसी)  अता रहीम और के.के. नाज़ को कार्यकारिणी में और अजित प्रियदर्शी (लखनऊ), रामवीर सिंह, तस्लीम सुहैल, हनीफ मदार (मथुरा), ज्ञान प्रकाश चौबे (लखनऊ),प्रेमनंदन (फतेहपुर), रामपाल सिंह (मुरादाबाद), सुरेश चन्द्र, पी के सिंह (बाँदा)और अमरनाथ मधुर को राज्य पार्षद चुना गया।
  शाम को काव्य संध्या का आयोजन किया गया जिसमें नलिन रंजन सिंह, ज्ञान प्रकाश चौबे, के.पी.सिंह, संतोष चतुर्वेदी, अजित प्रियदर्शी, महेंद्र प्रताप, संध्या सिंह, सुजीत कुमार सिंह, शिवानन्द मिश्रा, अजय कुमार पाण्डेय आदि ने प्रतिभागिता की |
                                                                                          प्रस्तुति- नलिन रंजन सिंह                                                                  कार्यकारी सचिव                                                                 उ.प्र.जनवादी लेखक संघ 


Saturday 3 January 2015

सुरेन्द्र अग्निहोत्री का गीत

सुरेन्द्र अग्निहोत्री

सावधान ! यह चंचल मन

प्रेम-प्रीत की बातें करता
फिर सहलाता है कंगन
छल से दपर्ण में भी
रूप देख इठलाता मन
सावधान ! यह चंचल मन

दुर्गम-पथ का राही वन
राह भुलाता यह दुश्मन
तन से मन की बातें करता
धक-धक करता रहता तन
सावधान ! यह चंचल मन

पलक मूँद कर जब बैठा था
पायल की करता है रूनझुन
सिन्दूरी शामों में यह तो
मस्त योगी सा घूमे वन-वन
सावधान ! यह चंचल मन

दोहरी-तिहरी मात दिलाता
मौन नदी का अपनापन
नस-नस में बहता रहता है
तेरा ही अब मतवालापन

सावधान ! यह चंचल मन

हमारे रचनाकार- कल्पना रमानी


६ जून १९५१ को उज्जैन में जन्मी कल्पना रामानी ने हालांकि हाई स्कूल तक ही औपचारिक शिक्षा प्राप्त की परन्तु उनके साहित्य प्रेम ने उन्हें निरंतर पढ़ते रहने को प्रेरित किया। पारिवारिक उत्तरदायित्वों तथा समस्याओं के बावजूद उनका साहित्य-प्रेम बरकरार रहा।
वे गीत, गजल, दोहे कुण्डलिया आदि छंद-रचनाओं में विशेष रुचि रखती हैं। उनकी रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं और अंतर्जाल पर प्रकाशित होती रहती हैं।
वर्तमान में वे वेब की सर्वाधिक प्रतिष्ठित पत्रिका अभिव्यक्ति-अनुभूतिके संपादक मण्डल की सदस्य हैं।
प्रकाशित कृतियाँ- गीत संग्रह- हौसलों के पंख

ईमेल- kalpanasramani@gmail.com

नवगीत
(१)
चलो नवगीत गाएँ

गर्दिशों के भूलकर शिकवे गिले,
फिर उमंगों के चलो नवगीत गाएँ।

प्रकृति आती
रोज़ नव शृंगार कर।
रूप अनुपम, रंग उजले
गोद भर।

जो हमारे हिय छुपा है चित्रकार,
भाव की ले तूलिका उसको जगाएँ।

झोलियाँ भर
ख़ुशबुएँ लाती हवा।
मखमली जाजम बिछा
जाती घटा।

ख़्वाहिशों के, बाग से चुनकर सुमन,
शेष शूलों की चलो होली जलाएँ।

नित्य खबरें
क्यों सुनें खूँ से भरी।
क्यों न उनकी काट दें
उगती कड़ी।

लेखनी ले हाथ में नव क्रांति की,
हर खबर को खुशनुमा मिलकर बनाएँ।

देख दुख, क्यों
हों दुखी, संसार का।
पृष्ठ कर दें बंद क्यों ना 
हार का। 

खोजकर राहें नवल निस्तार की,
जीत की अनुपम, नई दुनिया बसाएँ।
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(२)
कैसे बीते काले दिन

ज़रा पूछिए इन लोगों से,
कैसे बीते काले दिन।
फुटपाथों की सर्द सेज पर,
क्रूर कुहासे वाले दिन।

सूरज, जो इनका हमजोली,
वो भी करता रहा ठिठोली।
तहखाने में भेज रश्मियाँ,
ले आता कुहरा भर, झोली।

गर्म वस्त्र तो मौज मनाते,
इन्हें सौंपते छाले दिन।

दूर जली जब आग देखते,
नज़रों से ही ताप सेंकते
बैरन रात न काटे कटती,
गात हवा के तीर छेदते।

इन अधनंगों ने गठरी बन,
घुटनों बीच सँभाले दिन।

धरा धुरी पर चलती रहती,
धूप उतरती चढ़ती रहती।
हर मौसम के परिवर्तन पर,
कुदरत इनको छलती रहती।

ख्वाबों में नवनीत इन्होंने,
देख, छाछ पर पाले दिन।

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ग़ज़ल

(१)
आज खबरों में जहाँ जाती नज़र है।
रक्त में डूबी हुई, होती खबर है।

फिर रहा है दिन उजाले को छिपाकर,
रात पूनम पर अमावस की मुहर है।

ढूँढते हैं दीप लेकर लोग उसको,
भोर का तारा छिपा जाने किधर है। 

डर रहे हैं रास्ते मंज़िल दिखाते,
मंज़िलों पर खौफ का दिखता कहर है।

खो चुके हैं नद-नदी रफ्तार अपनी,
साहिलों की ओट छिपती हर लहर है।

साज़ हैं खामोश, चुप है रागिनी भी,
गीत गुमसुम, मूक सुर, बेबस बहर है। 

हसरतों के फूल चुनता मन का माली,
नफरतों के शूल बुनती सेज पर है। 

आज मेरा देश क्यों भयभीत इतना,
हर गली सुनसान, सहमा हर शहर है।

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 (२)
बल भी उसके सामने निर्बल रहा है।
घोर आँधी में जो दीपक जल रहा है।

डाल रक्षित ढूँढते, हारा पखेरू,
नीड़ का निर्माण, फिर फिर टल रहा है।

हाथ फैलाकर खड़ा दानी कुआँ वो,
शेष बूँदें अब न जिसमें जल रहा है।

सूर्य ने अपने नियम बदले हैं जब से,
दिन हथेली पर दिया ले चल रहा है।

क्यों तुला मानव उसी को नष्ट करने,
जो हरा भू का सदा आँचल रहा है।

देखिये इस बात पर कुछ गौर करके,
आज से बेहतर हमारा कल रहा है। 

मन को जिसने आज तक शीतल रखा था,
सब्र का घन धीरे-धीरे गल रहा है।

ख्वाब है जनतन्त्र का अब तक अधूरा,
आदि से जो इन दृगों में पल रहा है।
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 (३)
सुनहरी भोर बागों में, बिछाती ओस की बूँदें!
नयन का नूर होती हैं, नवेली ओस की बूँदें!

चपल भँवरों की कलियों से, चुहल पर मुग्ध सी होतीं,
मिला सुर गुनगुनाती हैं, सलोनी ओस की बूँदें!

चितेरा कौन है? जो रात, में जाजम बिछा जाता,
न जाने रैन कब बुनती, अकेली ओस की बूँदें!

करिश्मा है खुदा का या, कि ऋतु रानी का ये जादू,
घुमाकर जो छड़ी कोई, गिराती ओस की बूँदें!

नवल सूरज की किरणों में, छिपी होती हैं ये शायद,
जो पुरवाई पवन लाती, सुधा सी ओस की बूँदें!

टहलने चल पड़ें साथी, निहारें रूप  प्रातः का,
न जाने कब बिखर जाएँ, फरेबी ओस की बूँदें!
---------------- 

नववर्ष की क्षणिकाएँ

          
प्रो.शरद नारायण खरे

(1)
नए साल के
अंदाज़
निराले
नए काण्ड
नए घोटाले

(2)
नए साल में
फिल्मी नायिका ने
नए ढंग से
कपड़े उघाड़े
नए रिकॉर्ड
बना डाले

(3)
नए वर्ष में
क्रिकेटर्स
नया तोहफा
लेकर आएँगे
अब
मैच फिक्सिंग के
नए
तौर तरीके
नज़र आएँगे

(4)
स्वच्छता अभियान
में नए प्रयोग
नया इतिहास
लिख रहे हैं
नयी झाड़
और
नए चित्र
दिख रहे हैं

(5)
नेता जी
नया माल
लेकर आ
रहे हैं
जनता तक
नए वादे

पहुँचा रहे हैं 

नव- वर्ष मंगलमय हो!

आचार्य शीलक राम

अंग्रेजी नव- वर्ष मंगलमय हो!
जड- चेतन यहाँ सब निर्भय हो!!

उत्सवमय कामना जीवन की
भरा करुणा से सबका हृदय हो!!



अन्य में देखे सब अपने को!
हकीकत को भाई; नहीं सपने को!!
अपने में सब देखें दूसरों को
नहीं कोई भी यहाँ सुनो निर्दय हो!!



प्रत्येक साल में बारह हैं महीने!
कामना सबकी सुख से जीने!!
हर महीने का एक- एक दिवस
न किसी को किसी का भय हो!!



देह निरोग और स्वस्थचित्त हो!
सब कोई परस्पर यहाँ मीत हों !!
एक दूसरे के मददगार हों यहाँ 
मददगार का सबका परिचय हो!!

प्रार्थना हृदय की गहराई से!
माता-पिता संग बहन-भाई से!!
छोटे-बडे समान सब वय के
असतो मा सद् गमय हो!!

तर्क संग श्रद्धा में पारंगत हों!
विभिन्न मत में भी एकमत हों!!
अस्तित्व में सभी रहें उल्लास से
सनातन में सबका दृढ निश्चय हो!!

Friday 2 January 2015

कहानी - ईदगाह


 मुंशी प्रेमचंद

रमज़ान के पूरे तीस रोज़ों के बाद ईद आयी है। कितना मनोहर, कितना सुहावना प्रभाव है। वृक्षों पर अजीब हरियाली है, खेतों में कुछ अजीब रौनक है, आसमान पर कुछ अजीब लालिमा है। आज का सूर्य देखो, कितना प्यारा, कितना शीतल है, यानी संसार को ईद की बधाई दे रहा है। गाँव में कितनी हलचल है। ईदगाह जाने की तैयारियाँ हो रही हैं। किसी के कुरते में बटन नहीं है, पड़ोस के घर में सुई-धागा लेने दौड़ा जा रहा है। किसी के जूते कड़े हो गए हैं, उनमें तेल डालने के लिए तेली के घर पर भागा जाता है। जल्दी-जल्दी बैलों को सानी-पानी दे दें। ईदगाह से लौटते-लौटते दोपहर हो जाएगी। तीन कोस का पैदल रास्ता, फिर सैकड़ों आदमियों से मिलना-भेंटना, दोपहर के पहले लौटना असम्भव है।
लड़के सबसे ज़्यादा प्रसन्न हैं। किसी ने एक रोज़ा रखा है, वह भी दोपहर तक, किसी ने वह भी नहीं, लेकिन ईदगाह जाने की खुशी उनके हिस्से की चीज़ है। रोज़े बड़े-बूढ़ों के लिए होंगे। इनके लिए तो ईद है। रोज ईद का नाम रटते थे, आज वह आ गई। अब जल्दी पड़ी है कि लोग ईदगाह क्यों नहीं चलते। इन्हें गृहस्थी की चिंताओं से क्या प्रयोजन! सेवइयों के लिए दूध ओर शक्कर घर में है या नहीं, इनकी बला से, ये तो सेवइयाँ खाएँगे। वह क्या जानें कि अब्बा जान क्यों बदहवास चौधरी कायम अली के घर दौड़े जा रहे हैं। उन्हें क्या खबर कि चौधरी आँखें बदल लें, तो यह सारी ईद मुहर्रम हो जाए। उनकी अपनी जेबों में तो कुबेर का धन भरा हुआ है। बार-बार जेब से अपना ख़ज़ाना निकालकर गिनते हैं और खुश होकर फिर रख लेते हैं। महमूद गिनता है, एक-दो, दस, बारह, उसके पास बारह पैसे हैं। मोहसिन के पास एक, दो, तीन, आठ, नौ, पंद्रह पैसे हैं। इन्हीं अनगिनती पैसों में अनगिनती चीज़ें लाएँगेखिलौने, मिठाइयाँ, बिगुल, गेंद और जाने क्या-क्या। और सबसे ज़्यादा प्रसन्न है हामिद। वह चार-पाँच साल का गरीब-सूरत, दुबला-पतला लड़का, जिसका बाप गत वर्ष हैजे की भेंट हो गया और माँ न जाने क्यों पीली होती-होती एक दिन मर गई। किसी को पता नहीं क्या बीमारी थी। कहती तो कौन सुनने वाला था? दिल पर जो कुछ बीतती थी, वह दिल में ही सहती थी और जब न सहा गया तो संसार से विदा हो गई। अब हामिद अपनी बूढ़ी दादी अमीना की गोद में सोता है और उतना ही प्रसन्न है। उसके अब्बाजान रुपए कमाने गए हैं। बहुत-सी थैलियाँ लेकर आएँगे। अम्मीजान अल्लाह मियाँ के घर से उसके लिए बड़ी अच्छी-अच्छी चीज़ें लाने गई हैं, इसलिए हामिद प्रसन्न है। आशा तो बड़ी चीज़ है, और फिर बच्चों की आशा! उनकी कल्पना तो राई का पर्वत बना लेती है। हामिद के पाँव में जूते नहीं हैं, सिर पर एक पुरानी-धुरानी टोपी है, जिसका गोटा काला पड़ गया है, फिर भी वह प्रसन्न है। जब उसके अब्बाजान थैलियाँ और अम्मीजान नियामतें लेकर आएँगी, तो वह दिल से अरमान निकाल लेगा। तब देखेगा, मोहसिन, नूरे और सम्मी कहाँ से उतने पैसे निकालेंगे। अभागिन अमीना अपनी कोठरी में बैठी रो रही है। आज ईद का दिन, उसके घर में दाना नहीं! आज आबिद होता, तो क्या इसी तरह ईद आती ओर चली जाती! इस अंधकार और निराशा में वह डूबी जा रही है। किसने बुलाया था इस निगोड़ी ईद को? इस घर में उसका काम नहीं, लेकिन हामिद! उसे किसी के मरने-जीने से क्या मतलब? उसके अन्दर प्रकाश है, बाहर आशा। विपत्ति अपना सारा दल-बल लेकर आए, हामिद की आनंद-भरी चितवन उसका विध्वंस कर देगी।
हामिद भीतर जाकर दादी से कहता है— 'तुम डरना नहीं अम्माँ, मैं सबसे पहले आऊँगा। बिल्कुल न डरना।'
अमीना का दिल कचोट रहा है। गाँव के बच्चे अपने-अपने बाप के साथ जा रहे हैं। हामिद का बाप अमीना के सिवा और कौन है! उसे कैसे अकेले मेले जाने दे? उस भीड़-भाड़ में बच्चा कहीं खो जाए तो क्या हो? नहीं, अमीना उसे यों न जाने देगी। नन्हीं-सी जान! तीन कोस चलेगा कैसे? पैर में छाले पड़ जाएँगे। जूते भी तो नहीं हैं। वह थोड़ी-थोड़ी दूर पर उसे गोद में ले लेती, लेकिन यहाँ सेवइयाँ कौन पकाएगा? पैसे होते तो लौटते-लौटते सब सामग्री जमा करके चटपट बना लेती। यहाँ तो घंटों चीज़ें जमा करते लगेंगे। माँगे का ही तो भरोसा ठहरा। उस दिन फहीमन के कपड़े सिले थे। आठ आने पैसे मिले थे। उस अठन्नी को ईमान की तरह बचाती चली आती थी इसी ईद के लिए लेकिन कल ग्वालन सिर पर सवार हो गई तो क्या करती? हामिद के लिए कुछ नहीं है, तो दो पैसे का दूध तो चाहिए ही। अब तो कुल दो आने पैसे बच रहे हैं। तीन पैसे हामिद की जेब में, पाँच अमीना के बटुवे में। यही तो बिसात है और ईद का त्यौहार, अल्लाह ही बेड़ा पार लगावे। धोबन, नाइन, मेहतरानी और चुड़िहारिन सभी तो आएँगी। सभी को सेवइयाँ चाहिए और थोड़ा किसी को आँखों नहीं लगता। किस-किस से मुँह चुराएगी? और मुँह क्यों चुराए? साल भर का त्यौहार है। ज़िंदगी ख़ैरियत से रहे, उनकी तक़दीर भी तो उसी के साथ है। बच्चे को खुदा सलामत रखे, ये दिन भी कट जाएँगे।
गाँव से मेला चला और बच्चों के साथ हामिद भी जा रहा था। कभी सबके सब दौड़कर आगे निकल जाते। फिर किसी पेड़ के नीचे खड़े होकर साथ वालों का इंतज़ार करते। यह लोग क्यों इतना धीरे-धीरे चल रहे हैं? हामिद के पैरों में तो जैसे पर लग गए हैं। वह कभी थक सकता है? शहर का दामन आ गया। सड़क के दोनों ओर अमीरों के बगीचे हैं। पक्की चारदीवारी बनी हुई है। पेड़ों में आम और लीचियाँ लगी हुई हैं। कभी-कभी कोई लड़का कंकड़ी उठाकर आम पर निशाना लगाता है। माली अंदर से गाली देता हुआ निकलता है। लड़के वहाँ से एक फर्लांग पर हैं। खूब हँस रहे हैं। माली को कैसा उल्लू बनाया है।
बड़ी-बड़ी इमारतें आने लगीं। यह अदालत है, यह कॉलेज है, यह क्लब-घर है। इतने बड़े कॉलेज में कितने लड़के पढ़ते होंगे? सब लड़के नहीं हैं जी! बड़े-बड़े आदमी हैं, सच! उनकी बड़ी-बड़ी मूँछे हैं। इतने बड़े हो गए, अभी तक पढ़ने जाते हैं। न जाने कब तक पढ़ेंगे और क्या करेंगे इतना पढ़कर! हामिद के मदरसे में दो-तीन बड़े-बड़े लड़के हैं, बिल्कुल तीन कौड़ी के। रोज मार खाते हैं, काम से जी चुराने वाले। इस जगह भी उसी तरह के लोग होंगे और क्या। क्लब-घर में जादू होता है। सुना है, यहाँ मुर्दों की खोपड़ियाँ दौड़ती हैं और बड़े-बड़े तमाशे होते हैं, पर किसी को अंदर नहीं जाने देते और वहाँ शाम को साहब लोग खेलते हैं। बड़े-बड़े आदमी खेलते हैं, मूँछों दाढ़ी वाले और मेमें भी खेलती हैं, सच! हमारी अम्माँ को यह दे दो, क्या नाम है, बैट, तो उसे पकड़ ही न सकें। घुमाते ही लुढ़क जाएँ।
महमूद ने कहा— 'हमारी अम्मीजान का तो हाथ काँपने लगे, अल्ला कसम।'
मोहसिन बोला— 'चलो, मनों आटा पीस डालती हैं। ज़रा-सा बैट पकड़ लेंगी, तो हाथ काँपने लगेंगे! सैकड़ों घड़े पानी रोज़ निकालती हैं। पाँच घड़े तो तेरी भैंस पी जाती है। किसी मेम को एक घड़ा पानी भरना पड़े, तो आँखों तले अँधेरा आ जाय।'
महमूद— 'लेकिन दौड़ती तो नहीं, उछल-कूद तो नहीं सकतीं।'
मोहसिन— 'हाँ, उछल-कूद तो नहीं सकतीं; लेकिन उस दिन मेरी गाय खुल गई थी और चौधरी के खेत में जा पड़ी थी, अम्माँ इतना तेज दौड़ीं कि मैं उन्हें न पा सका, सच।'
आगे चले। हलवाइयों की दुकानें शुरू हुईं। आज खूब सजी हुई थीं। इतनी मिठाइयाँ कौन खाता है? देखो न, एक-एक दुकान पर मनों होंगी। सुना है, रात को जिन्नात आकर ख़रीद ले जाते हैं। अब्बा कहते थे कि आधी रात को एक आदमी हर दुकान पर जाता है और जितना माल बचा होता है, वह तुलवा लेता है और सचमुच के रुपए देता है, बिल्कुल ऐसे ही रुपए।
हामिद को यकीन न आया— 'ऐसे रुपए जिन्नात को कहाँ से मिल जाएँगे?'
मोहसिन ने कहा— 'जिन्नात को रुपए की क्या कमी? जिस ख़ज़ाने में चाहैं चले जाएँ। लोहे के दरवाज़े तक उन्हें नहीं रोक सकते जनाब, आप हैं किस फेर में! हीरे-जवाहरात तक उनके पास रहते हैं। जिससे खुश हो गए, उसे टोकरों जवाहरात दे दिए। अभी यहीं बैठे हैं, पाँच मिनट में कलकत्ता पहुँच जाएँ।'
हामिद ने फिर पूछा— 'जिन्नात बहुत बड़े-बड़े होते हैं?'
मोहसिन— 'एक-एक का सिर आसमान के बराबर होता है जी! ज़मीन पर खड़ा हो जाय तो उसका सिर आसमान से जा लगे, मगर चाहे तो एक लोटे में घुस जाय।'
हामिद— 'लोग उन्हें कैसे खुश करते होंगे? कोई मुझे यह मंतर बता दे तो एक जिन्न को खुश कर लूँ।'
मोहसिन— 'अब यह तो मै नहीं जानता, लेकिन चौधरी साहब के काबू में बहुत-से जिन्नात हैं। कोई चीज़ चोरी जाय, चौधरी साहब उसका पता लगा देंगे और चोर का नाम बता देंगे। जुमराती का बछवा उस दिन खो गया था। तीन दिन हैरान हुए, कहीं न मिला तब झक मारकर चौधरी के पास गए। चौधरी ने तुरन्त बता दिया, मवेशीखाने में है और वहीं मिला। जिन्नात आकर उन्हें सारे जहान की खबर दे जाते हैं।'
अब उसकी समझ में आ गया कि चौधरी के पास क्यों इतना धन है और क्यों उनका इतना सम्मान है।

आगे चले। यह पुलिस लाइन है। यहीं सब कॉन्स्टेबल कवायद करते हैं। रैटन! फाय फो! रात को बेचारे घूम-घूमकर पहरा देते हैं, नहीं चोरियाँ हो जाएँ।
मोहसिन ने प्रतिवाद कियायह कॉन्स्टेबल पहरा देते हैं? तभी तुम बहुत जानते हो अजी हजरत, यह चोरी करते हैं। शहर के जितने चोर-डाकू हैं, सब इनसे मिले रहते हैं। रात को ये लोग चोरों से तो कहते हैं, चोरी करो और आप दूसरे मुहल्ले में जाकर 'जागते रहो! जागते रहो!' पुकारते हैं। तभी इन लोगों के पास इतने रुपए आते हैं। मेरे मामू एक थाने में कॉन्स्टेबल हैं। बीस रुपया महीना पाते हैं, लेकिन पचास रुपये घर भेजते हैं। अल्ला कसम! मैंने एक बार पूछा था कि मामू, आप इतने रुपए कहाँ से पाते हैं? हँसकर कहने लगे— 'बेटा, अल्लाह देता है।' फिर आप ही बोले— 'हम लोग चाहें तो एक दिन में लाखों मार लाएँ। हम तो इतना ही लेते हैं, जिसमें अपनी बदनामी न हो और नौकरी न चली जाय।'
हामिद ने पूछा— 'यह लोग चोरी करवाते हैं, तो कोई इन्हें पकड़ता नहीं?'

मोहसिन उसकी नादानी पर दया दिखाकर बोला- 'अरे, पागल! इन्हें कौन पकड़ेगा! पकड़ने वाले तो यह लोग खुद हैं, लेकिन अल्लाह, इन्हें सजा भी खूब देता है। हराम का माल हराम में जाता है। थोड़े ही दिन हुए, मामू के घर में आग लग गई। सारी लेई-पूँजी जल गई। एक बरतन तक न बचा। कई दिन पेड़ के नीचे सोए, अल्ला कसम, पेड़ के नीचे! फिर न जाने कहाँ से एक सौ कर्ज़ लाए तो बरतन-भांडे आए।'
हामिद— 'एक सौ तो पचास से ज़्यादा होते हैं?'
'कहाँ पचास, कहाँ एक सौ। पचास एक थैली-भर होता है। सौ तो दो थैलियों में भी न आए?'

अब बस्ती घनी होने लगी। ईदगाह जानेवालों की टोलियाँ नज़र आने लगी। एक से एक भड़कीले वस्त्र पहने हुए। कोई इक्के-ताँगे पर सवार, कोई मोटर पर, सभी इत्र में बसे, सभी के दिलों में उमंग। ग्रामीणों का यह छोटा-सा दल अपनी विपन्नता से बेखबर, सन्तोष और धैर्य में मगन चला जा रहा था। बच्चों के लिए नगर की सभी चीज़ें अनोखी थीं। जिस चीज़ की ओर ताकते, ताकते ही रह जाते और पीछे से बार-बार हार्न की आवाज़ होने पर भी न चेतते। हामिद तो मोटर के नीचे जाते-जाते बचा।

सहसा ईदगाह नज़र आई। ऊपर इमली के घने वृक्षों की छाया है। नीचे पक्का फर्श है, जिस पर जाजम बिछा हुआ है और रोज़ेदारों की पंक्तियाँ एक के पीछे एक न जाने कहाँ तक चली गई हैं, पक्की जगत के नीचे तक, जहाँ जाजम भी नहीं है। नए आने वाले आकर पीछे की कतार में खड़े हो जाते हैं। आगे जगह नहीं है। यहाँ कोई धन और पद नहीं देखता। इस्लाम की निगाह में सब बराबर हैं। इन ग्रामीणों ने भी वजू किया ओर पिछली पंक्ति में खड़े हो गए। कितना सुन्दर संचालन है, कितनी सुन्दर व्यवस्था! लाखों सिर एक साथ सिजदे में झुक जाते हैं, फिर सबके सब एक साथ खड़े हो जाते हैं, एक साथ झुकते हैं, और एक साथ घुटनों के बल बैठ जाते हैं। कई बार यही क्रिया होती है, जैसे बिजली की लाखों बत्तियाँ एक साथ प्रदीप्त हों और एक साथ बुझ जाएँ, और यही क्रम चलता रहा। कितना अपूर्व दृश्य था, जिसकी सामूहिक क्रियाएँ, विस्तार और अनंतता हृदय को श्रद्धा, गर्व और आत्मानंद से भर देती थीं, मानों भ्रातृत्व का एक सूत्र इन समस्त आत्माओं को एक लड़ी में पिरोए हुए है।

नमाज़ खत्म हो गई है। लोग आपस में गले मिल रहे हैं। तब मिठाई और खिलौने की दुकान पर धावा होता है। ग्रामीणों का यह दल इस विषय में बालकों से कम उत्साही नहीं है। यह देखो, हिंडोला है एक पैसा देकर चढ़ जाओ। कभी आसमान पर जाते हुए मालूम होगें, कभी ज़मीन पर गिरते हुए। यह चर्खी है, लकड़ी के हाथी, घोड़े, ऊँट, छड़ों में लटके हुए हैं। एक पैसा देकर बैठ जाओ और पच्चीस चक्करों का मजा लो। महमूद और मोहसिन और नूरे और सम्मी इन घोड़ों और ऊँटों पर बैठते हैं। हामिद दूर खड़ा है। तीन ही पैसे तो उसके पास हैं। अपने कोष का एक तिहाई ज़रा-सा चक्कर खाने के लिए नहीं दे सकता।

सब चर्खियों से उतरते हैं। अब खिलौने लेंगे। इधर दुकानों की कतार लगी हुई है। तरह-तरह के खिलौने हैंसिपाही और गुजरिया, राजा और वकील, भिश्ती और धोबिन और साधु। वाह! कितने सुन्दर खिलौने हैं। अब बोला ही चाहते हैं। महमूद सिपाही लेता है, खाकी वर्दी और लाल पगड़ीवाला, कंधे पर बंदूक रखे हुए, मालूम होता है, अभी कवायद किए चला आ रहा है। मोहसिन को भिश्ती पसंद आया। कमर झुकी हुई है, ऊपर मशक रखे हुए है। मशक का मुँह एक हाथ से पकड़े हुए है। कितना प्रसन्न है! शायद कोई गीत गा रहा है। बस, मशक से पानी उड़ेलना ही चाहता है। नूरे को वकील से प्रेम है। कैसी विद्वत्ता है उसके मुख पर! काला चोगा, नीचे सफेद अचकन, अचकन के सामने की जेब में घड़ी, सुनहरी जंजीर, एक हाथ में क़ानून का पोथा लिए हुए। मालूम होता है, अभी किसी अदालत से जिरह या बहस किए चले आ रहे हैं। यह सब दो-दो पैसे के खिलौने हैं। हामिद के पास कुल तीन पैसे हैं, इतने महँगे खिलौने वह कैसे ले? खिलौना कहीं हाथ से छूट पड़े तो चूर-चूर हो जाए। ज़रा पानी पड़े तो सारा रंग घुल जाए। ऐसे खिलौने लेकर वह क्या करेगा; किस काम के!
मोहसिन कहता है— 'मेरा भिश्ती रोज पानी दे जाएगा साँझ-सबेरे।'
महमूद— 'और मेरा सिपाही घर का पहरा देगा कोई चोर आएगा, तो फौरन बंदूक से फैर कर देगा।'
नूरे— 'और मेरा वकील खूब मुकदमा लड़ेगा।'
सम्मी- 'और मेरी धोबिन रोज कपड़े धोएगी।'
हामिद खिलौनों की निंदा करता है— 'मिट्टी ही के तो हैं, गिरें तो चकनाचूर हो जाएँ।' लेकिन ललचाई हुई आँखों से खिलौनों को देख रहा है और चाहता है कि जरा देर के लिए उन्हें हाथ में ले सकता। उसके हाथ अनायास ही लपकते हैं, लेकिन लड़के इतने त्यागी नहीं होते हैं, विशेषकर जब अभी नया शौक़ है। हामिद ललचाता रह जाता है।
खिलौने के बाद मिठाइयाँ आती हैं। किसी ने रेवड़ियाँ ली हैं, किसी ने गुलाब जामुन किसी ने सोहन हलवा। मजे से खा रहे हैं। हामिद बिरादरी से पृथक है। अभागे के पास तीन पैसे हैं। क्यों नहीं कुछ लेकर खाता? ललचाई आँखों से सबकी ओर देखता है।
मोहसिन कहता है— 'हामिद रेवड़ी ले जा, कितनी खुशबूदार है!'
हामिद को संदेह हुआ, ये केवल क्रूर विनोद है, मोहसिन इतना उदार नहीं है, लेकिन यह जानकर भी वह उसके पास जाता है। मोहसिन दोने से एक रेवड़ी निकालकर हामिद की ओर बढ़ाता है। हामिद हाथ फैलाता है। मोहसिन रेवड़ी अपने मुँह में रख लेता है। महमूद, नूरे और सम्मी खूब तालियाँ बजा-बजाकर हँसते हैं। हामिद खिसिया जाता है।
मोहसिन— 'अच्छा, अबकी ज़रूर देंगे हामिद, अल्लाह कसम, ले जाओ।'
हामिद— 'रखे रहो। क्या मेरे पास पैसे नहीं हैं?'
सम्मी— 'तीन ही पैसे तो हैं। तीन पैसे में क्या-क्या लोगे?'
महमूद— 'हमसे गुलाब जामुन ले जाओ हामिद। मोहसिन बदमाश है।'
हामिद— 'मिठाई कौन बड़ी नेमत है। किताब में इसकी कितनी बुराइयाँ लिखी हैं।'
मोहसिन— 'लेकिन दिल में कह रहे होगे कि मिले तो खा लें। अपने पैसे क्यों नहीं निकालते?'
महमूद— 'हम समझते हैं, इसकी चालाकी। जब हमारे सारे पैसे खर्च हो जाएँगे, तो हमें ललचा-ललचाकर खाएगा।'
मिठाइयों के बाद कुछ दुकानें लोहे की चीजों की, कुछ गिलट और कुछ नकली गहनों की। लड़कों के लिए यहाँ कोई आकर्षण न था। वे सब आगे बढ़ जाते हैं, हामिद लोहे की दुकान पर रूक जाता है। कई चिमटे रखे हुए थे। उसे ख़्याल आया, दादी के पास चिमटा नहीं है। तवे से रोटियाँ उतारती हैं, तो हाथ जल जाता है। अगर वह चिमटा ले जाकर दादी को दे दे तो वह कितना प्रसन्न होंगी! फिर उनकी उँगलियाँ कभी न जलेंगी। घर में एक काम की चीज़ हो जाएगी। खिलौने से क्या फ़ायदा? व्यर्थ में पैसे ख़राब होते हैं। ज़रा देर ही तो खुशी होती है। फिर तो खिलौने को कोई आँख उठाकर नहीं देखता। यह तो घर पहुँचते-पहुँचते टूट-फूट बराबर हो जाएँगे या छोटे बच्चे जो मेले में नहीं आए हैं ज़िद कर के ले लेंगे और तोड़ डालेंगे। चिमटा कितने काम की चीज़ है। रोटियाँ तवे से उतार लो, चूल्हे में सेंक लो। कोई आग माँगने आए तो चटपट चूल्हे से आग निकालकर उसे दे दो। अम्माँ बेचारी को कहाँ फुरसत है कि बाज़ार आएँ और इतने पैसे ही कहाँ मिलते हैं? रोज हाथ जला लेती हैं।

हामिद के साथी आगे बढ़ गए हैं। सबील पर सब-के-सब शर्बत पी रहे हैं। देखो, सब कितने लालची हैं। इतनी मिठाइयाँ लीं, मुझे किसी ने एक भी न दी। उस पर कहते है, मेरे साथ खेलो। मेरा यह काम करो। अब अगर किसी ने कोई काम करने को कहा, तो पूछूँगा। खाएँ मिठाइयाँ, आप मुँह सड़ेगा, फोड़े-फुन्सियाँ निकलेंगी, आप ही जबान चटोरी हो जाएगी। तब घर से पैसे चुराएँगे और मार खाएँगे। किताब में झूठी बातें थोड़े ही लिखी हैं। मेरी जबान क्यों ख़राब होगी? अम्माँ चिमटा देखते ही दौड़कर मेरे हाथ से ले लेंगी और कहेंगीमेरा बच्चा अम्माँ के लिए चिमटा लाया है। कितना अच्छा लड़का है। इन लोगों के खिलौने पर कौन इन्हें दुआएँ देगा? बड़ों की दुआएँ सीधे अल्लाह के दरबार में पहुँचती हैं, और तुरंत सुनी जाती हैं। मेरे पास पैसे नहीं है तभी तो मोहसिन और महमूद यों मिज़ाज दिखाते हैं। मैं भी इनसे मिज़ाज दिखाऊँगा। खेलें खिलौने और खाएँ मिठाइयाँ। मै नहीं खेलता खिलौने, किसी का मिज़ाज क्यों सहूँ? मैं गरीब सही, किसी से कुछ माँगने तो नहीं जाता। आखिर अब्बाजान कभीं न कभी आएँगे। अम्मा भी आएँगी ही। फिर इन लोगों से पूछूँगा, कितने खिलौने लोगे? एक-एक को टोकरियों खिलौने दूँ और दिखा दूँ कि दोस्तों के साथ इस तरह का सलूक किया जाता है। यह नहीं कि एक पैसे की रेवड़ियाँ लीं, तो चिढ़ा-चिढ़ाकर खाने लगे। सबके सब खूब हँसेंगे कि हामिद ने चिमटा लिया है। हँसें! मेरी बला से। उसने दुकानदार से पूछायह चिमटा कितने का है?
दुकानदार ने उसकी ओर देखा और कोई आदमी साथ न देखकर कहा— 'तुम्हारे काम का नहीं है जी!'
बिकाऊ है कि नहीं?’
बिकाऊ क्यों नहीं है? और यहाँ क्यों लाद लाए हैं?’
तो बताते क्यों नहीं, कै पैसे का है?’
छ: पैसे लगेंगे।
हामिद का दिल बैठ गया।
ठीक-ठीक पाँच पैसे लगेंगे, लेना हो लो, नहीं चलते बनो।
हामिद ने कलेजा मज़बूत करके कहा- 'तीन पैसे लोगे?'
यह कहता हुआ वह आगे बढ़ गया कि दुकानदार की घुड़कियाँ न सुने। लेकिन दुकानदार ने घुड़कियाँ नहीं दी। बुलाकर चिमटा दे दिया। हामिद ने उसे इस तरह कंधे पर रखा, मानो बंदूक है और शान से अकड़ता हुआ संगियों के पास आया। जरा सुनें, सबके सब क्या-क्या आलोचनाएँ करते हैं!
मोहसिन ने हँसकर कहा— 'यह चिमटा क्यों लाया पगले, इसे क्या करेगा?'
हामिद ने चिमटे को ज़मीन पर पटककर कहा— 'जरा अपना भिश्ती ज़मीन पर गिरा दो। सारी पसलियाँ चूर-चूर हो जाएँ बच्चू की।'
महमूद बोला— 'तो यह चिमटा कोई खिलौना है?'
हामिद— 'खिलौना क्यों नहीं है! अभी कंधे पर रखा, बंदूक हो गई। हाथ में ले लिया, फ़कीरों का चिमटा हो गया। चाहूँ तो इससे मजीरे का काम ले सकता हूँ। एक चिमटा जमा दूँ, तो तुम लोगों के सारे खिलौनों की जान निकल जाय। तुम्हारे खिलौने कितना ही ज़ोर लगाएँ, मेरे चिमटे का बाल भी बाँका नहीं कर सकते। मेरा बहादुर शेर है चिमटा।'
सम्मी ने खँजरी ली थी। प्रभावित होकर बोला— 'मेरी खँजरी से बदलोगे? दो आने की है।'
हामिद ने खँजरी की ओर उपेक्षा से देखा- 'मेरा चिमटा चाहे तो तुम्हारी खँजरी का पेट फाड़ डाले। बस, एक चमड़े की झिल्ली लगा दी, ढब-ढब बोलने लगी। जरा-सा पानी लग जाय तो खत्म हो जाय। मेरा बहादुर चिमटा आग में, पानी में, आँधी में, तूफ़ान में बराबर डटा खड़ा रहेगा।'
चिमटे ने सभी को मोहित कर लिया, अब पैसे किसके पास धरे हैं? फिर मेले से दूर निकल आए हैं, नौ कब के बज गए, धूप तेज हो रही है। घर पहुँचने की जल्दी हो रही है। बाप से ज़िद भी करें, तो चिमटा नहीं मिल सकता। हामिद है बड़ा चालाक इसीलिए बदमाश ने अपने पैसे बचा रखे थे।

अब बालकों के दो दल हो गए हैं। मोहसिन, महमूद, सम्मी और नूरे एक तरफ हैं, हामिद अकेला दूसरी तरफ। शास्त्रार्थ हो रहा है। सम्मी तो विधर्मी हो गया! दूसरे पक्ष से जा मिला, लेकिन मोहसिन, महमूद और नूरे भी हामिद से एक-एक, दो-दो साल बड़े होने पर भी हामिद के आघातों से आतंकित हो उठे हैं। उसके पास न्याय का बल है और नीति की शक्ति। एक ओर मिट्टी है, दूसरी ओर लोहा, जो इस वक्त अपने को फ़ौलाद कह रहा है। वह अजेय है, घातक है। अगर कोई शेर आ जाए तो मियाँ भिश्ती के छक्के छूट जाएँ, मियाँ सिपाही मिट्टी की बंदूक छोड़कर भागें, वकील साहब की नानी मर जाए, चोगे में मुँह छिपाकर ज़मीन पर लेट जाएँ। मगर यह चिमटा, यह बहादुर, यह रूस्तमे-हिंद लपककर शेर की गरदन पर सवार हो जाएगा और उसकी आँखें निकाल लेगा।
मोहसिन ने एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाकर कहा— 'अच्छा, पानी तो नहीं भर सकता?'
हामिद ने चिमटे को सीधा खड़ा करके कहा— 'भिश्ती को एक डाँट बताएगा, तो दौड़ा हुआ पानी लाकर उसके द्वार पर छिड़कने लगेगा।'
मोहसिन परास्त हो गया, पर महमूद ने कुमुक पहुँचाई— 'अगर बच्चा पकड़ जायँ तो अदालत में बँधे-बँधे फिरेंगे। तब तो वकील साहब के पैरों पड़ेंगे।'
हामिद इस प्रबल तर्क का जवाब न दे सका। उसने पूछा— 'हमें पकड़ने कौन आएगा?'
नूरे ने अकड़कर कहा— 'यह सिपाही बंदूकवाला।'
हामिद ने मुँह चिढ़ाकर कहा— 'यह बेचारे हम बहादुर रूस्तमे-हिंद को पकड़ेंगे! अच्छा लाओ, अभी जरा कुश्ती हो जाय। इसकी सूरत देखकर दूर से भागेंगे। पकड़ेंगे क्या बेचारे!'
मोहसिन को एक नई चोट सूझ गई- 'तुम्हारे चिमटे का मुँह रोज आग में जलेगा।'
उसने समझा था कि हामिद लाजवाब हो जाएगा, लेकिन यह बात न हुई। हामिद ने तुरंत जवाब दिया- 'आग में बहादुर ही कूदते हैं जनाब, तुम्हारे यह वकील, सिपाही और भिश्ती लौंडियों की तरह घर में घुस जाएँगे। आग में कूदना वह काम है, जो यह रूस्तमे-हिन्द ही कर सकता है।'
महमूद ने एक ज़ोर लगाया— 'वकील साहब कुरसी-मेज पर बैठेंगे, तुम्हारा चिमटा तो बावर्चीख़ाना में ज़मीन पर पड़ा रहेगा।'
इस तर्क ने सम्मी और नूरे को भी सजीव कर दिया! कितने ठिकाने की बात कही है पट्ठे ने! चिमटा बावर्चीख़ाना में पड़ा रहने के सिवा और क्या कर सकता है?

हामिद को कोई फड़कता हुआ जवाब न सूझा, तो उसने धाँधली शुरू की- मेरा चिमटा बावर्चीख़ाने में नहीं रहेगा। वकील साहब कुर्सी पर बैठेंगे, तो जाकर उन्हें ज़मीन पर पटक देगा और उनका क़ानून उनके पेट में डाल देगा।
बात कुछ बनी नहीं। ख़ासी गाली-गलौज थी; लेकिन क़ानून को पेट में डालने वाली बात छा गई। ऐसी छा गई कि तीनों सूरमा मुँह ताकते रह गए मानो कोई धेलचा कनकौआ किसी गंडेवाले कनकौए को काट गया हो। क़ानून मुँह से बाहर निकलने वाली चीज़ है। उसको पेट के अंदर डाल दिया जाना बेतुकी-सी बात होने पर भी कुछ नयापन रखती है। हामिद ने मैदान मार लिया। उसका चिमटा रूस्तमे-हिन्द है। अब इसमें मोहसिन, महमूद, नूरे, सम्मी किसी को भी आपत्ति नहीं हो सकती।
विजेता को हारनेवालों से जो सत्कार मिलना स्वाभविक है, वह हामिद को भी मिला। औरों ने तीन-तीन, चार-चार आने पैसे खर्च किए, पर कोई काम की चीज़ न ले सके। हामिद ने तीन पैसे में रंग जमा लिया। सच ही तो है, खिलौनों का क्या भरोसा? टूट-फूट जाएँगे। हामिद का चिमटा तो बना रहेगा बरसों?
संधि की शर्तें तय होने लगीं। मोहसिन ने कहा— 'जरा अपना चिमटा दो, हम भी देखें। तुम हमारा भिश्ती लेकर देखो।'
महमूद और नूरे ने भी अपने-अपने खिलौने पेश किए।
हामिद को इन शर्तों को मानने में कोई आपत्ति न थी। चिमटा बारी-बारी से सबके हाथ में गया, और उनके खिलौने बारी-बारी से हामिद के हाथ में आए। कितने ख़ूबसूरत खिलौने हैं।
हामिद ने हारने वालों के आँसू पोंछे— 'मैं तुम्हे चिढ़ा रहा था, सच! यह चिमटा भला, इन खिलौनों की क्या बराबरी करेगा, मालूम होता है, अब बोले, अब बोले।'
लेकिन मोहसिन की पार्टी को इस दिलासे से संतोष नहीं होता। चिमटे का सिक्का खूब बैठ गया है। चिपका हुआ टिकट अब पानी से नहीं छूट रहा है।
मोहसिन— 'लेकिन इन खिलौनों के लिए कोई हमें दुआ तो न देगा?'
महमूद— 'दुआ को लिए फिरते हो। उल्टे मार न पड़े। अम्माँ ज़रूर कहेंगी कि मेले में यही मिट्टी के खिलौने मिले?'
हामिद को स्वीकार करना पड़ा कि खिलौनों को देखकर किसी की माँ इतनी खुश न होंगी, जितनी दादी चिमटे को देखकर होंगी। तीन पैसों ही में तो उसे सब कुछ करना था और उन पैसों के इस उपयोग पर पछतावे की बिल्कुल जरूरत न थी। फिर अब तो चिमटा रूस्तमें-हिन्द है और सभी खिलौनों का बादशाह।
रास्ते में महमूद को भूख लगी। उसके बाप ने केले खाने को दिए। महमूद ने केवल हामिद को साझी बनाया। उसके अन्य मित्र मुँह ताकते रह गए। यह उस चिमटे का प्रसाद था।

ग्यारह बजे गाँव में हलचल मच गई। मेलेवाले आ गए। मोहसिन की छोटी बहन ने दौड़कर भिश्ती उसके हाथ से छीन लिया और मारे खुशी के जा उछली, तो मियाँ भिश्ती नीचे आ रहे और सुरलोक सिधारे। इस पर भाई-बहन में मार-पीट हुई। दानों खुब रोए। उनकी अम्माँ यह शोर सुनकर बिगड़ीं और दोनों को ऊपर से दो-दो चाँटे और लगाए।
मियाँ नूरे के वकील का अंत उनके प्रतिष्ठानुकूल इससे ज़्यादा गौरवमय हुआ। वकील ज़मीन पर या ताक पर तो नहीं बैठ सकता। उसकी मर्यादा का विचार तो करना ही होगा। दीवार में खूँटियाँ गाड़ी गईं। उन पर लकड़ी का एक पटरा रखा गया। पटरे पर काग़ज़ का कालीन बिछाया गया। वकील साहब राजा भोज की भाँति सिंहासन पर विराजे। नूरे ने उन्हें पंखा झलना शुरू किया। अदालतों में खस की टट्टियाँ और बिजली के पंखे रहते हैं। क्या यहाँ मामूली पंखा भी न हो! क़ानून की गर्मी दिमाग पर चढ़ जाएगी कि नहीं? बाँस का पंखा आया और नूरे हवा करने लगे। मालूम नहीं, पंखे की हवा से या पंखे की चोट से वकील साहब स्वर्गलोक से मृत्युलोक में आ रहे और उनका माटी का चोला माटी में मिल गया! फिर बड़े जोर-शोर से मातम हुआ और वकील साहब की अस्थि घूरे पर डाल दी गई।
अब रहा महमूद का सिपाही। उसे चटपट गाँव का पहरा देने का चार्ज मिल गया, लेकिन पुलिस का सिपाही कोई साधारण व्यक्ति तो नहीं, जो अपने पैरों चलें। वह पालकी पर चलेगा। एक टोकरी आई, उसमें कुछ लाल रंग के फटे-पुराने चिथड़े बिछाए गए, जिसमें सिपाही साहब आराम से लेटे। नूरे ने यह टोकरी उठायी और अपने द्वार का चक्कर लगाने लगे। उनके दोनों छोटे भाई सिपाही की तरह छोनेवाले, जागते लहोपुकारते चलते हैं। मगर रात तो अँधेरी ही होनी चाहिए। महमूद को ठोकर लग जाती है। टोकरी उसके हाथ से छूटकर गिर पड़ती है और मियाँ सिपाही अपनी बन्दूक लिए ज़मीन पर आ जाते हैं और उनकी एक टाँग में विकार आ जाता है।
महमूद को आज ज्ञात हुआ कि वह अच्छा डॉक्टर है। उसको ऐसा मरहम मिला गया है जिससे वह टूटी टाँग को आनन-फानन जोड़ सकता है। केवल गूलर का दूध चाहिए। गूलर का दूध आता है। टाँग जवाब दे देती है। शल्य-क्रिया असफल हुई, तब उसकी दूसरी टाँग भी तोड़ दी जाती है। अब कम-से-कम एक जगह आराम से बैठ तो सकता है। एक टाँग से तो न चल सकता था, न बैठ सकता था। अब वह सिपाही संन्यासी हो गया है। अपनी जगह पर बैठा-बैठा पहरा देता है। कभी-कभी देवता भी बन जाता है। उसके सिर का झालरदार साफ़ा खुरच दिया गया है। अब उसका जितना रूपांतर चाहो, कर सकते हो। कभी-कभी तो उससे बाट का काम भी लिया जाता है।
अब मियाँ हामिद का हाल सुनिए। अमीना उसकी आवाज़ सुनते ही दौड़ी और उसे गोद में उठाकर प्यार करने लगी। सहसा उसके हाथ में चिमटा देखकर वह चौंकी।
यह चिमटा कहाँ था?’
मैंने मोल लिया है।
कै पैसे में?’
तीन पैसे दिये।
अमीना ने छाती पीट ली। यह कैसा बेसमझ लड़का है कि दोपहर हुआ, कुछ खाया न पिया। लाया क्या, चिमटा! सारे मेले में तुझे और कोई चीज़ न मिली, जो यह लोहे का चिमटा उठा लाया।
हामिद ने अपराधी भाव से कहा— 'तुम्हारी उँगलियाँ तवे से जल जाती थीं, इसलिए मैंने इसे लिया।'
बुढ़िया का क्रोध तुरन्त स्नेह में बदल गया, और स्नेह भी वह नहीं, जो प्रगल्भ होता है और अपनी सारी कसक शब्दों में बिखेर देता है। यह मूक स्नेह था, खूब ठोस, रस और स्वाद से भरा हुआ। बच्चे में कितना त्याग, कितना ‍सद्‌भाव और कितना विवेक है! दूसरों को खिलौने लेते और मिठाई खाते देखकर इसका मन कितना ललचाया होगा? इतना जब्त इससे हुआ कैसे? वहाँ भी इसे अपनी बुढ़िया दादी की याद बनी रही। अमीना का मन गद्‌गद्‌ हो गया और अब एक बड़ी विचित्र बात हुई। हामिद के इस चिमटे से भी विचित्र। बच्चे हामिद ने बूढ़े हामिद का पार्ट खेला था। बुढ़िया अमीना बालिका अमीना बन गई। वह रोने लगी। दामन फैलाकर हामिद को दुआएँ देती जाती थी और आँसू की बड़ी-बड़ी बूँदें गिराती जाती थी। हामिद इसका रहस्य क्या समझता!

केदार के मुहल्ले में स्थित केदारसभगार में केदार सम्मान

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