Tuesday 9 September 2014

डॉ. कन्हैया सिंह का नागरिक सम्मान

हिन्दी भाषा और साहित्य की समृद्धि जिन तपस्वी साधकों की साधना का प्रतिफल है, उनमें डॉ. कन्हैया सिंह का उल्लेखनीय योगदान है। यद्यपि वे महानगरों से सदैव दूर रहे हैं तथापि पाठालोचन, पाठ संपादन तथा पाठानुसंधान में उन्होंने जो कार्य किया है, वो हिन्दी में अतुलनीय है। पाठालोचन सामान्य साहित्य साधना से संभव नहीं है। पाठालोचन केवल वही तपस्वी साधक कर सकता है, जिसको भाषा की प्रकृति तथा उसका सच्चा ज्ञान उसके पास हो। उक्त उद्गार डॉ. कन्हैया सिंह के नागरिक सम्मान के अवसर पर दिनांक 8 दिसम्बर, 2014 को प्रेस क्लब, लखनऊ के सभागार में हिन्दी के महाकवि, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के पूर्व निदेशक डॉ. विनोद चन्द्र पाण्डेय ने व्यक्त किए।
उन्होंने आगे बोलते हुए कहा कि डॉ. कन्हैया सिंह हिन्दी साहित्य पर असाधारण अधिकार रखने के साथ-साथ मध्यकालीन अवधी के अधिकारी विद्वान हैं। उन्होंने हिन्दी जगत को 40 से अधिक समालोचना की पुस्तकों के साथ-साथ शताधिक शोध निबन्ध देकर हिन्दी को प्रतिष्ठित करने में अपना अभूतपूर्व योगदान दिया।
पं0 दीनदयाल उपाध्याय साहित्य सम्मान से सम्मनित वयोवृद्ध साहित्यकार डॉ. कन्हैया सिंह ने इस समारोह को सम्बोधित करते हुए कहा कि पाठालोचन एक जटिल कार्य है। पाठालोचन के माध्यम से कवि की मूल चेतना तक पहुँचा जा सकता है। कारण यह है कि अनेक ऐसे शब्द कवि की रचनाओं के साथ जुड़ जाते हैं जो मूल अर्थ को अभिव्यक्त करने में सफल नहीं होते। उन्होंने यह भी कहा कि जायसी के काव्य का जो अनुशीलन मैंने किया है वह अनुशीलन पाठालोचन से अनुप्राणित है। अभी जायसी के काव्य में बहुत कुछ ऐसा है जिस पर गम्भीरता से कार्य किया जाना है। जायसी हिन्दी का ऐसा महाकवि है जो तत्कालीन इतिहास से सीधे टकराता है और भारतीय भूमि से जुड़कर इस्लाम के विकास का मार्ग प्रशस्त करता है। उन्होंने यह भी कहा कि हिन्दी का समुचित विकास तभी होगा जब हिन्दी में मौलिक शोध कार्य सम्पन्न किए जाएँगे।
इस अवसर पर विषय प्रवर्तन करते हुए उद्बोध सेवा न्यास के सर्वराकार श्री शिवमोहन सिंह ने डॉ. कन्हैया सिंह को उ.प्र. हिन्दी संस्थान द्वारा प्रदत्त पं. दीन दयाल उपाध्याय सम्मान हेतु अपनी हार्दिक बधाईयाँ देते हुए कहा कि डॉ. कन्हैया सिंह हिन्दी के उन्नायक साहित्यकारों में से एक हैं। उनकी हिन्दी साहित्य साधना अतुलनीय है। उन्होंने जिस लगन के साथ हिन्दी साहित्य की सेवा की है उसके उदाहरण कम मिलते हैं। वे साहित्य के मर्मी पाठक होने के साथ-साथ पाठालोचन के प्रतिष्ठित आचार्य हैं। हिन्दी साहित्य की लम्बी परम्परा में जिन मध्यवर्गीय विद्वानों का योगदान है उनमें कन्हैया सिंह जी बराबर याद किए जाएँगे।
इस अवसर पर कन्हैया सिंह जी के सहयोगी रहे डॉ. वेद प्रकाश आर्य ने कहा कि डॉ. सिंह एक अतिशय गम्भीर और कर्मठ साहित्य साधक हैं। उनकी साहित्य साधना उनके नित्य नियमित जीवन-दर्शन का ही प्रतिफल है। शाखा के स्वयंसेवक के रूप में नित्य 3 बजे उठकर अपने सामाजिक दायित्व का निर्वहन करने के साथ-साथ उन्होंने साहित्य जगत को अमूल्य कृतियाँ दी हैं। उनके समान साहित्य समीक्षा के ग्रन्थ हिन्दी में बहुत कम मिलते हैं।
समारोह की अध्यक्षता करते हुए लखनऊ के वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. नेत्रपाल सिंह ने कहा कि यद्यपि डॉ. कन्हैया सिंह से लम्बा परिचय नहीं है, तथापि मैं उनकी कृतियों के माध्यम से उन्हें एक लम्बी अवधि से जान रहा हूँ। मैं यह बात पूरे विश्वास से कह सकता हूँ कि आचार्य वासुदेव शरण अग्रवाल तथा आचार्य राम चन्द्र शुक्ल के बाद जायसी पर डॉ. कन्हैया सिंह से बढ़कर किसी दूसरे विद्वान की गति नहीं दिखाई देती। डॉ. कन्हैया सिंह ने जायसी के काव्य के मर्म को उद्घाटित करने के साथ-साथ जायसी के काव्य में भारतीय संस्कृति के जिन मूल्यवान तत्वों का उद्घाटन किया है वो सराहनीय है। जायसी के साहित्य के साथ-साथ उनका मध्यकालीन अवधि पर भी असाधारण अधिकार है।
इस अवसर पर शब्दितापत्रिका के संरक्षक डॉ. राम कठिन सिंह ने अपने व्यक्तिगत सम्पर्क और संसर्ग के अनेक प्रसंगों को उल्लेख करते हुए कहा कि डॉ. कन्हैया सिंह को इसके पूर्व भी साहित्य महोपाध्याय, साहित्य भूषण, सुब्रह्मण्यम भारती, गणपति सम्मान, हंस सम्मान, साहित्य गरिमा, भोजपुरी शिरोमणि तथा अन्य ऐसे साहित्यिक सम्मानों से अलंकृत किया जा चुका है। उन्होंने यह भी कहा कि मैंने जब भी डॉ. कन्हैया सिंह के दर्शन किए हैं तब-तब वे साहित्य साधना में लीन मिले। वे ऐसे जिज्ञासु साहित्य साधक हैं, जो हर क्षण किसी न किसी नई विचारधारा को आत्मसात कर उसके अनुरूप साहित्य के मूल्यवान तत्वों की खोज करते हैं।
डॉ. राम कठिन सिंह ने इस समारोह में उपस्थित सभी साहित्यकारों तथा नागरिकों को कृतज्ञता ज्ञापित की।
इस समारोह का समापन विशिष्ट कवियों की संगोष्ठी के साथ सम्पन्न हुआ। कवि गोष्ठी में गीतकार डॉ. सुरेश, रवि मोहन अवस्थी, लोकगीतकार विनम्र सेन, अवनीन्द्र मिश्र, रामकिशोर तिवारी, वेद प्रकाश आर्य, निर्मल दर्शन आदि ने कविता पाठ किया।

प्रस्तुति- राम कठिन सिंह

रचनाकार- त्रिलोक सिंह ठकुरेला

त्रिलोक  सिंह ठकुरेला

परिचय 
जन्म-तिथि --   01 -10 -1966
जन्म-स्थान --  नगला मिश्रिया (हाथरस)
पिता --  श्री खमानी सिंह 
माता -  श्रीमती देवी 
प्रकाशित कृतियाँ -- नया सवेरा (बाल-साहित्य)
                             काव्यगंधा (कुण्डलिया संग्रह)
सम्पादन  --  आधुनिक हिंदी लघुकथाएं 
                      कुण्डलिया छंद  के  सात  हस्ताक्षर 
                      कुण्डलिया  कानन 
सम्मान/पुरस्कार -- राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा 'शंभू दयाल सक्सेना बाल साहित्य पुरस्कार'
पंजाब कला, साहित्य अकादमी, जालंधर (पंजाब) द्वारा 'विशेष अकादमी सम्मान
विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ गांधीनगर (बिहार) द्वारा 'विद्या-वाचस्पति'
हिंदी साहित्य सम्मलेन, प्रयाग द्वारा 'वाग्विदाम्वर सम्मान
 राष्ट्रभाषा स्वाभिमान ट्रस्ट (भारत) गाज़ियाबाद (उ प्र) द्वारा 'बाल साहित्य भूषण ' 
निराला साहित्य एवं संस्कृति संस्थान, बस्ती (उ प्र) द्वारा 'राष्ट्रीय साहित्य गौरव सम्मान '
हिन्दी भाषा साहित्य परिषद्, खगड़िया (बिहार) द्वारा 'स्वर्ण सम्मान
विशिष्टता  -- कुण्डलिया छंद के उन्नयन, विकास और पुनर्स्थापना हेतु  कृतसंकल्प एवं समर्पित 

सम्प्रति  -- उत्तर - पश्चिम रेलवे में इंजीनियर 
संपर्क  -- बँगला संख्या - 99,  रेलवे चिकित्सालय के सामने, आबू रोड- 307026  ( राजस्थान)
चल-वार्ता -- 09460714267 / 07891857409 
ई-मेल  --  trilokthakurela@gmail.com

त्रिलोक सिंह ठकुरेला की कुण्डलिया

अपनी भाषा हो सखे, भारत की पहचान।
अपनी भाषा से सदा, बढ़ता अपना मान।।
बढ़ता अपना मान, सहज संवाद कराती।
मिटते कई विभेद, एकता का गुण लाती।
ठकुरेलाकविराय, यही जन-जन की आशा।
फूले-फले सदैव, हमारी हिन्दी भाषा।।


जीवन के भवितव्य को, कौन सका है टाल।
किन्तु प्रबुद्धों ने सदा, कुछ हल लिए निकाल।।
कुछ हल लिए निकाल, असर कुछ कम हो जाता।
नहीं सताती धूप, शीश पर हो जब छाता।
ठकुरेलाकविराय, ताप कम होते मन के।
खुल जाते हैं द्वार, जगत में नव जीवन के।।

ताली बजती है तभी, जब मिलते दो हाथ।
एक एक ग्यारह बनें, अगर खड़े हों साथ।।
अगर खड़े हों साथ, अधिक ही ताकत होती।
बनता सुन्दर हार, मिलें जब धागा, मोती।
ठकुरेलाकविराय, सुखी हो जाता माली।
खिलते फूल अनेक, खुशी में बजती ताली।।

जीवन जीना है कला, जो जाता पहचान।
विकट परिस्थिति भी उसे, लगती है आसान।।
लगती है आसान, नहीं दुख से घबराता।
ढूँढे मार्ग अनेक, और बढ़ता ही जाता।
ठकुरेलाकविराय, नहीं होता विचलित मन।
सुख-दुख, छाया-धूप, सहज बन जाता जीवन।।

Sunday 7 September 2014

शेखर जोशी की कहानी - दाज्यू

10 सितंबर, 1932 को अल्मोड़ा (उत्तराखंड) के गाँव ओलियागाँव के एक किसान परिवार में जन्मे शेखर जोशी कथा-लेखन को दायित्वपूर्ण कर्म मानते हैं। सन् 1953 में लिखी उनकी पहली कहानी दाज्यूकाफी चर्चित हुई। इस कालजयी कहानी का कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। इस पर चिल्ड्रन फिल्म सोसायटी ने फिल्म का निर्माण किया।

शेखर जोशी जी का आभार कि उन्होंने यह कहानी यहाँ प्रकाशित करने की अनुमति प्रदान की।

दाज्यू

          चौक से निकल कर बायीं ओर जो बड़े साइनबोर्ड वाला छोटा कैफे है वहीं जगदीश बाबू ने उसे पहली बार देखा था। गोरा-चिट्टा रंग, नीली शफ्फ़ाफ आँखें, सुनहरे बाल और चाल में एक अनोखी मस्ती- पर शिथिलता नहीं। कमल के पत्ते पर फिसलती हुई पानी की बूँद की सी फुर्ती। आँखों की चंचलता देख कर उसकी उम्र का अनुमान केवल नौ-दस वर्ष ही लगाया जा सकता था और शायद यही उम्र उसकी रही होगी।
                अधजली सिगरेट का एक लंबा कश खींचते हुए जब जगदीश बाबू ने कैफे में प्रवेश किया तो वह एक मेज पर से प्लेटें उठा रहा था और जब वे पास ही कोने की टेबल पर बैठे तो वह सामने था। मानो, घंटों से उनकी, उस स्थान पर आने वाले व्यक्ति की, प्रतीक्षा कर रहा हो। वह कुछ बोला नहीं। हाँ, नम्रता प्रदर्शन के लिए थोड़ा झुका और मुस्कराया भर था, पर उसके इसी मौन में जैसे सारा मीनूसमाहित था। सिंगल चायका आर्डर पाने पर वह एक बार पुन: मुस्करा कर चल दिया और पलक मारते ही चाय हाजिर थी।
                 
मनुष्य की भावनाएँ बड़ी विचित्र होती हैं। निर्जन, एकांत स्थान में निस्संग होने पर भी कभी-कभी आदमी एकाकी अनुभव नहीं करता। लगता है, उस एकाकीपन में भी सब कुछ कितना निकट है, कितना अपना है। परंतु इसके विपरीत कभी-कभी सैकड़ों नर-नारियों के बीच जनरवमय वातावरण में रह कर भी सूनेपन की अनुभूति होती है। लगता है, जो कुछ है वह पराया है, कितना अपनत्वहीन! पर यह अकारण ही नहीं होता। उस एकाकीपन की अनुभूति, उस अलगाव की जड़ें होती हैं- बिछोह या विरक्ति की किसी कथा के मूल में।
                जगदीश बाबू दूर देश से आए हैं, अकेले हैं। चौक की चहल-पहल, कैफे के शोरगुल में उन्हें लगता है, सब कुछ अपनत्वहीन है। शायद कुछ दिनों रहकर, अभ्यस्त हो जाने पर उन्हें इसी वातावरण में अपनेपन की अनुभूति होने लगे। पर आज तो लगता है यह अपना नहीं, अपनेपन की सीमा से दूर, कितना दूर है! और तब उन्हें अनायास ही याद आने लगते हैं अपने गाँव-पड़ोस के आदमी, स्कूल-कालेज के छोकरे, अपने निकट शहर के कैफे-होटल…!
 ’
चाय शाब!
 
जगदीश बाबू ने राखदानी में सिगरेट झाड़ी। उन्हें लगा, इन शब्दों की ध्वनि में वही कुछ है जिसकी रिक्तता उन्हें अनुभव हो रही है। और उन्होंने अपनी शंका का समाधान कर लिया-
 ’
क्या नाम है तुम्हारा?’
 ’
मदन।
 ’
अच्छा, मदन! तुम कहाँ के रहने वाले हो?’
 ’
पहाड़ का हूँ, बाबूजी!
 ’
पहाड़ तो सैकड़ों हैं- आबू, दार्जिलिंग, मंसूरी, शिमला, अल्मोड़ा! तुम्हारा गाँव किस पहाड़ में है?’
 
इस बार शायद उसे पहाड़ और जिले का भेद मालूम हो गया। मुस्कुराकर बोला-
 ’
अल्मोड़ा, शाब अल्मोड़ा।
 ’
अल्मोड़ा में कौन-सा गाँव है?’ विशेष जानने की गरज से जगदीश बाबू ने पूछा।
                 
इस प्रश्न ने उसे संकोच में डाल दिया। शायद अपने गाँव की निराली संज्ञा के कारण उसे संकोच हुआ था, इस कारण टालता हुआ सा बोला, ‘वह तो दूर है शाब अल्मोड़ा से पंद्रह-बीस मील होगा।
 ’
फिर भी, नाम तो कुछ होगा ही।जगदीश बाबू ने जोर देकर पूछा।
 ’
डोट्यालगोंवह सकुचाता हुआ-सा बोला।
               
जगदीश बाबू के चेहरे पर पुती हुई एकाकीपन की स्याही दूर हो गई और जब उन्होंने मुस्करा कर मदन को बताया कि वे भी उसके निकटवर्ती गाँव ‘……..’  के रहने वाले हैं तो लगा जैसे प्रसन्नता के कारण अभी मदन के हाथ से ट्रे गिर पड़ेगी। उसके मुँह से शब्द निकलना चाह कर भी न निकल सके। खोया-खोया सा वह मानो अपने अतीत को फिर लौट-लौट कर देखने का प्रयत्न कर रहा हो।
         अतीत- गाँवऊँची पहाड़ियाँनदीईजा (मां)बाबादीदीभुलि (छोटी बहन)दाज्यू (बड़ा भाई)…!
मदन को जगदीश बाबू के रूप में किसकी छाया निकट जान पड़ी! ईजा?- नहीं, बाबा?- नहीं, दीदी,…भुलि?- नहीं, दाज्यू? हाँ, दाज्यू!
          दो-चार ही दिनों में मदन और जगदीश बाबू के बीच की अजनबीपन की खाई दूर हो गई। टेबल पर बैठते ही मदन का स्वर सुनाई देता-
दाज्यू, जैहिन्न
दाज्यू, आज तो ठंड बहुत है।
दाज्यू, क्या यहाँ भी ह्यूं’ (हिम) पड़ेगा।
दाज्यू, आपने तो कल बहुत थोड़ा खाना खाया।तभी किसी और से बॉय की आवाज पड़ती और मदन उस आवाज की प्रतिध्वनि के पहुँचने से पहले ही वहाँ पहुँच जाता! आर्डर लेकर फिर जाते-जाते जगदीश बाबू से पूछता, ‘दाज्यू कोई चीज?’
पानी लाओ।
लाया दाज्यू’, दूसरी टेबल से मदन की आवाज सुनाई देती।
मदन दाज्यूशब्द को उतनी ही आतुरता और लगन से दुहराता जितनी आतुरता से बहुत दिनों के बाद मिलने पर माँ अपने बेटे को चूमती है।
           कुछ दिनों बाद जगदीश बाबू का एकाकीपन दूर हो गया। उन्हें अब चौक, केफे ही नहीं सारा शहर अपनेपन के रंग में रंगा हुआ सा लगने लगा। परंतु अब उन्हें यह बार-बार दाज्यू कहलाना अच्छा नहीं लगता और यह मदन था कि दूसरी टेबल से भी दाज्यू’…
मदन! इधर आओ।
आया दाज्यू!
दाज्यूशब्द की आवृत्ति पर जगदीश बाबू के मध्यमवर्गीय संस्कार जाग उठे- अपनत्व की पतली डोरी अहं की तेज धार के आगे न टिक सकी।
दाज्यू, चाय लाऊँ?’
चाय नहीं, लेकिन यह दाज्यू-दाज्यू क्या चिल्लाते रहते हो दिन रात। किसी की प्रेस्टिजका ख्याल भी नहीं है तुम्हें?’
जगदीश बाबू का मुँह क्रोध के कारण तमतमा गया, शब्दों पर अधिकार नहीं रह सका। मदन प्रेस्टिजका अर्थ समझ सकेगा या नहीं, यह भी उन्हें ध्यान नहीं रहा, पर मदन बिना समझाए ही सब कुछ समझ गया था।
           मदन को जगदीश बाबू के व्यवहार से गहरी चोट लगी। मैनेजर से सिरदर्द का बहाना कर वह घुटनों में सर दे कोठरी में सिसकियाँ भर-भर रोता रहा। घर- गाँव से दूर, ऐसी परिस्थिति में मदन का जगदीश बाबू के प्रति आत्मीयता-प्रदर्शन स्वाभाविक ही था। इसी कारण आज प्रवासी जीवन में पहली बार उसे लगा जैसे किसी ने उसे ईजा की गोदी से, बाबा की बाँहों के, और दीदी के आँचल की छाया से बलपूर्वक खींच लिया हो।
          परंतु भावुकता स्थायी नहीं होती। रो लेने पर, अंतर की घुमड़ती वेदना को आँखों की राह बाहर निकाल लेने पर मनुष्य जो भी निश्चय करता है वे भावुक क्षणों की अपेक्षा अधिक विवेकपूर्ण होते हैं।
मदन पूर्ववत काम करने लगा।
          दूसरे दिन कैफे जाते हुए अचानक ही जगदीश बाबू की भेंट बचपन के सहपाठी हेमंत से हो गई। कैफे में पहुँचकर जगदीश बाबू ने इशारे से मदन को बुलाया परंतु उन्हें लगा जैसे वह उनसे दूर-दूर रहने का प्रयत्न कर रहा हो। दूसरी बार बुलाने पर ही मदन आया। आज उसके मुँह पर वह मुस्कान न थी और न ही उसने क्या लाऊँ दाज्यूकहा। स्वयं जगदीश बाबू को ही कहना पड़ा, ‘दो चाय, दो ऑमलेटपरंतु तब भी लाया दाज्यूकहने की अपेक्षा लाया शाकहकर वह चल दिया। मानों दोनों अपरिचित हों।
शायद पहाडिय़ा है?’ हेमंत ने अनुमान लगाकर पूछा।
हाँ’, रूखा सा उत्तर दे दिया जगदीश बाबू ने और वार्तालाप का विषय ही बदल दिया।
मदन चाय ले आया था।
क्या नाम है तुम्हारा लड़के?’ हेमंत ने अहसान चढ़ाने की गरज से पूछा।
          कुछ क्षणों के लिए टेबुल पर गंभीर मौन छा गया। जगदीश बाबू की आँखें चाय की प्याली पर ही रह गईं। मदन की आँखों के सामने विगत स्मृतियाँ घूमने लगींजगदीश बाबू का एक दिन ऐसे ही नाम पूछनाफिरदाज्यू आपने तो कल थोड़ा ही खायाऔर एक दिन किसी की प्रेस्टिज का खयाल नहीं रहता तुम्हें…’
जगदीश बाबू ने आँखें उठाकर मदन की ओर देखा, उन्हें लगा जैसे अभी वह ज्वालामुखी सा फूट पड़ेगा।
हेमंत ने आग्रह के स्वर में दुहराया, ‘क्या नाम है तुम्हारा?’
बॉय कहते हैं शाब मुझे।संक्षिप्त-सा उत्तर देकर वह मुड़ गया। आवेश में उसका चेहरा लाल होकर और भी अधिक सुंदर हो गया था।

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Friday 5 September 2014

नाजिम हिकमत की कविताएँ


मनहूस आज़ादी
तुम बेच देते हो –
अपनी आँखों की सतर्कता, अपने हाथों की चमक. 
तुम गूंथते हो लोइयाँ जिंदगी की रोटी के लिये, 
पर कभी एक टुकड़े का स्वाद भी नहीं चखते
तुम एक गुलाम हो अपनी महान आजादी में खटनेवाले. 
अमीरों को और अमीर बनाने के लिये नरक भोगने की आज़ादी के साथ
तुम आजाद हो! 

जैसे ही तुम जन्म लेते हो, करने लगते हो काम और चिंता, 
झूठ की पवनचक्कियाँ गाड़ दी जाती हैं तुम्हारे दिमाग में. 
अपनी महान आज़ादी में अपने हाथों से थाम लेते हो तुम अपना माथा. 
अपने अन्तःकरण की आजादी के साथ
तुम आजाद हो! 

तुम बेहद प्यार करते हो अपने देश को, 
पर एक दिन, उदाहरण के लिए, एक ही दस्तखत में
उसे अमेरिका के हवाले कर दिया ज़ाता है
और साथ में तुम्हारी महान आज़ादी भी. 
उसका हवाईअड्डा बनने की अपनी आजादी के साथ
तुम आजाद हो! 

तुम्हारा सिर अलग कर दिया गया है धड़ से. 
तुम्हारे हाथ झूलते है तुम्हारे दोनों बगल. 
सड़कों पर भटकते हो तुम अपनी महान आज़ादी के साथ. 
अपने बेरोजगार होने की महान आज़ादी के साथ
तुम आजाद हो! 

वालस्ट्रीट तुम्हारी गर्दन ज़कड़ती है
ले लेती है तुम्हें अपने कब्ज़े में. 
एक दिन वे भेज सकते हैं तुम्हें कोरिया, 
ज़हाँ अपनी महान आजादी के साथ तुम भर सकते हो एक कब्र. 
एक गुमनाम सिपाही बनने की आज़ादी के साथ
तुम आजाद हो! 

तुम कहते हो तुम्हें एक इंसान की तरह जीना चाहिए, 
एक औजार, एक संख्या, एक साधन की तरह नहीं. 
तुम्हारी महान आज़ादी में वे हथकडियाँ पहना देते हैं तुम्हें. 
गिरफ्तार होने, जेल जाने, यहाँ तक कि
फाँसी पर झूलने की अपनी आज़ादी के साथ
तुम आजाद हो. 

तुम्हारे जीवन में कोई लोहे का फाटक नहीं, 
बाँस का टट्टर या टाट का पर्दा तक नहीं. 
आज़ादी को चुनने की जरुरत ही क्या है भला -
तुम आजाद हो! 

सितारों भारी रात के तले बड़ी मनहूस है यह आज़ादी. 

(अनुवाद- दिनेश पोसवाल) 

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जीने के बारे में

जीना कोई हंसी-मजाक नहीं,
तुम्हें पूरी संजीदगी से जीना चाहिए
मसलन, किसी गिलहरी की तरह
मेरा मतलब जिंदगी से परे और उससे ऊपर
किसी भी चीज की तलाश किये बगैर.
मतलब जिना तुम्हारा मुकम्मल कारोबार होना चाहिए.
जीना कोई मजाक नहीं,
इसे पूरी संजीदगी से लेना चाहिए,
इतना और इस हद तक
कि मसलन, तुम्हारे हाथ बंधे हों पीठ के पीछे
पीठ सटी हो दीवार से,
या फिर किसी लेबोरेटरी के अंदर
सफ़ेद कोट और हिफाज़ती चश्मे में ही,
तुम मर सकते हो लोगों के लिए—
उन लोगों के लिए भी जिनसे कभी रूबरू नहीं हुए,
हालांकि तुम्हे पता है जिंदगी 
सबसे असली, सबसे खूबसूरत शै है.
मतलब, तुम्हें जिंदगी को इतनी ही संजीदगी से लेना है
कि मिसाल के लिए, सत्तर की उम्र में भी
तुम रोपो जैतून के पेड़—
और वह भी महज अपने बच्चों की खातिर नहीं,
बल्कि इसलिए कि भले ही तुम डरते हो मौत से—
मगर यकीन नहीं करते उस पर,
क्योंकि जिन्दा रहना, मेरे ख्याल से, मौत से कहीं भारी है.

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मान लो कि तुम बहुत ही बीमार हो, तुम्हें सर्जरी की जरूरत है—
कहने का मतलब उस सफ़ेद टेबुल से
शायद उठ भी न पाओ.
हालाँकि ये मुमकिन नहीं कि हम दुखी न हों
थोड़ा पहले गुजर जाने को लेकर,
फिर भी हम लतीफे सुन कर हँसेंगे,
खिड़की से झांक कर बारीश का नजारा लेंगे
या बेचैनी से
ताज़ा समाचारों का इंतज़ार करेंगे….
फर्ज करो हम किसी मोर्चे पर हैं—
रख लो, किसी अहम चीज की खातिर.
उसी वक्त वहाँ पहला भारी हमला हो,
मुमकिन है हम औंधे मुंह गिरें, मौत के मुंह में.
अजीब गुस्से के साथ, हम जानेंगे इसके बारे में,
लेकिन फिर भी हम फिक्रमंद होंगे मौत को लेकर
जंग के नतीजों को लेकर, जो सालों चलता रहेगा.
फर्ज करो हम कैदखाने में हों
और वाह भी तक़रीबन पचास की उम्र में,
और रख लो, लोहे के दरवाजे खुलने में 
अभी अठारह साल और बाकी हों
फिर भी हम जियेंगे बाहरी दुनिया के साथ,
वहाँ के लोगों और जानवरों, जद्दोजहद और हवा के बीच—
मतलब दीवारों से परे बाहर की दुनिया में,
मतलब, हम जहाँ और जिस हाल में हों,
हमें इस तरह जीना चाहिए जैसे हम कभी मरेंगे ही नहीं.
यह धरती ठंडी हो जायेगी,
तारों के बीच एक तारा
और सबसे छोटे तारों में से एक,
नीले मखमल पर टंका सुनहरा बूटा—
मेरा मतलब है, यह गजब की धरती हमारी.
यह धरती ठंडी हो जायेगी एक दिन,
बर्फ की एक सिल्ली के मानिंद नहीं
या किसी मरे हुए बादल की तरह भी नहीं
बल्कि एक खोंखले अखरोट की तरह चारों ओर लुढकेगी
गहरे काले आकाश में…
इस बात के लिये इसी वक्त मातम करना चाहिए तुम्हें
–इस दुःख को इसी वक्त महसूस करना होगा तुम्हें—
क्योंकि दुनिया को इस हद तक प्यार करना जरुरी है
अगर तुम कहने जा रहे हो कि “मैंने जिंदगी जी है”…

(अंग्रेजी से अनुवाद –दिगंबर)

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आशावाद

कविताएँ लिखता हूँ मैं
वे छप नहीं पातीं
लेकिन छपेंगी वे.
मैं इंतजार कर रहा हूँ खुश-खैरियत भरे खत का
शायद वो उसी दिन पहुँचे जिस दिन मेरी मौत हो
लेकिन लाजिम है कि वो आएगा.
दुनिया पर सरकारों और पैसे की नहीं
बल्कि अवाम की हुकूमत होगी
अब से सौ साल बाद ही सही
लेकिन ये होगा ज़रूर.

(अंग्रेजी से अनुवाद –दिगंबर)

Wednesday 3 September 2014

कटॆ जॊ शीश सैनिक कॆ : गज़ल

कवि-"राज बुन्दॆली"

गज़ल

वफ़ा है ग़र ज़हां मॆं तॊ हमॆं भी आज़माना है ॥
फ़रॆबी है ज़माना ग़र पता सच का लगाना है ॥१॥

कटॆ जॊ शीश सैनिक कॆ सभी सॆ पूछतॆ धड़ वॊ,
बता दॊ हिन्द का कितना हमॆं कर्जा चुकाना है ॥२॥

कहॆं रॊ कर शहीदॊं की मज़ारॊं कॆ सुमन दॆखॊ,
नहीं है लाज सत्ता कॊ फ़कत दामन बचाना है ॥३॥

हमारॆ ख़ून सॆ लथ-पथ, हुयॆ इतिहास कॆ पन्नॆ,
हमॆशा मुल्क की ख़ातिर, हमॆं जीवन लुटाना है ॥४॥

मिलॆ यॆ चन्द वादॆ हैं, हमारॆ खून की कीमत,
शहीदॊं की शहादत पर, यही मरहम लगाना है ॥५॥

शराफ़त की करॆ बातॆं, मग़ज मॆं रंज पालॆ है,
शरीफ़ॊं का तरीका यॆ, बड़ा ही कातिलाना है ॥६॥

चुनौती है तुझॆ तॆरॆ, अक़ीदॆ की इबादत की,
खुलॆ मैदान मॆं आजा, अगर जुर्रत दिखाना है ॥७॥

नहीं दॆतॆ दिखाई अब, यहाँ जॊ लॊग कहतॆ थॆ,
मुहब्बत थी मुहब्बत है, मुहब्बत का ज़माना है ॥८॥

शियासत मौन बैठी है पहन कर चूड़ियाँ दॆखॊ,
शहादत सॆ बड़ा उनकी नज़र मॆं वॊट पाना है ॥९॥

कभी कॊई बताता ही,नहीं है "राज" मुझकॊ यॆ,
हमारॆ दॆश का रुतबा, हुआ अब क्यूँ ज़नाना है ॥१०॥


Tuesday 2 September 2014

जलेस द्वारा आयोजित लोकार्पण एवं परिचर्चा कार्यक्रम


                   24अगस्त 2014को कैफ़ी आज़मी सभागार, निशातगंज, लखनऊ में जनवादी लेखक संघ की लखनऊ इकाई के तत्वाधान में वरिष्ठ लेखक एवं संपादक डॉ गिरीश चन्द्र श्रीवास्तव की अध्यक्षता एवं डॉ संध्या सिंह के कुशल सञ्चालन में कवि बृजेश नीरज की काव्यकृति कोहरा सूरज धूपएवं युवा कवि राहुल देव के कविता संग्रह उधेड़बुनका लोकार्पण एवं दोनों कृतियों पर परिचर्चा का कार्यक्रम आयोजित किया गया।

          कार्यक्रम में सर्वप्रथम प्रख्यात समाजवादी लेखक डॉ यू.आर. अनंतमूर्ति को उनके निधन पर दो मिनट का मौन रखकर श्रद्धांजलि दी गयी। मंचासीन अतिथियों में कवि एवं आलोचक डॉ अनिल त्रिपाठी, जलेस अध्यक्ष डा अली बाकर जैदी, लेखक चंद्रेश्वर, युवा आलोचक अजित प्रियदर्शी ने कार्यक्रम में दोनों कवियों की कविताओं पर अपने-अपने विचार व्यक्त किए। परिचर्चा में सर्वप्रथम कवयित्री सुशीला पुरी ने क्रमशः बृजेश नीरज एवं राहुल देव के जीवन परिचय एवं रचनायात्रा पर प्रकाश डाला। तत्पश्चात राहुल देव ने अपने काव्यपाठ में भ्रष्टाचारम उवाच’, ‘अक्स में मैं और मेरा शहर’, ‘हारा हुआ आदमी’, ‘नशा’, ‘मेरे सृजक तू बताशीर्षक कविताओं का वाचन किया। बृजेश नीरज ने अपने काव्यपाठ में तीन शब्द’, ‘क्या लिखूं’, ‘चेहरा’, ‘दीवारकविताओं का पाठ किया।

          परिचर्चा में युवा आलोचक अजित प्रियदर्शी ने राहुल देव की कविताओं पर अपनी बात रखते हुए कहा कि इनकी कविताओं में प्रश्नों की व्यापकता की अनुभूति होती है। यही प्रश्न उनकी उधेड़बुन को प्रकट करते हैं। राहुल अपनी छोटी कविताओं में अधिक सशक्त हैं। राहुल अपनी कविताओं में जीवन को जीने का प्रयास करते हैं। डॉ अनिल त्रिपाठी ने अपने वक्तव्य में सर्वप्रथम श्री बृजेश नीरज की रचनाधर्मिता पर अपने विचार प्रकट किए- बृजेश नीरज की कृति समकालीन कविता के दौर की विशिष्ट उपलब्धि है। उनकी कविताओं में लय, कहन, लेखन की शैली दृष्टिगोचर होती है। वे अपना मुहावरा स्वयं गढ़ते हैं। इस काव्य संग्रह का आना इत्तेफ़ाक हो सकता है किन्तु अब यह समकालीन हिंदी कविता की आवश्यकता है। राहुल की छोटी कविताएँ बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। समीक्षक चंद्रेश्वर ने कहा कि राहुल देव की कविताओं में तत्सम शब्दों का अधिक प्रयोग खटकता है। राहुल ने अपनी कविताओं में शब्दों को अधिक खर्च किया है, उन्हें इतना उदार नहीं होना चाहिए। कहीं-कहीं पर अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग हिंदी साहित्य में भाषा की विडंबना को परिलक्षित करता है। बृजेश नीरज संक्षिप्तता के कवि हैं, प्रभावशाली हैं। अपनी पत्नी के नाम को अपने नाम के साथ जोड़कर उन्होंने एक नया उदाहरण प्रस्तुत किया है। उनकी रचनाधर्मिता सराहनीय है।

          अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में डॉ गिरीश चन्द्र श्रीवास्तव ने कार्यक्रम संयोजक डॉ नलिन रंजन सिंह को साधुवाद देते हुए कहा कि जब मानवीय संवेदनाएं सूखती जा रही हैं ऐसे समय में ऐसी सार्थक बहस का आयोजन एक ऐतिहासिक क्षण है जिसमें श्री नरेश सक्सेना और श्री विनोद दास जैसे गणमान्य साहित्यकार भी उपस्थित हों। राहुल की कृति उधेड़बुनएक युवा कवि के अंतस का प्रतिबिम्ब है। एक छटपटाहट लिए यह संग्रह एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। यह समाज के बनावटी जीवन को उद्घाटित करता है। उधेड़बुनरोमांटिक प्रोटेस्ट का कविता संग्रह है। बृजेश नीरज की कृति कोहरा, सूरज, धूपमें गंभीरता है। यह एक ऐसे सत्य की खोज़ है जिसमें जीवन के उच्चतर आदर्शों की उद्दामता है, मानवतावाद का बोध कराने की सामर्थ्य है। आज के सन्दर्भों में यह दोनों कृतियाँ महत्त्वपूर्ण और पठनीय हैं।


          अंत में धन्यवाद ज्ञापन डा अली बाकर जैदी ने किया। कार्यक्रम में नरेश सक्सेना, संध्या सिंह, किरण सिंह, दिव्या शुक्ला, विजय पुष्पम पाठक, डॉ कैलाश निगम, एस.सी. ब्रह्मचारी, रामशंकर वर्मा, कौशल किशोर, अनीता श्रीवास्तव, नसीम साकेती, प्रताप दीक्षित, भगवान स्वरुप कटियार, एस के मेहँदी, डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव, प्रदीप सिंह कुशवाहा, हेमंत कुमार, मनोज शुक्ल, केवल प्रसाद सत्यम, धीरज मिश्र, हफीज किदवई, सूरज सिंह सहित कई अन्य गणमान्य व्यक्ति एवं साहित्यकार उपस्थित रहे।

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