Tuesday 12 August 2014

दोहे - प्रेम पियूष

 राम शिरोमणि पाठक "दीपक"

अधरों के पट खोलकर, की है ऐसी बात! 
शब्द-शब्द में बासुँरी, फिर मधुमय बरसात!!

वो आती हैं जब यहाँ, होता है आभास!
तपते पग को ज्यों मिले, पथ पर कोमल घास!!

मन शुक फिर बनने लगा, चखने चला रसाल!
कितना मोहक रूप है, कितने सुन्दर गाल!!

केश कहूँ या तरु सघन, होता है यह भ्राम!
इन केशों की छाँव में, कर लूँ मैं विश्राम!!

प्रेममयी इस झील का, अविरल मंद प्रवाह!
इसकी परिधि अमाप है, और नहीं है थाह!!

क्या दूँ मैं उपहार

डा० श्रीमती तारा सिंह
माँ! मैं चिंतित हूँ सोचकर
कि  तुम्हारी  आजादी की
चौसठवीं  साल  गिरह पर
तुमको  मैं  क्या दूँ उपहार

फ़ूल   अब   उपवन  में  खिलते  नहीं
कलियाँ   चमन   में   चहकतीं   नहीं
पर्वत  का  शीश झुकाकर, अपना विजय
ध्वज फ़हरानेहमारे राष्ट्रदेवता ने गुंजित
वनफ़ूलों  की  घाटियों  को  दिया उजाड़

कहा,   मुँहजली     कोयल    काली
इन्हीं  वनफ़ूलों  की  डाली  पर  बैठकर
जग   को    निर्मम   गीत    सुनाती
रखती  नहीं, दिवा- रात्री   का   खयाल
हम   नहीं   चाहतेअंतर   जग   का
नव निर्माण इसके जीवित आघातों से हो
हमने इसके फ़ूलते संसार को दिया उजाड़

हमें    हीं  चाहिये, डाली  पर  बैठे  फ़ूल
जो  छुपाकर  रखता, अपने  कर  में  शूल
जिसके  स्लथ  आवेग  से, कंपित  धरा  की
छातीउठा  नहीं  सकती  जग   का  भार
जिसके  धूमैली  गंध  को  फ़ाड़कर ऊपर जा
नहीं सकताउलझकर जाता विश्व का सब नाद


नीड़    छिना   बुलबुल  चंचु  में
तिनका  लिये, वन-वन भटक रही
सोच रही,कहाँ बनाऊँ अपना आवास
हरीतिमा  साँस  लेती, कहीं दिखाई
पड़ती नहीं, दहक रही फ़ूलों की डार          

                              देश   आज  घृणित, साम्प्रदायिक
बर्बरता  से  निवीर्यनिस्तेज हो रहा
कोई   सुनता  नहीं  उसकी  पुकार
जाने  कौन  सी  नस  हमारे  राष्ट्र
देवता   के, कानों  की   दब  गई
जो    वह    बधिर    हो    गया
पहुँच  पाता  नहीं, रोटी  के  लिये
बिलखते  बच्चों की करुणार्थ आवाज
ऐसे  में  तुम्हीं बताओ, माँ, तुम्हारी
आजादी की चौसठवीं साल गिरह पर
                              तुमकोमैं   क्या    दूँ   उपहार




जिएँ शुद्ध हवा में

  शिज्जु शकूर

मुहल्ले की तंग गलियों से
सड़क पर आने तक
बस में बैठे-बैठे 
बाइक से गुजरते
दिख ही जाते हैं
रास्ते के दोनों तरफ
कूड़े के ढेर
नाक बंद किए हुए इंसानों को
मुँह चिढ़ाते

इनमें पलती बीमारियाँ
किसको दुःख देती हैं
यह कुसूर किसका है?

हम इंसानों की नादानियाँ
पर्यावरण की अनदेखी
बेसाख़्ता कटते पेड़
सोचिए
इन सबका क्या अंजाम होगा?
झुलसाती गर्मी
चिटकती धरती
सूखे खेत
कभी सूखती कभी उफनती नदी
सैलाब
जो छोड़ जाता है पीछे
मातम करते इंसान

आओ दोस्तों
एक कदम मैं चलता हूँ
एक तुम चलो
मैं अपने घर से शुरू करूँ
तुम अपनी शुरूआत करो
तुम अपना घर साफ करो
मैं अपना
एक पेड़ मैं लगाता हूँ
एक तुम लगाओ
आओ
जिएँ शुद्ध हवा में ….

रक्षाबंधन

-डॉ. अनिल मिश्र

"येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल:।
तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल।।"

     रक्षासूत्र एवम मंत्र द्वारा रक्षित कर धर्म में स्थिर करने के अति पवित्र एवम शुभ त्योहार का नाम रक्षा बंधन है, इसीलिए अनगिनत भारतीय त्योहारों में इसे सर्वश्रेष्ठ माना गया है।

     प्रतिवर्ष श्रावणमास की पूर्णिमा के दिन ब्राह्मण अपने यजमानों के दाहिने हाथ पर एक सूत्र बाँधते थे, जिसे रक्षासूत्र कहा जाता था। इसे ही आगे चलकर राखी कहा जाने लगा। यह भी कहा जाता है कि यज्ञ में जो यज्ञसूत्र बाँधा जाता था उसे आगे चलकर रक्षासूत्र कहा जाने लगा।

     रक्षाबंधन की सामाजिक लोकप्रियता कब प्रारंभ हुई, यह कहना कठिन है। कुछ मान्यताएँ निम्नवत हैं-
कुछ पौराणिक कथाओं में इसका जिक्र है कि भगवान विष्णु के वामनावतार ने राजा बलि के रक्षासूत्र बाँधा था और उसके बाद ही उन्हें पाताल जाने का आदेश दिया था। आज भी रक्षासूत्र बाँधते समय एक मंत्र बोला जाता है उसमें इसी घटना का जिक्र होता है।
परंपरागत मान्यता के अनुसार रक्षाबंधन का संबंध एक पौराणिक कथा से माना जाता है, जो कृष्ण व युधिष्ठिर के संवाद के रूप में भविष्योत्तर पुराण में वर्णित बताई जाती है। इसमें राक्षसों से इंद्रलोक को बचाने के लिए गुरु बृहस्पति ने इंद्राणी को एक उपाय बतलाया था जिसमें श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को इंद्राणी ने इंद्र के तिलक लगाकर उसके रक्षासूत्र बाँधा था जिससे इंद्र विजयी हुए।
वर्तमानकाल में परिवार में किसी या सभी पूज्य और आदरणीय लोगों को रक्षासूत्र बाँधने की परंपरा भी है।
वृक्षों की रक्षा के लिए वृक्षों को रक्षासूत्र तथा परिवार की रक्षा के लिए माँ को रक्षासूत्र बाँधने के दृष्टांत भी मिलते हैं।


येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल:।
तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल।।
     इस मंत्र का सामान्यत: यह अर्थ लिया जाता है कि दानवों के महाबली राजा बलि जिससे बाँधे गए थे, उसी से तुम्हें बाँधता हूँ। हे रक्षे! (रक्षासूत्र) तुम चलायमान न हो, चलायमान न हो।

     धर्मशास्त्र के विद्वानों के अनुसार इसका अर्थ यह है कि रक्षा सूत्र बाँधते समय ब्राह्मण या पुरोहित अपने यजमान को कहता है कि जिस रक्षासूत्र से दानवों के महापराक्रमी राजा बलि धर्म के बंधन में बाँधे गए थे अर्थात् धर्म में प्रयुक्त किए गए थे, उसी सूत्र से मैं तुम्हें बाँधता हूँ, यानी धर्म के लिए प्रतिबद्ध करता हूँ। इसके बाद पुरोहित रक्षा सूत्र से कहता है कि हे रक्षे! तुम स्थिर रहना, स्थिर रहना। इस प्रकार रक्षा सूत्र का उद्देश्य ब्राह्मणों द्वारा अपने यजमानों को धर्म के लिए प्रेरित एवं प्रयुक्त करना है।

     शास्त्रों में कहा गया है - इस दिन अपरान्ह में रक्षासूत्र का पूजन करें, उसके उपरांत रक्षाबंधन का विधान है। यह रक्षाबंधन राजा के पुरोहित द्वारा, यजमान के ब्राह्मण द्वारा, भाई के बहिन द्वारा और पति के पत्नी द्वारा दाहिनी कलाई पर किया जाता है। संस्कृत की उक्ति के अनुसार-

जनेन विधिना यस्तु रक्षाबंधनमाचरेत।
स सर्वदोष रहित, सुखी संवतसरे भवेत्।।
     अर्थात् इस प्रकार विधिपूर्वक जिसके रक्षाबंधन किया जाता है वह संपूर्ण दोषों से दूर रहकर संपूर्ण वर्ष सुखी रहता है।


     रक्षाबंधन में मूलत: दो भावनाएँ काम करती हैं-
जिस व्यक्ति के रक्षाबंधन किया जाता है उसकी कल्याण कामना।
दूसरे रक्षाबंधन करने वाले के प्रति स्नेह भावना।

     इस प्रकार रक्षाबंधन वास्तव में स्नेह, शांति और रक्षा का बंधन है। इसमें सबके सुख और कल्याण की भावना निहित है।

     सूत्र का अर्थ धागा भी होता है और सिद्धांत या मंत्र भी। पुराणों में देवताओं या ऋषियों द्वारा जिस रक्षासूत्र बाँधने की बात की गई है वह धागे की बजाय कोई मंत्र या गुप्त सूत्र भी हो सकता है। धागा केवल उसका प्रतीक है।
रक्षासूत्र बाँधते समय एक श्लोक और पढ़ा जाता है जो इस प्रकार है-
ओम यदाबध्नन्दाक्षायणा हिरण्यंशतानीकाय सुमनस्यमाना:।
तन्मSआबध्नामि शतशारदाय, आयुष्मांजरदृष्टिर्यथासम्।।

     जो भी हो मैं तो इस पावन पर्व पर आप सभी को अपनी अनंत मंगलकामनाएँ अर्पित कर रहा हूँ।

Friday 8 August 2014

हमारे रचनाकार- वीनस केसरी

वीनस केसरी 
जन्म तिथि - १ मार्च 1985
शिक्षा - स्नातक
संप्रति - पुस्तक व्यवसाय व प्रकाशन (अंजुमन प्रकाशन)
प्रकाशन - प्रगतिशील वसुधाकथाबिम्बअभिनव प्रयासगर्भनालअनंतिम,गुफ्तगूविश्व्गाथा आदि अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में से से पर ग़ज़ल,गीत व दोहे का प्रकाशन हरिगंधाग़ज़लकारवचन आदि में ग़ज़ल पर शोधपरक लेख प्रकाशित
विधा - ग़ज़लगीत छन्द कहानी आदि
प्रसारण - आकाशवाणी इलाहाबाद व स्थानीय टीवी चैनलों  से रचनाओं का प्रसारण
पुस्तक - अरूज़ पर पुस्तक “ग़ज़ल की बाबत” प्रकाशनाधीन
विशेष - उप संपादकत्रैमासिक 'गुफ़्तगू', इलाहाबाद
(अप्रैल २०१२ से सितम्बर २०१३ तक)
सह संपादक नव्या आनलाइन साप्ताहिक पत्रिका
(जनवरी २०१३ से अगस्त २०१३ तक)
पत्राचार - जनता पुस्तक भण्डार942आर्य कन्या चौराहा,  मुट्ठीगंजइलाहाबाद -211003

मो. -  (0)945 300 4398 (0)923 540 7119

वीनस की गज़लें


ग़ज़ल-१
दिल से दिल के बीच जब नज़दीकियाँ आने लगीं
फैसले को खापकी कुछ पगड़ियाँ आने लगीं

किसको फुर्सत है भला, वो ख़्वाब देखे चाँद का
अब सभी के ख़्वाब में जब रोटियाँ आने लगीं

आरियाँ खुश थीं कि बस दो चार दिन की बात है
सूखते पीपल पे फिर से पत्तियाँ आने लगीं

उम्र फिर गुज़रेगी शायद राम की वनवास में
दासियों के फेर में फिर रानियाँ आने लगीं

बीच दरिया में न जाने सानिहा क्या हो गया
साहिलों पर खुदकुशी को मछलियाँ आने लगीं

है हवस का दौर यह, इंसानियत है शर्मसार
आज हैवानों की ज़द में बच्चियाँ आने लगीं

हमने सच को सच कहा था, और फिर ये भी हुआ
बौखला कर कुछ लबों पर गालियाँ आने लगीं

शाहज़ादों को स्वयंवर जीतने की क्या गरज़
जब अँधेरे मुंह महल में दासियाँ आने लगीं

उसने अपने ख़्वाब के किस्से सुनाये थे हमें
और हमारे ख़्वाब में भी तितलियाँ आने लगीं

ग़ज़ल-२
उलझनों में गुम हुआ फिरता है दर-दर आइना |
झूठ को लेकिन दिखा सकता है पैकर आइना |

शाम तक खुद को सलामत पा के अब हैरान है,
पत्थरों के शहर में घूमा था दिन भर आइना |

गमज़दा हैं, खौफ़ में हैं, हुस्न की सब देवियाँ,
कौन पागल बाँट आया है ये घर-घर आइना |

आइनों ने खुदकुशी कर ली ये चर्चा आम है,
जब ये जाना था की बन बैठे हैं पत्थर, आइना |

मैंने पल भर झूठ-सच पर तब्सिरा क्या कर दिया,
रख गए हैं लोग मेरे घर के बाहर आइना |

अपना अपना हौसला है, अपने अपने फैसले,
कोई पत्थर बन के खुश है कोई बन कर आइना |

ग़ज़ल-३
प्यास के मारों के संग ऐसा कोई धोका न हो
आपकी आँखों के जो दर्या था वो सहरा न हो

उनकी दिलजोई की खातिर वो खिलौना हूँ जिसे
तोड़ दे कोई अगर तो कुछ उन्हें परवा न हो

आपका दिल है तो जैसा चाहिए कीजै सुलूक
परा ज़रा यह देखिए इसमें कोई रहता न हो

पत्थरों की ज़ात पर मैं कर रहा हूँ एतबार
अब मेरे जैसा भी कोई अक्ल का अँधा न हो

ज़िंदगी से खेलने वालों जरा यह कीजिए
ढूढिए ऐसा कोई जो आखिरश हारा न हो

ग़ज़ल-४
छीन लेगा मेरा .गुमान भी क्या
इल्म लेगा ये इम्तेहान भी क्या

ख़ुद से कर देगा बदगुमान भी क्या
कोई ठहरेगा मेह्रबान भी क्या

है मुकद्दर में कुछ उड़ान भी क्या
इस ज़मीं पर है आसमान भी क्या

मेरा लहजा ज़रा सा तल्ख़ जो है
काट ली जायेगी ज़बान भी क्या

धूप से लुट चुके मुसाफ़िर को
लूट लेंगे ये सायबान भी क्या

इस क़दर जीतने की बेचैनी
दाँव पर लग चुकी है जान भी क्या

अब के दावा जो है मुहब्बत का
झूठ ठहरेगा ये बयान भी क्या

मेरी नज़रें तो पर्वतों पर हैं
मुझको ललचायेंगी ढलान भी क्या

ग़ज़ल-५.
ये कैसी पहचान बनाए बैठे हैं
गूंगे को सुल्तान बनाए बैठे हैं

मैडम बोली थी घर का नक्शा खींचो
बच्चे हिन्दुस्तान बनाए बैठे हैं

आईनों पर क्या गुजरी, क्यों ये सब,
पत्थर को भगवान बनाए बैठे हैं

धूप का चर्चा फिर संसद में गूंजा है
हम सब रौशनदान बनाए बैठे हैं

जंग न होगी तो होगा नुक्सान बहुत
हम कितना सामान बनाए बैठे हैं

वो चाहें तो और कठिन हो जाएँ पर
हम खुद को आसान बनाए बैठे हैं

आप को सोचें दिल को फिर गुलज़ार करें
क्यों खुद को वीरान बनाए बैठे हैं
http://shabdvyanjana.com/AuthorPost.aspx?id=1004&rid=7






केदार के मुहल्ले में स्थित केदारसभगार में केदार सम्मान

हमारी पीढ़ी में सबसे अधिक लम्बी कविताएँ सुधीर सक्सेना ने लिखीं - स्वप्निल श्रीवास्तव  सुधीर सक्सेना का गद्य-पद्य उनके अनुभव की व्यापकता को व्...