Tuesday 11 March 2014

एक कवि की दृष्टि से - कोहरा सूरज धूप (बृजेश नीरज)

"माँ! शब्द दो! अर्थ दो!ये तीन पंक्तियाँ मिलकर एक छोटी सी कविता रच देती हैं। ये कविता उस यात्रा की शुरुआत है जिसका प्रारंभ घने कुहरे से होता है। हमारा अस्तित्व भी माँ से ही शुरू होता है। हमारे जीवन को पहला शब्द और पहला अर्थ माँ ही देती है। इसके बाद होती है जीवन-यात्रा जो अज्ञान के कुहरे से शुरू होती है।

बच्चे हर चीज को उसके स्वाद से पहचानने की कोशिश करते हैं। तब माँ सिखाती है कि हर चीज का स्वाद जुबान से नहीं लिया जा सकता। दुनिया को जानने-समझने के लिए आपको हर इंद्रिय का प्रयोग करना पड़ता है और किस वस्तु को किस इंद्रिय से महसूस किया जा सकता है यह माँ ही सिखाती है। माँ ज्ञान का सूरज भी है और आनंद की धूप भी। इस तरह कोहरा सूरज धूपनामक कविता संग्रह की यात्रा शुरू होती है जो बृजेश नीरज जी के कल्पनालोक में ले जाती है।

अद्भुत बिम्बों से भरी सुबह हो रही है। यात्रा के प्रारंभ में ही कुछ द्वीप हैं जिनसे सटकर भगीरथी की धारा ठिठकी हुई है जिसकी स्याह लहरों में घुटकर रोशनी दम तोड़ देती है। निगाह नीले आसमान की तरफ जाती है और मन में सदियों पुराना प्रश्न सिर उठाता है। क्या होगा अंत के बादसामने मोमबत्तियों को घेरे हुए भीड़ दिखाई पड़ती है पर वो भी रोशनी को दम तोड़ने से नहीं बचा पाती।

आगे बढ़ने पर कुहरा छँट जाता है और सूरज चमकने लगता है। सूखे खेत, कराहती नदी और बढ़ते बंजर दिखाई पड़ते हैं। सड़क का तारकोल पिघलने लगता है। यात्रा करते समय काग़ज़ पर सीधी लकीर खींचने की सारी कोशिशें बेकार साबित होती हैं। कोहरा सूरज धूपकी यात्रा जीवन की यात्रा भी है। जहाँ लगातार कोशिशें करने के बावजूद भी सीधा-सादा बनकर नहीं जिया जा सकता। इंसान करे तो क्या करे?

आगे दिखाई पड़ती हैं जमीन के शरीर पर खिंची ढेरों लकीरें जिन्हें लोग पगडंडियाँ कहते हैं। पगड़ंडियाँ तब बनती हैं जब इंसान एक ही रास्ते से बार-बार गुज़रता है। पर क्यों गुज़रता है इंसान एक ही रास्ते से बार-बार?  क्योंकि उस रास्ते के अंत में प्रेम उसकी राह देख रहा होता है। प्रेम, जिसके बिना इंसान का जीवित रहना निरर्थक है। इसलिए नये रास्तों पर चलने की चाहत को भीतर दबाये वो बार-बार उन्हीं रास्तों से होकर गुज़रता है। कभी भटक गया तो भी लौट कर वापस उन्हीं पगडंडियों पर आता है।

अचानक लगता है कि इस रास्ते में आकाश, हवा, पानी, धूप, धूल, सितारा, सूरज, चाँद, ग्रह, आकाशगंगा सब कुछ कवि की कल्पना का विस्तार मात्र है। कवि भी उन्हीं मूलभूत कणों और गुणों से बना है जिनसे सारा ब्रह्मांड बना है। अंतर मात्र इन कणों की संख्या का है। अचानक एक प्यार भरा स्पर्श कवि को कल्पनालोक से निकाल कर ला पटकता है जीवन के कठोर धरातल पर और कहता है कि उठो, अभी कल की रोटी का जुगाड़ करना है तुम्हें। कवि को ध्यान आता है कि इन पगडंडियों में से कुछ उदास, खामोश पगडंडियाँ उन घरों तक जाती हैं जो स्मृतियों के बोझ तले ढहने लगे हैं। इन पर अब कोई नहीं चलता इसलिए खेत धीरे-धीरे इन पर अपना कब्ज़ा जमाते जा रहे हैं और ये हरे रंग की एक दुबली पतली लकीर के जैसी दिखने लगी हैं।    

आगे बढ़ने पर गर्मी अचानक बढ़ जाती है और इस प्रचंड गर्मी में सिर पर ईंटे ढोता एक आदमी दिखाई पड़ता है जिसकी आँतों में भूख का तापमान वातावरण के तापमान से अधिक है। गर्मी हमेशा उच्च तापमान से निम्न तापमान की तरफ बहती है इसीलिए गरीब आदमी प्रचंड गर्मी में भी जिन्दा रह पाता है। कवि अपने कंधों पर लदे तीन शब्द आदमी, भूख, पेट के बदले में तीन नए शब्द माँगता है मगर पूरा संसार मिलकर भी उसे तीन नए शब्द नहीं दे पाता। ये शब्द कवि के कंधों पर लदे हुए दिखते जरूर हैं मगर सच तो यह है कि धूप की गर्मी ने ये शब्द कवि की आत्मा के साथ वेल्ड कर दिये हैं। यहाँ से यात्री को यकीन हो जाता है कि वो सचमुच किसी कवि के कल्पनालोक की यात्रा कर रहा है किसी मायानगरी की नहीं।

आगे चलने पर मिलती है जमीन की तलाश में भटकती एक टूटी शाख जो लाल बत्ती पर खड़ी होकर अपनी फटी कमीज से गाड़ी पोंछ रही है। कवि कहता है कि तुम्हारी जमीन दिल्ली में एक गोल गुम्बद के नीचे कैद है। पहुँच सकोगी वहाँ तक? यह सुनते ही सूरज बड़ी तेजी से चमकने लगता है, बारिश होने लगती है, बादल फटता है। सबकुछ पिघलते अँधेरे में गुम हो जाता है। कवि लालटेन लिखना चाहता है पर अँधेरे में कैसे लिखे?

आगे बढ़ने पर मिलते हैं प्रेम और जीवन जिनके सामने जाने के लिए कवि ढूँढने लगता है अपना चेहरा। वो तारे तोड़ लाना चाहता है पर चुपचाप खाली बाल्टी को बूँद-बूँद भरते हुए देखने के अलावा कुछ नहीं कर पाता। अचानक यादों की किताब खुल जाती है और कवि को याद आता है कि प्रेम की बारिश के बगैर बहुत से सपने सूख गये हैं। आकाश और धरती के बीच कवि का अहंकार अकेला खड़ा है। कवि उसे दूर से नमस्कार कर आगे चल पड़ता है।

आगे मिलता है कंक्रीट का जंगल जहाँ दो पल सुकून से बैठने के लिए कवि जगह की तलाश में भटकता है। कवि को ढेर सारे मकान मिलते हैं अपने अपने नंबरों को सीने से चिपकाए और बशीर बद्र का ये शेर याद आता है।
घरों पे नाम थे नामों के साथ ओहदे थे
बहुत तलाश किया कोई आदमी न मिला

अचानक कवि को दिख जाता है उसका प्रेम और कवि कह उठता है कि तुम्हारा आना एक इत्तेफ़ाक हो सकता है लेकिन तुम्हारा होना अब मेरी आवश्यकता है। कवि को दिखाई देती हैं बंद खिड़कियाँ जिनपर हवा बार-बार दस्तक दे रही है। कवि के कल्पनालोक में भी रात होती है और हवा डर से काँपने लगती है लेकिन जल्द ही रोशनी की पहली किरण भी दिखाई देने लगती है। यहाँ कवि को अहसास होता है कि समय उससे बहुत आगे निकल चुका है। समय कल्पना की गति से भी तेज गति से भाग रहा है।

आगे बढ़ने पर कुहरा एक बार फिर घना हो जाता है पर कवि को यकीन है कि ये एक बार छँटा है तो दुबारा भी छँटेगा और वो भावों की लालटेन लिये आगे बढ़ता रहता है। कुहरे में रास्ता तलाशना मुश्किल साबित हो रहा है कवि बार-बार आगे बढ़ता है मगर रास्ता बंद पाकर वापस लौट आता है। कवि के मन में कुहरे की जेल से आज़ाद होने की इच्छा बलवती होने लगती है और वो जन-गण-मन गाने लगता है। अचानक कुहरा छँट जाता है और दिखाई पड़ने लगती है बरसात के अभाव में बंजर होती जमीन।

तभी पास में ही कहीं आँधी चलने लगती है और कवि की आँखों में धूल के कण चुभने लगते हैं। कवि आँखें मलने लगता है और उसे दिखाई पड़ते हैं प्रतिपल रंग बदलते हुए अक्षर। उसकी आँखों से स्याही की बूँद निकलकर क्षितिज की ओर चल पड़ती है। पता नहीं रंग बदलते हुए अक्षरों से निर्मित होने के कारण शब्द खामोश हैं या फिर उन्होंने दो मिनट का मौन धारण कर लिया है क्योंकि शाहजहाँ ने उनके पिता का सर (कवि के हाथ) कटवा दिया है।

आगे चलने पर दिखाई पड़ता है कवि का गाँव जिसे देखते ही कवि रेज़ा-रेज़ा होकर अपने गाँव की मिट्टी में बिखर जाता है। मिट्टी उसे फिर से नया और तरोताजा कर देती है। कवि सूखी-भूरी घास की चुभन महसूस करता हुआ फिर से उठ खड़ा होता है और उसे याद आता है कि कविता बैसाखियों पर नहीं चलती। यहीं कवि लिखता है मित्र के नाम एक कविता और निश्चय करता है कि ढूँढनी ही होगी कौंधते अंधकार में प्रकाश की किरण जो उसे मिल जाती है किसी के मुस्कुराते चेहरे में।

सामने से अचानक एक हाथी डर से भागता हुआ निकल जाता है। उसे बचाने हैं अपने दाँत। लेकिन वो उस सड़क पर भागता है जो संसद को जाती है और सब जानते हैं कि आगे जाकर यह सड़क बंद हो जाती है।

आगे कवि को मिलता है सजा-धजा चमचमाता हुआ बाजार जिसमें कवि अंधेरे के कण ढूँढने का प्रयास करता है। कवि देखता है बाजार में फूल बास मारते हुए झड़ रहे हैं क्योंकि इनमें संवेदना की खुशबू नहीं है। कवि शहर के बड़े चौराहे की बड़ी दीवार के पास पहुँचता है और उस पर लोकतंत्र लिखने की कोशिश करता है। जैसे ही वह लिखता है दीवार फ़ौरन सफ़ेद रंग से पोत दी जाती है और कवि को गायब कर दिया जाता है।

कवि को गायब कर देने से कवि मिटता नहीं बल्कि और विराट होकर लौटता है। सोये हुए कुम्हार को जगाता है और उससे कहता है कि उठो! गढ़ो! यह सोने का समय नहीं है। कुम्हार को जगाकर कवि निकल पड़ता है सत्य की खोज में।

इतनी दूर तक आते-आते कवि का थक जाना स्वाभिवक है। कवि की थकान देखकर उसका मित्र कहता है कि नीरज, बड़े दिनों बाद आये। आओ साथ-साथ बैठकर लइया, गुड़, चना और हरी मिर्च की चटनी खाएँ। मित्र का स्नेह कवि को एक बार फिर तरोताज़ा कर देता है और तब ये परम सत्य कवि की समझ में आता है। तन माटी से ऊपजा, तन माटी मिल जाय

आगे दिखाई पड़ता है एक घर जिसके आँगन में बैठा बच्चा रो रहा है क्योंकि उसके हिस्से की रोटी कोई चुराकर खा गया है। पीपल केवल अफ़सोस व्यक्त करके चुप हो गया है। इसी गली के कोने पर बने मकान में एक बुढ़िया की देहरी का दिया आज भी टिमटिमा रहा है किसी अनजानी आशा में। कवि भटकता है सतर में अर्थ की तलाश करता हुआ किंतु अचानक निहारता रह जाता है मुँह बिराते अक्षरों को।

अंत में कवि पहुँचता है अपने आराध्य की शरण में। उनको बताता है कि धन-शक्ति के मद में चूर रावण के सिर बढ़ते ही जा रहे हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम तो जग में बहुत हैं मगर शबरी के बेर खाने वाले, केवट को गले लगाने वाले, बंदरों की सहायता करने वाले, शरणागत राक्षस का भी उद्धार करने वाले राम कहीं गुम हो गये हैं। कवि पुकार उठता है, "राम! तुम कहाँ हो?”

माँ से शुरू हुई यात्रा राम तक पहुँचती है। दीन, दुखियों, निर्बलों के राम तक। पर ये यात्रा का केवल एक अस्थायी पड़ाव है। इतनी दूर तक आने वाले थका नहीं करते। वो पड़ावों पर जीवन नहीं बिताते। वो तो चलते रहते हैं, चलते रहते हैं जब तक साँस चलती है। यात्रा आगे भी जारी रहेगी इस उम्मीद के साथ कोहरे से धूप तक का सफर यहीं समाप्त हो जाता है।
      -   धर्मेन्द्र कुमार सिंह
(समीक्षक, गज़लकार तथा कविता कोश कार्यकारिणी के सदस्य)

Tuesday 4 March 2014

''कोहरा सूरज धूप'' लोकार्पित


 
अन्तराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के इलाहाबाद क्षेत्रीय केंद्र स्थित सत्यप्रकाश मिश्र सभागार में रविवार 22 फरवरी को आयोजित समारोह में अंजुमन प्रकाशन, इलाहाबद द्वारा प्रकाशित साहित्य सुलभ संस्करण के प्रथम सेट की आठ पुस्तकों का लोकार्पण किया गया इन आठ पुस्तकों में लखनऊ के बृजेश नीरज का कविता-संग्रह ‘’कोहरा सूरज धूप‘’ भी सम्मिलित है लोकार्पण भोपाल से पधारे ख्याति प्राप्त शायर ज़हीर कुर्रेशी के हाथों संपन्न हुआ समारोह की अध्यक्षता वयोवृद्ध गीतकार गुलाब सिंह ने की कार्यक्रम का संचालन गीतकार नन्दल हितैषी ने किया  
इस समारोह में गीतकार यश मालवीय, शायर एहतराम इस्लाम, प्रख्यात कवि अजामिल, उर्दू समालोचक एम . ए . कदीर, रविनंदन सिंह आदि वरिष्ठ साहित्यकार उपस्थित थे समारोह में वक्ताओं ने बृजेश नीरज की कविताओं में समकालीनता के स्वर और उनके तेवर की सराहना की और उन्हें एक प्रगितशील और सशक्त रचनाकार बताया वक्ताओं ने कहा कि बृजेश नीरज की कविताओं में जीवन के अनुभवों का एक विस्तृत फलक मौजूद है समकालीन विषय नए स्वरुप में नवीन बिम्बों के साथ हमारे सामने है समारोह का संयोजन अंजुमन प्रकाशन के अधिष्ठाता एवं शायर वीनस केसरी ने किया

Thursday 13 February 2014

कुंती मुखर्जी

कुंती मुखर्जी - संक्षिप्त परिचय

       कवयित्री एवं लेखिका कुंती मुखर्जी का जन्म 04 जनवरी 1956 को मॉरीशस द्वीप के फ़्लाक़ ज़िला स्थित ब्रिज़ी वेज़िएर नामक गाँव में हुआ था. फ़्रेंच भाषा के माध्यम से प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने हिंदी की पढ़ाई की. वर्ष 1972 में मॉरीशस हिंदी प्रचारिणी सभा द्वारा संचालित प्रयाग हिंदी साहित्य सम्मेलन की विशारद मध्यमा तथा 1973 में साहित्य रत्न उत्तमा परीक्षाएँ उत्तीर्ण की. उन्नीसवीं सदी के मध्य में अंग्रेज़ों द्वारा भारत से विस्थापित एक सम्पन्न परिवार की पाँचवी पीढ़ी की होनहार सदस्या के रूप में आपको भारतीय संस्कार विरासत में मिला. धार्मिक, देशभक्त व विद्वान पिता के संरक्षण और मार्गदर्शन में साहित्य जगत से परिचय हुआ. छह वर्ष की छोटी उम्र से ही आपकी लेखनी सक्रिय हो उठी थी. आपकी असंख्य रचनाओं में काव्य और कहानी ही मुख्य हैं. प्रकृति प्रेम से ओतप्रोत इन रचनाओं में नारी के  प्रति एक अतिसंवेदनशील रचनाकार के हृदय की छवि झलकती है.
       विवाहोपरांत लेखिका वर्तमान में अधिकांश समय भारत में ही व्यतीत करती हैं. उनका काव्य-संग्रह “बंजारन” हाल ही में (2013) अंजुमन प्रकाशन, इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ है.

सम्पर्क : 37, रोहतास एंक्लेव, फ़ैज़ाबाद रोड, लखनऊ – 226016.
मोबाईल : 09717116167, 09935394949

ई-मेल : coonteesharad@gmail.com 


कुंती मुखर्जी 

 मैं रात का एक टुकड़ा हूँ

(1)

मैं रात का एक टुकड़ा हूँ
आवारा
भटक गया हूँ शहर की गलियारों में.
जिंदगी सिसक रही है जहाँ
दम घोटूँ
एक बच्चा हँसता हुआ निकलता है
बेफ़िक्र, अपने नाश्ते की तलाश में.
सहमा रह जाता हूँ मैं मटमैले कमरों में.

(2)

मैं क्या करूँ
सूरज निकलता है
भयभीत होता हूँ पतिव्रताओं की आरती से
मुँह छिपाये मैं छिप जाता हूँ
कभी धन्ना सेठों की तिज़ोरी में तो
कभी किसी सन्नारी के गजरों में.

(3)

पारदर्शी मेरा शरीर
घूमता हूँ हर जगह
विडम्बना मेरी,  देखता हूँ सब कुछ
दृश्य-अदृश्य
आश्चर्य! जो देवता रात भर
रौंदता है फूलों को
दिन में धूप गुग्गल के धुएँ से
पवित्र करता सारा वातावरण
धन्य करता है जग को
उठाए हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में.

(4)

मुझे आत्मग्लानि थी
कि मैं रात हूँ, पाप हूँ
अब, देवताओं का कर्म देख
मुझे गर्व है कि मैं सौम्य हूँ
स्वप्नलोक की सैर कराता
लेता हूँ सबको अपने बाहुपाश में.

(5)

संध्या मुझे जन्म देती है,
चल देती है मेरा बाल रूप सँवार के
तारों के प्रकाश में, अमावस में
पूर्ण चंद्रमा की रोशनी में
मैं पूर्ण यौवन पाता हूँ.

(6)

जन्म लेता है मेरे उर से नित्य एक दिवस
प्रकाशवान, पलता हुआ अरुणिमा की गोद में-
हाँ, मैं समर्थ हूँ, सच्चा हूँ, रात हूँ. 
- कुंती मुखर्जी 

Monday 6 January 2014

मनोज शुक्ल का गीत


यूँ न शरमा के नज़रें झुकाओ प्रिये,
मन मेरा बाबला है मचल जायेगा.
तुम अगर यूँ ही फेरे रहोगी नज़र,
वक़्त है वेवफा सच निकल जायेगा.

अब रुको थरथराने लगी जिंदगी,
है दिवस थक गया शाम ढलने लगी.
खड़खड़ाने लगे पात पीपल के हैं,
ठंढी- ठंढी हवा जोर चलने लगी.
बदलियाँ घिर गयीं हैं धुँधलका भी है,
घन सघन आज निश्चित बरस जायेगा.
तुम चले गर गए तन्हाँ हो जाउंगा,
मन मिलन को तुम्हारे तरस जायेगा.
तुम अगर पास मेरे रुकी रह गयीं,
आज की रात ये दीप जल जायेगा.
यूँ न शरमा.....................


मौन हैं सिलवटें चादरों की बहुत,
रोकती-टोकती हैं दिवारें तुम्हें.
झूमरे ताकतीं सोचतीं देहरियां,
कैसे लें थाम कैसे पुकारें तुम्हें.
रातरानी बहुत चाहती है तुम्हें,
बेला मादक भी है रोकना चाहता,
चंपा भी चाहता है तुम्हारी छुअन,
बूढ़ा कचनार भी टोकना चाहता.
गर्म श्वांसों का जो आसरा ना मिला,
तो "मनुज " वर्फ सा आज गल जाएगा.
यूँ न ...............


रुक ही जाओ अधर भी प्रकम्पित से हैं,
ये नयन बेबसी से तुम्हें ताकते.
वासना प्यार में आज घुलने लगी,
ताप मेरे लहू का हैं क्षण नापते.
मन है बेचैन तन भी है बेसुध बहुत,
बुद्धि भी अब समर्पण को आतुर हुई.
बेसुरी सी धमक जिंदगी की  मेरी,
आ गयी अपनी लय में प्रिये सुर हुई.
बाँध लो गेसुओं से मेरी जिंदगी,
मृत्यु का देव प्राणो को छल जायेगा.
यूँ   शरमा…………………


- मनोज शुक्ल "मनुज"

Thursday 2 January 2014

नव वर्ष की शुभकामनायें!


सभी मित्रों को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनायें!

- निर्झर टाइम्स टीम 

श्रीप्रकाश

संक्षिप्त परिचय-
जन्म- 28 फरवरी 1959
शिक्षा- एम.ए. (हिंदी), कानपुर विश्वविधालय
प्रकाशित कृतियाँ - सौरभ (काव्य संग्रह), उभरते स्वर, दस दिशाएं, सप्त स्वर इत्यादि काव्य संकलनों में तथा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं एवं अंतरजाल मंचों पर कवितायें/गीत/लेख आदि |
सम्मान- निराला साहित्य परिषद् महमूदाबाद (सीतापुर), युवा रचनाकार मंच लखनऊ, अखिल भारत वैचारिक क्रांति मंच लखनऊ आदि संस्थाओं द्वारा सम्मानित |
गतिविधियाँ- सचिव (साहित्य), निराला साहित्य परिषद् महमूदाबाद (उ.प्र.) एवं संस्थापक/निदेशक ज्ञान भारती’ (लोक सेवी संस्थान) महमूदाबाद (उ.प्र.) |
सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन
ईमेल- sahitya_sadan@rediffmail.com


तीन मुक्तक
- श्रीप्रकाश

विश्व को विश्व के चाह की यह लड़ी
विश्व में चेतना प्राण जब तक रहे,
प्रिय मधुप का कली पे बजे राग भी
जब तलक गंध सौरभ सुमन में बहे !
***
प्यार छलता रहा प्रीति के पंथ पर
दीप जलता रहा शाम ढलती रही,
जिंदगी निशि प्रभा की मधुर आस ले
रात दिन सी सरल साँस चलती रही !
***
नेह की गति नहीं है निरति अंक में
काल की गति नहीं उम्र की गति नहीं,
चाह की गति नहीं कल्प की गति नहीं
रूप के पंथ पर तृप्ति की गति नहीं

***

Tuesday 31 December 2013

नूतन वर्ष मंगलमय हो !


वर्ष नया हो मंगलकारी, सुखी आपका हो जीवन
दूर वेदनाएं हों सारी, रहे प्रफुल्लित हर पल मन !

मिले सफलता कदम-कदम पर, पूरी हों अभिलाषाएं
कर्मयोग को साध्य बनाकर, अपना इच्छित फल पायें

बाहुपाश में जकड़ न पायें, असफलताओं के बंधन
दूर वेदनाएं हों सारी, रहे प्रफुल्लित हर पल मन !

स्वार्थ, लोभ, आलस्य, क्रोध, कलुषित भावों से मुक्ति मिले
जीवन के संघर्ष के लिए, अटल, असीमित शक्ति मिले !

मुक्त ईर्ष्या, द्वेष, घृणा से, हृदय आपका हो पावन
दूर वेदनाएं हों सारी, रहे प्रफुल्लित हर पल मन !

मानवता की सेवा करना, निज जीवन का लक्ष्य बनायें
अपना जीवन करें सार्थक, सारे जग में यश पायें !

मानवता पर हों न्योछावर, कर दें अपना तन,मन,धन
दूर वेदनाएं हों सारी, रहे प्रफुल्लित हर पल मन !

नूतन वर्ष की हार्दिक शुभकामनाओं सहित-
--राहुल देव-

केदार के मुहल्ले में स्थित केदारसभगार में केदार सम्मान

हमारी पीढ़ी में सबसे अधिक लम्बी कविताएँ सुधीर सक्सेना ने लिखीं - स्वप्निल श्रीवास्तव  सुधीर सक्सेना का गद्य-पद्य उनके अनुभव की व्यापकता को व्...