Monday 6 January 2014

मनोज शुक्ल का गीत


यूँ न शरमा के नज़रें झुकाओ प्रिये,
मन मेरा बाबला है मचल जायेगा.
तुम अगर यूँ ही फेरे रहोगी नज़र,
वक़्त है वेवफा सच निकल जायेगा.

अब रुको थरथराने लगी जिंदगी,
है दिवस थक गया शाम ढलने लगी.
खड़खड़ाने लगे पात पीपल के हैं,
ठंढी- ठंढी हवा जोर चलने लगी.
बदलियाँ घिर गयीं हैं धुँधलका भी है,
घन सघन आज निश्चित बरस जायेगा.
तुम चले गर गए तन्हाँ हो जाउंगा,
मन मिलन को तुम्हारे तरस जायेगा.
तुम अगर पास मेरे रुकी रह गयीं,
आज की रात ये दीप जल जायेगा.
यूँ न शरमा.....................


मौन हैं सिलवटें चादरों की बहुत,
रोकती-टोकती हैं दिवारें तुम्हें.
झूमरे ताकतीं सोचतीं देहरियां,
कैसे लें थाम कैसे पुकारें तुम्हें.
रातरानी बहुत चाहती है तुम्हें,
बेला मादक भी है रोकना चाहता,
चंपा भी चाहता है तुम्हारी छुअन,
बूढ़ा कचनार भी टोकना चाहता.
गर्म श्वांसों का जो आसरा ना मिला,
तो "मनुज " वर्फ सा आज गल जाएगा.
यूँ न ...............


रुक ही जाओ अधर भी प्रकम्पित से हैं,
ये नयन बेबसी से तुम्हें ताकते.
वासना प्यार में आज घुलने लगी,
ताप मेरे लहू का हैं क्षण नापते.
मन है बेचैन तन भी है बेसुध बहुत,
बुद्धि भी अब समर्पण को आतुर हुई.
बेसुरी सी धमक जिंदगी की  मेरी,
आ गयी अपनी लय में प्रिये सुर हुई.
बाँध लो गेसुओं से मेरी जिंदगी,
मृत्यु का देव प्राणो को छल जायेगा.
यूँ   शरमा…………………


- मनोज शुक्ल "मनुज"

Thursday 2 January 2014

नव वर्ष की शुभकामनायें!


सभी मित्रों को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनायें!

- निर्झर टाइम्स टीम 

श्रीप्रकाश

संक्षिप्त परिचय-
जन्म- 28 फरवरी 1959
शिक्षा- एम.ए. (हिंदी), कानपुर विश्वविधालय
प्रकाशित कृतियाँ - सौरभ (काव्य संग्रह), उभरते स्वर, दस दिशाएं, सप्त स्वर इत्यादि काव्य संकलनों में तथा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं एवं अंतरजाल मंचों पर कवितायें/गीत/लेख आदि |
सम्मान- निराला साहित्य परिषद् महमूदाबाद (सीतापुर), युवा रचनाकार मंच लखनऊ, अखिल भारत वैचारिक क्रांति मंच लखनऊ आदि संस्थाओं द्वारा सम्मानित |
गतिविधियाँ- सचिव (साहित्य), निराला साहित्य परिषद् महमूदाबाद (उ.प्र.) एवं संस्थापक/निदेशक ज्ञान भारती’ (लोक सेवी संस्थान) महमूदाबाद (उ.प्र.) |
सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन
ईमेल- sahitya_sadan@rediffmail.com


तीन मुक्तक
- श्रीप्रकाश

विश्व को विश्व के चाह की यह लड़ी
विश्व में चेतना प्राण जब तक रहे,
प्रिय मधुप का कली पे बजे राग भी
जब तलक गंध सौरभ सुमन में बहे !
***
प्यार छलता रहा प्रीति के पंथ पर
दीप जलता रहा शाम ढलती रही,
जिंदगी निशि प्रभा की मधुर आस ले
रात दिन सी सरल साँस चलती रही !
***
नेह की गति नहीं है निरति अंक में
काल की गति नहीं उम्र की गति नहीं,
चाह की गति नहीं कल्प की गति नहीं
रूप के पंथ पर तृप्ति की गति नहीं

***

Tuesday 31 December 2013

नूतन वर्ष मंगलमय हो !


वर्ष नया हो मंगलकारी, सुखी आपका हो जीवन
दूर वेदनाएं हों सारी, रहे प्रफुल्लित हर पल मन !

मिले सफलता कदम-कदम पर, पूरी हों अभिलाषाएं
कर्मयोग को साध्य बनाकर, अपना इच्छित फल पायें

बाहुपाश में जकड़ न पायें, असफलताओं के बंधन
दूर वेदनाएं हों सारी, रहे प्रफुल्लित हर पल मन !

स्वार्थ, लोभ, आलस्य, क्रोध, कलुषित भावों से मुक्ति मिले
जीवन के संघर्ष के लिए, अटल, असीमित शक्ति मिले !

मुक्त ईर्ष्या, द्वेष, घृणा से, हृदय आपका हो पावन
दूर वेदनाएं हों सारी, रहे प्रफुल्लित हर पल मन !

मानवता की सेवा करना, निज जीवन का लक्ष्य बनायें
अपना जीवन करें सार्थक, सारे जग में यश पायें !

मानवता पर हों न्योछावर, कर दें अपना तन,मन,धन
दूर वेदनाएं हों सारी, रहे प्रफुल्लित हर पल मन !

नूतन वर्ष की हार्दिक शुभकामनाओं सहित-
--राहुल देव-

Wednesday 11 December 2013

पुस्तक समीक्षा : जीवन का स्वर मंद न हो (काव्य संग्रह)



डॉ परमलाल गुप्त हिंदी साहित्य के जानेमाने हस्ताक्षर हैं जोकि अनवरत रूप से अपनी सशक्त रचनाओं एवं कृतियों के माध्यम से हिंदी साहित्य जगत में अपनी एक अलग ही पहचान बनाये हुए हैं | इसी क्रम में आपका दशम कविता संग्रह ‘जीवन का स्वर मंद न हो’ भी है |

पूरा संग्रह मुझे एक विराट कविसम्मेलन की तरह लगता है जिसमें आने वाला श्रोता विविध प्रकार के कवियों से विविध प्रकार की कविताओं की अपेक्षा करता है | इस कविता संग्रह को पढ़ना एक नए अनुभव से गुजरने जैसा है | डॉ गुप्त ने तमाम सामयिक विषयों को समेटते हुए अपने पाठकों की चली आ रही समस्याओं को भी दूर कर दिया है |

पुस्तक की ज्यादातर रचनाएँ गीत विधा में हैं | कुछ मुक्तक, कवितायेँ और अंत में बच्चों के लिए आठ बाल कवितायेँ, यानी लगभग सभी के लिए कुछ न कुछ | कवि ने सरल काव्यात्मक भाषा का इस्तेमाल बड़ी खूबसूरती के साथ किया है | उनके तर्क पाठक को वैचारिक स्तर पे प्रभावित करते हैं | कवि की एक प्रमुख विशेषता उल्लेखनीय है वह यह है कि जो उसने देखा, जो भोगा उसे बड़े अच्छे तरीके से शब्दों में गूंथकर सच्चे मन से प्रस्तुत कर दिया है | उसे यह परवाह नहीं कि कोई क्या कहेगा | उसने हमारे विकास में बाधक समस्याओं से हमें रूबरू करा दिया है जिनके समाधान हमें मिलकर खुद ही खोजने होंगे, कूपमंडूकता से काम नहीं चलने वाला |
‘राजनीति का सत्य’ चतुष्पदियों में कवि ने वर्तमान राजनीति के विकृत स्वरुप पर बहुत करारा व्यंग्य किया है | ‘एकता के प्रश्न’ पर कवि ने इतिहास के पन्नों को हमारे आगे खोलकर रख दिया है, फिर एकपक्षीय समता का क्या मतलब है? ‘विकास की विरूपता’ पर कवि का संवेदनशील मन चिंतित हो उठता है दो पंक्तियाँ उसी के शब्दों में, “एक ओर तो महाशक्ति बन/ भारत जग में उभर रहा है/ आम आदमी ठोकर खाकर / कठिन डगर से गुज़र रहा है !”

‘दल का दलदल’ कविता पढ़ते हुए इंडियाशाइनिंग का नारा बेमानी लगता है | इतनी विडम्बनाओं के होते हुए भी कवि राष्ट्र के उद्धार के प्रति आशान्वित है | इस सन्दर्भ में पृष्ठ-29 पर ‘गीत’ शीर्षक कविता बड़ी अच्छी बन पड़ी है | पृष्ठ-30 पर भी एक ‘गीत’ शीर्षक कविता है जिसे इस पुस्तक का टाइटलगीत भी कह सकते हैं | ‘देहधर्म’ शीर्षक कविता कवि के आध्यात्मिक दर्शन की भावभूमि को व्यक्त करती है, वहीं पृष्ठ-36 का गीत हमें हमें छायावाद की रूहानी वादियों में ले जाता है और पृष्ठ-37 के मुक्तक डॉ रामप्रसाद की उक्ति ‘....राष्ट्रवाद की टेक’ को सिद्ध करते हैं | ‘जीवनज्ञान’ जीवन को देखने का कवि का अपना नज़रिया है | ज्ञान इसलिए क्योंकि इसमें कवि के अनुभव शामिल हैं |

‘आज की राजनीति’ में विचारधाराएँ कहाँ हैं ? कुछ व्यंग्य टाइप कवितायेँ इस बात पर भी हैं | कवि के इस लपेटे में ‘आज की मीडिया’ भी आ गयी है |

डॉ गुप्त अपनी कविता में विविध प्रयोगों को करने में सिद्धहस्त हैं | कवि अपनी भाषा व संस्कृति को सर्वोपरि मानता है | वह अंग्रेजी का विरोधी नहीं परन्तु उसके लिए हिंदी पहले है अंग्रेजी बाद में | कवि का समस्त कृतित्व हिंदी में है | यह भी सर्वमान्य तथ्य है कि हमारी सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति हिंदी में ही हो सकती है | उसकी ‘अंग्रेजी माध्यम 1 व 2’ शीर्षक कवितायेँ भारतेंदु बाबू के इस कथन को बल देतीं हैं कि ‘विदेशी भाषा, विदेशी वस्तुओं का भरोसा मत करो, अपनी भाषा, अपनी संस्कृति में उन्नति करो !’

कवि व्यवस्था परिवर्तन के लिए जन-मन में क्रांति को आवश्यक मानता है, यह क्रांति कैसे हो सकती है इसका हल ‘क्रांति कैसे’ कविता में है | कवि की ‘इंडिया’ कविता भी इसी क्रम में है | उसे अपने राष्ट्र की दुर्दशा देखी नहीं जाती और फिर बरबस उसकी कलम में कुछ न कुछ निकल ही पड़ता है | आखिर हमारी प्रगति कहाँ रुकी हुई है ? हम विदेशी नक़ल कर-करके अपना मौलिक चिंतनधारा को खोते जा रहे हैं | कवि का सन्देश है कि अगर हम इन सब समस्याओं को दूर कर लें तो अपने देश को पुनः विश्वगुरु बनने से कोई नहीं रोक सकता |

कवि का सपना भारत देश को स्वतंत्र हिन्दूराष्ट्र के रूप में देखने की है इसलिए कुछेक कवितायेँ लोगों को अखर सकतीं हैं, हालांकि कवि की मूलभावना सांप्रदायिक सदभाव की ही है |

समीक्ष्य संग्रह की सभी कविताओं में ताजगी है, नया स्वर है | बहुत दुरूह शब्दों का प्रयोग कवि ने नहीं किया है जिससे इस कृति की उपयोगिता और अधिक बढ़ गयी है | हम अपनी जगह पर सही रहें, सही सोचें, सही करें व जीवन की गतिशीलता के साथ गतिमान रहें, संग्रह का मूलसंदेश यही है |
पुस्तक का कलेवर छोटा है | सहेजने, समझने लायक काफी कुछ है इसमें, मूल्य भी अन्य की तुलना में काफी कम | निश्चय ही अच्छे काव्य को चाहने वाले पाठकों को इसे अवश्य ही पढ़ना चाहिए |

समीक्ष्य पुस्तक : ‘जीवन का स्वर मंद न हो’ (काव्यसंग्रह)
रचनाकार- डॉ परमलाल गुप्त
प्रकाशक-पीयूष प्रकाशन, सतना (म.प्र.)
पृष्ठ-128 मूल्य-50/-
समीक्षक- राहुल देव, सीतापुर |
ईमेल- rahuldev.bly@gmail.com

पुस्तक समीक्षा : अंधे की आंख (उपन्यास)


श्री राजेन्द्र कुमार रस्तोगी कृत 517 पृष्ठीय वृहद् उपन्यास ‘अंधे की आँख’ इस वक़्त मेरे हाथ में है | नायक चंदर के जीवन पर केन्द्रित इस उपन्यास में लेखक की गहन अंतर्व्यथा उभर कर सामने आती है | यहाँ पर चंदर हमारे समाज के अत्यंत सीमित साधनों-संसाधनों के बीच जी रहे तमाम स्थितियों-परिस्थितियों से जूझते हुए एक आम आदमी का प्रतीक बन जाता है | चंदर की सारी समस्याएं हमसे व हमारे आसपास के सामाजिक वातावरण से जुड़ी हुई हैं | उपन्यास को पढ़ते हुए पाठक उससे जुड़ाव महसूस करता है |
उपन्यास की पूरी कथावस्तु का प्रस्तुतिकरण प्रभावशाली है लेकिन कहीं कहीं पर घटनाओं को अनावश्यक लम्बाई दे दी गयी है जिससे बचा जा सकता था | उपन्यास इतना वृहद् है कि प्रथमतः मुझे खुद इसकी समीक्षा लिख पाना एक चुनौती लगा | हालांकि लेखक ने तमाम घटनाओं व जीवन-जगत की अत्यंत छोटी-छोटी सी लगने वाली बातों को भी अच्छे शब्द दिए हैं | उपन्यास चंदर के निराशाभरे वक्तव्य से शुरू होकर आशा रुपी उजाले के सुखद अंत की ओर बढ़ता है | इसी उपन्यास के कुछ अच्छे अंश दृष्टव्य हैं-
‘इतना कुछ होते-पाते त्रिभुवन व्यापिनी जैसी अंधियारी के चलते रुद्ध और असहज हो गयी थी चंदर की जीवन गति |’ (पृष्ठ-35)
‘गत जीवन का अप्रिय और दुखद पहलू ही रूप बदल-बदलकर आ उपस्थित होता-मानस चक्षुओं के समक्ष....|’ (पृष्ठ-71)
‘इस भांति चंदर का वर्तमान जीवन, सामान्य जीवन नहीं रहा, सच पूछो तो वह अनंत रात्रि के बीच कभी ख़त्म न होने वाला स्वप्न सरीखा ही बनकर रह गया |’ (पृष्ठ-72)
‘अकथ्य पीड़ा.......
पीड़ा सहते-सहते चंदर का ध्यान पीड़ा के कारणों की ओर गया,
हाय-रे शौक....!
वाह-रे शौक़ीन...!!
जवाब नहीं तेरा....!
चढ़ बने तो तेरा कर देता है कमाल...
फाड़ कर धोती, बना लेता है-रूमाल !’ (पृष्ठ-89)
कहीं कहीं लेखक ने काव्यात्मक लहजे का भी प्रयोग किया है, देखें-
‘....आए दिन अंधड़...
चली पुरवाई..../और रहने लगा अम्बर....
बादलों की चुहलकदमी..../ कहीं धूप तो कहीं छाया...
हड़कल और कभी हडकंप..../ पूर्व-सूचना वर्षा के आगमन की...
ठंडी बयार-फुहार..../ कभी रिमझिम तो कभी झिर-झिर...
चसक-घुटने में.../ जोड़-तोड़ में दर्द और अकड़न...
गर्जन-तर्जन और तड़तड़-घड़घड़...’ (पृष्ठ-49)
जब ज्ञानवती लीलावती का थैला खोलती है तो उसमें रखी हुई चीज़ें उसके बचपन के सपनों की भावुक आवृत्तियाँ होतीं हैं, जिन्हें देखकर ज्ञानवती व चंदर अवाक रह जाते हैं | इस पूरे घटनाक्रम का सजीव चित्रण लेखक ने बखूबी किया है-
‘पके अधपके अमरुद...पिसे नमक मिर्च की पुड़िया..अध चकोतरे में चमकती चार-पांच खापें.../कमलगट्टे के चार-पांच सम्पुट और खिले-अधखिले उसके फूल- कुम्हलाए हुए...लाल इमली के चोड़पे...कांच के रंग-बिरंगे कंचे-गोलियां...रंग उबके तोता-चिरइया, कुत्ता-खरगोश जैसे मिट्टी के खिलौने...पुराना एक मुखौटा-शेर के मुंह वाला...इसके अलावा गुड़िये-गुड्डे...पुराने कपड़े-गुदड़ आदि इत्यादि जाने क्या न क्या उसके सिन्दारे में समाई हुई....’ (पृष्ठ-508-09)
उपन्यास के अन्दर नायक चंदर के माध्यम से लेखक का जीवन के प्रति नज़रिया स्पष्ट होता है | इस जीवन-दर्शन को अपनाकर कोई भी अपना जीवन सुखी बना सकता है-
‘संसार में सच्चे अर्थों में दुःखी कौन...?
शिष्ट सम्मत शब्दों में इसका उत्तर यह होना चाहिए :
अपने को दुखी और दूसरों को सुखी समझने वाला ही वास्तव में दुःखी है |’ (पृष्ठ- 159-60)
‘दुःख, जब अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच जाता है तो दुःखी, दुःख से परे हो जाता है |’ (पृष्ठ-273)
‘आदमी, यदि आदमी की जिंदगी जीना चाहता है तो आवश्यक होगा कि वह अपने काम के प्रति ईमानदार रहे, साथ ही पुरुषार्थी बना रहकर, होशियारी के साथ संघर्ष करता रहे |’ (पृष्ठ-240)
पल-पल बदलते रिश्तों, मूल्यों और मानवीय प्रवृत्तियों पर लेखक द्वारा की गयी बेबाक टिप्पणियां पाठक को अन्दर तक झकझोर देतीं हैं | यहाँ पर पाठक परम्परागत सामाजिक ढांचे के प्रति नए सिरे से सोचने के लिए विवश हो जाता है और उपन्यास का लेखक अपने अभीष्टपूर्ति में सफल सिद्ध होता है |
पूरे उपन्यास में काव्यात्मक भाषा का प्रयोग किया गया है | कथोपकथन संक्षिप्त परन्तु प्रवाहपूर्ण है | कथावस्तु छोटी है व पूरे घटनाक्रम का जाल नायक चंदर के मानसिक अंतर्द्वंद्व के इर्द-गिर्द बुना गया है, जिससे उपन्यास की कहानी काफी धीरे-धीरे आगे की ओर बढ़ती है |
उपन्यास की कथा अपने समानांतर कई सामाजिक समस्याओं को रेखांकित करते हुए भी चलती है जिसके आखिर में वर्तमान स्त्री-विमर्श की संक्षिप्त समीक्षा भी है |
लेखक के परिचय को पढ़ने पर पता चलता है कि उसने कोई औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं की है | इस लिहाज़ से उनका शब्दभंडार व साहित्य की भाषा शैली पर अधिकार उनकी मौलिक लेखकीय प्रतिभा, गहन स्वाध्याय एवं अनुशीलन का प्रतिफल है | सृजनपथ आपके निरंतर बढ़ते क़दमों का साक्षी होता रहे, मेरी यही शुभकामना है !

समीक्ष्य पुस्तक : 'अंधे की आंख' (उपन्यास)
लेखक- राजेन्द्र कुमार रस्तोगीबरेली (उ.प्र.)
पृष्ठ-517   मूल्य-150/-

समीक्षक- राहुल देवसीतापुर |
ईमेल- rahuldev.bly@gmail.com

Monday 9 December 2013

चुनाव आने पर...

पूँजीवादी जन के नेता
जनता के हृदय सम्राट
दर्शन दुर्लभ हो गए
पधारे पाँच साल बाद आप
लोकतंत्र की चाट बिक गयी
सारे दोने साफ़ पड़े हैं
देर लगा दी आने में
अब तुम केवल चटनी को चाटो
फिर भीड़तन्त्र की रेल में
रेवडियाँ बाँटो !

- राहुल देव

केदार के मुहल्ले में स्थित केदारसभगार में केदार सम्मान

हमारी पीढ़ी में सबसे अधिक लम्बी कविताएँ सुधीर सक्सेना ने लिखीं - स्वप्निल श्रीवास्तव  सुधीर सक्सेना का गद्य-पद्य उनके अनुभव की व्यापकता को व्...