सादर वन्दे सुहृद मित्रों... हिन्दी दिवस...हिन्दी पखवाड़ा...फिर धीरे धीरे जोश टांय-टांय फिस्स! शुभप्रभात, शुभरात्रि, शुभदिन सभी को good morning, good night & good day दबाने लगे। आज बच्चों के लिए (क्योंकि बच्चे हिन्दी के शब्दों से परिचित नहीं या फिर उनका अंग्रेजी शब्दकोष बढाने के लिए) बेचारे बुजुर्गों और शुद्ध हिंदीभाषी लोगों को भी अंग्रेजी बोलने के लिए अपनी जिव्हा को अप्रत्याशित ढंग से तोड़ना मरोड़ना पड़ता ही है। उन्हें गांधी जी का वक्तव्य कौन स्मरण कराए जो कहा करते थे- ''मैं अंग्रेजी को प्यार करता हूँ लेकिन अंग्रेजी यदि उसका स्थान हड़पना चाहती है, जिसकी वह हकदार नहीं है तो मैं सख्त नफरत करूंगा।'' अध्ययन का समय ही कहाँ है अब किसी के पास जो महापुरुषों के सुवचनों को संज्ञान में आये। ईश्वर ही बचाए समाज को। 14सितम्बर 1949 को संविधान सभा मे एकमत होकर निर्णय लिया गया कि भारत की राजभाषा हिन्दी होगी। इसी महत्वपूर्ण निर्णय को प्रतिपादित करने तथा हिंदी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिए ''राष्ट्र-भाषा प्रचार समिति वर्धा'' के अनुरोध पर 1953 से सम्पूर्ण भारत में 14 सितम्बर को हिंदी दिवस मनाया जाता है। राष्ट्रीय ध्वज,राष्ट्रीय पशु,पक्षी आदि की तरह राष्ट्रीय भाषा भी होनी चाहिए,लेकिन किताना दुखद है कि हम हिंदी को देश की प्रथम भाषा बनाने में सक्षम नहीं हो पाए हैं। हिंदी भारत की प्रथम भाषा बने भी तो कैसे जब देश के प्रथम नागरिक तक आज हिंदी को नकार अंग्रेजी में सम्बोधन करते हैं,जहां के नागरिक हिंदी के माध्यम से शिक्षा दिलाने में हीनता का अनुभव करते हैं,रिक्शाचालक भी रिक्शे पर अंग्रेजी में लिखवाकर छाती चौड़ी करते हैं। ज्यादा क्या कहें हमारे संविधान में ही देश की पहचान एक विदेशी भाषा में है-India that is Bharat'. विचारणीय है जहां वैश्विक मंच पर सभी देश अपनी भाषा के आधार पर डंका बजा रहे हों और अकेले हम...विदेशी भाषा में सस्वयं का परिचित करा रहे हों,तो हमे गुलाम अथवा गूंगे देश का वासी ही कहा जाएगा। विद्वानों ने कहा है कि जिस देश की कोई भाषा नहीं है वह देश गूंगा है। ऐसा सुनकर,अपना सिक्का खोंटा समझ हमें सर ही झुका लेना पड़ेगा। आज चीन जैसे देश राष्ट्र भाषा का आधार लेकर विकास की दौड़ में अग्रसर हैं,और भारत में खुद ही अपनी भाषा को रौंदा जा रहा है। अंग्रेजी शिक्षितजन अपनी भाष,संस्कृति,परिवेश और परम्पराओं से कटते जा रहे हैं और ऐसा कर वे स्वयं को विशिष्ट समझ रहे हैं। कैसी विडम्बना है आज हीनता ही गौरव का विषय बन गई है। ऐसी दशा में मुक्ति भला कैसे सम्भव है? आज अंधी दौड़ में हम भूल गये हैं कि स्वामी विवेकानन्द जी अंग्रेजी के प्रकाण्ड विद्वान होते हुए भी अपनी मात्रभाषा हिंदी के बूते शिकागो में विश्व को भारतीय संस्कृति के सामने नतनस्तक कर दिया। बहुत पहले नहीं 1999 में माननीय अटल बिहारी बाजपेई(तत्कालीन विदेश मंत्री) ने संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में सम्बोधित कर हमारे राष्ट्र को गौरान्वित किया था। अंग्रेजी के पक्षधर गाँधी जी के सामने अपनी जिव्हा दमित ही रखते थे। अंग्रेजी के बढते अधिपत्य और मातृ-भाषा की अवहेलना के विरुद्ध 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में आवाज उठाई गई थी। श्री केशवचन्द्र सेन, महर्षि दयानन्द सरस्वती,महात्मा गाँधी, राजर्षि पुरुषोत्तमदास,डा. राममनोहर लोहिया आदि देशभक्तों का एक स्वर मे कहना था-''हमें अंग्रेजी हुकूमत की तरह भारतीय संस्कृति को दबाने वाली अंग्रेजी भाषा को यहां से निकाल बाहर करना चाहिए।'' ये हिंदी सेवी महारथी जीवन के अन्तिम क्षणों तक हिंदी-अस्मिता के रक्षार्थ संघर्ष करते रहे। दुरभाग्वश वे भी मैकाले के मानस पुत्रों के मकड़जाल से हिंदी को मुक्त नहीं करा सके और राजकाज के रूप में पटरानी अंग्रेजी ही बनी हुई है,जबकि भारती संविधान इसे सह-भाष का स्थान देता है। मन्तव्य अंग्रेजी या किसी भाषा को आहत करने का नहीं हिंद-प्रेमियों बस हम भविष्य की आहट पहचानें, अंग्रेजी अथवा किसी भी विदेशी भाषा को जानें,सम्मान करें परन्तु उसे अपनी अस्मिता या विकास का पर्याय कतई न समझें। वास्तव में राष्ट्रभाषा की अवहेलना देश-प्रेम,संस्कृति और हमारी परम्पराओं से हमे प्रछिन्न करती है। अपनी मातृ-भाषा का प्रयोग हम गर्व से करें,हिंदी के लिए संघर्ष करने वाली मनीषियों की आत्माओं का आशीर्वाद हमारे साथ है। जय हो! सादर -वन्दना