Tuesday 27 December 2016

कहानी - जली हुई रस्सी

- शानी

अपने बर्फ जैसे हाथों से वाहिद ने गर्दन से उलझा हुआ मफलर निकाला और साफिया की ओर फेंक दिया। पलक-भर वाहिद की ओर देखकर साफिया ने मफलर उठाया और उसे तह करती हुई धीमे स्वर में बोली, 'क्या मीलाद में गए थे?'
वाहिद ने बड़े ठंडे ढंग से स्वीकृतिसूचक सिर हिलाया और पास की खूँटी में कोट टाँग खिड़की के पास आया। खिड़की के बाहर अँधेरा था, केवल सन्नाटे की ठंडी साँय-साँय थी, जिसे लपेटे बर्फीली हवा बह रही थी। किंचित सिहरकर वाहिद ने खिड़की पर पल्ले लगा दिए और अपने बज उठते दाँतों को एक-दूसरे पर जमाते हुए बोला 'कितनी सर्दी है! जिस्म बर्फ हुआ जा रहा है, चूल्हे में आग है क्या?'
प्रश्न पर साफिया ने आश्चर्य से वाहिद की ओर देखा। बोली नहीं। चुपचाप खाट पर लेटे वाहिद के पास आई, बैठी और उसके कंधे पर हाथ रखकर स्नेह-सिक्त स्वर में बोली, 'मेरा बिस्तर गर्म है, वहाँ सो जाओ।'
वाहिद अपनी जगह लेटा रहा, कुछ बोला नहीं। थोड़ी देर के बाद उठकर पास ही पड़ी पोटली खींची, उसकी गाँठें खोली और कागज की पुड़िया रूमाल से अलग कर बोला, 'शीरनी है, लो खाओ।'
'रहने दो,' साफिया बोली 'सुबह खा लूँगी। क्या मीलाद में बहुत लोग थे? किसके यहाँ थी?'
'वकील साहब के यहाँ। एक तो ग्यारहवें शरीफ की मीलादें और दूसरे इतनी सर्दी।'
वाहिद ने रजाई गर्दन तक खींच ली। अनायास भर उठने वाली झुरझुरी से एक बार सिहर कर अपना जिस्म समेटा और एक कोने में हो रहा। बंद किवाड़ों को धक्का मारकर अँधेरे और शीत में ठिठुरती हवा लौट गई और किवाड़ों की दराज में सिमटकर हवा दोशीजा की नटखट छुअन की तरह गर्म रजाई में भी वाहिद को छूकर कँपा गई।
पास वाले मकान से एक शोर उठ रहा था, एक बड़ी मीठी चहल-पहल, जिसमें पुरुष-स्त्रियों के स्वर और हँसी-मजाक के फव्वारे, देगों की उठा-पटक बल्लियों और कफगीरों के टकराने और झनझनाने की आवाजों के साथ घुले-मिले थे।
सफिया ने कहा 'मुनीर साहब के यहाँ कल सुबह दावत है।'
वाहिद ने सुन-भर लिया और आँखें बंद कर लीं।
मुनीर साहब वाहिद के घर के पास ही रहते थे। आज से कोई छह साल पहले मुनीर साहब यहाँ मुनीम थे, पर बाद में उन्होंने नौकरी छोड़ दी और गल्ले का व्यापार शुरू कर दिया। किस्मत अच्छी थी, अतः दो साल के अंदर ही उन्होंने हजारों रुपए कमाए और अपना पुराना माटी का कच्चा मकान तुड़वाकर पक्का और बड़ा मकान बनवाया।
उस दावत की चर्चा वाहिद पिछले कई दिनों से सफिया से सुन रहा था। मुनीर साहब की पत्नी ने जो, अक्सर वाहिद के यहाँ दोपहर में आ जाया करती थी, दो हफ्ते पहले ही अपने यहाँ होने वाली दावत की घोषणा कर दी थी। जब कभी सफिया से भेंट हुई, थोड़ी इधर-उधर की चर्चा के पश्चात बात ग्यारहवीं शरीफ के महीने, मीलादों और दावतों पर पलट आई और उसने बातों ही बातों में कई बार सुनाया कि उनके यहाँ की दावत में कितने मन का पुलाव, कितना जर्दा और कितने मन के बकरे कटने को हैं और इतने दिन पहले ही उनके रिश्तेदार चावल-दाल चुनने-बीनने और दूसरे कामों के लिए आ गए हैं। इस जरूरत से ज्यादा इंतजाम करने के लिए उन्होंने सफाई दी कि मीलाद, तीजा और किसी धार्मिक काम में चाहे लोग न आएँ, पर खाने की दावत हो, तो एक बुलाओ, चार आएँगे। जब मामूली दावतों का यह हाल होता है तो यह तो आम दावत है।
सफिया को बुरा लगा हो, ऐसी बात नहीं, पर उसने कभी कुछ नहीं कहा।
वही दावत कल होने जा रही थी।
बड़ी देर से छा गई चुप्पी को सहसा तोड़कर बड़े निराश स्वर में सफिया बोली 'मुनीर साहब की बीवी के पाँव तो जमीन पर ही नहीं पड़ते । इतनी उम्र हो गई फिर भी जेवरों से लदी पीली-उजली दुल्हन बनी फिरती हैं। भला बहू-बेटियों के सामने बुढ़ियों का सिंगार क्या अच्छा लगता है।'
वाहिद ने करवट बदली और एक लंबी साँस लेकर कहा 'जिसे खुदा ने इतना दिया है, वह क्यों न पहने? अपने-अपने नसीब हैं सफिया।'
सफिया को संतोष नहीं हुआ। थोड़ी देर चुप रहकर बड़े भरे हुए स्वर में बोली 'एक अपने नसीब हैं, खुदा जाने तुम्हारे मुकदमे का फैसला माटी मिला कब होगा!' और सफिया के भीतर से बड़ी लंबी और गहरी साँस निकली जो सीधे वाहिद के कलेजे में उतर गई।

वाहिद एक ढीला-ढाला, मँझोले कद का आदमी था। गरीबी और अभाव से उसका परिचय बचपन से ही था। बड़ी आर्थिक कठिनाइयों के बीच आठवीं की शिक्षा प्राप्त कर सका था। आठवीं के बाद किसी तरह कोशिश कर-कराके उसे फारेस्ट डिपार्टमेंट में फारेस्ट गार्ड की नौकरी मिल गई और आठ साल के भीतर ही वह डिप्टी रेंजर तक पहुँच गया। जंगल महकमे वालों को भला किस चीज की कमी। चार साल के अंदर ही वाहिद के नाम पोस्ट ऑफिस में डेढ़ हजार की रकम जमा हो गई जिसमें से सात सौ उसके ब्याह में खर्च हुए। पर सफिया का भाग्य शायद अच्छा नहीं था। पूरे दो साल भी सुख से नहीं रह पाई थी कि वाहिद को रिश्वत के आरोप में मुअत्तल कर दिया गया। वाहिद ने बहुत हाथ-पाँव मारे। पोस्ट ऑफिस से तीन सौ और निकल गए। हेड क्लर्क की कई दावतें हुईं। रेंज आफिसर साहब (जिनके सर्किल में वाहिद आता था और जिन्होंने रिपोर्ट आगे बढ़ाई थी) के यहाँ उसने कई बार, मिठाई, फलों की टोकरियाँ और शहर के भारी-भरकम आदमियों से ढेर सारी सिफारिशें भिजवाईं और डी.एफ.ओ. साहब की बीवी के पास (हालाँकि उसके पहले एक बार भी वहाँ जाने का अवसर नहीं आया था) सफिया को दो-तीन बार भेजा, पर कुछ नहीं हुआ। केस पुलिस को दे दिया गया और वाहिद पर मुकदमा चलने लगा।
पहले कुछ महीने तो वाहिद को काफी सांत्वनाएँ मिलीं  कि केस में कोई दम नहीं, खारिज हो जाएगा। यहाँ वाले ज्यादती और अन्याय करें पर ऊपर तो सबकी चिंता रखने वाला है और वाहिद के केस के साथ अकेले वाहिद का नहीं दो और जनों का भाग्य जुड़ा है। अगर वाहिद दोषी भी है, तो वे लोग तो निर्दोष हैं इत्यादि।
जब एक साल का अर्सा बीत जाने पर मुकदमा तय नहीं हुआ, पोस्ट आफिस से पूरे पैसे निकल गए और सफिया के जिस्म पर एक भी जेवर न रहा तो वाहिद की हिम्मत टूट गई और पहले जुम्मे के अलावा कभी भी मस्जिद की ओर रुख न करने वाला वाहिद अब पाँचों वक्त नवाज पढ़ने लगा।
लगभग दो साल के बाद फैसला हुआ और आशा के विपरीत, अच्छे से अच्छा वकील लगाने के बावजूद, वाहिद को साल भर की सजा हो गई।
वैसे तो अकस्मात टूट पड़ने वाली मुसीबत पहाड़ से कम न थी पर रिश्तेदारों और दोस्तों ने हाईकोर्ट में अपील करने का किसी-न-किसी तरह प्रबंध कर दिया और पूरे डेढ़ बरस से वाहिद हाईकोर्ट के फैसले का इंतजार कर रहा है, भले उस प्रतीक्षा में एक जून के खाने के बाद दूसरे जून की चिंता की हड़बड़ाहट, सफिया की शिकायतें, दिन-प्रतिदिन टूटता उसका स्वास्थ्य और उस दुर्दिन में माँ बनने की एहतियात, आवश्यक दवाई व देखभाल की सारी समस्याएँ शामिल थीं।

मुनीर साहब के यहाँ से देगों में भारी कफगीरों के फेरने-टकारने का स्वर गूँजा, बड़े जोर से छनन-छन्न की आवाज हुई और फिर घी में पड़े ढेर सारे मसालों की मीठी-सोंधी खुशबू फैल गई।
घी अब वाहिद के लिए ख्वाब है। जब तक लोअर कोर्ट से फैसला नहीं हुआ था, ऑफिस से मुअत्तली का एलाउंस मिल जाया करता था, उसका ही सहारा कम न था। पर अब कहीं का कोई आसरा नहीं। उन कड़वे दिनों को वाहिद और सफिया मिलकर झेल भी लें, लेकिन उस मासूम जान का क्या होगा, जो वाहिद के दुर्दिन में ही सफिया के भाग्य में आने को थी? प्राइवेट फंड की जो भी थोड़ी बहुत रकम जमा थी और वापस मिलने को थी, उसके जाने के बहुत पहले से रास्ते तैयार थे, अतः उसका क्या भरोसा?
एक दिन झिझकती हुई सफिया बोली 'एक बात कहूँ?'
पल भर के लिए वाहिद डर सा गया, पता नहीं सफिया कौन-सी बात कहेगी? तुरंत जवाब देते नहीं बना। क्षण भर उसकी तरफ देखता रहा फिर पास जाकर अपनी हथेलियों में उसका चेहरा ले बड़ी उदास आँखों से देखने लगा 'क्या कहती हो?'
सफिया बोली 'प्राइवेट फंड के पैसे मिलेंगे, तो घी ला दोगे? बहुत दिनों से अपने यहाँ पुलाव नहीं बना।'
वाहिद के भीतर जैसे किसी ने हाथ डालकर खँगाल दिया हो। अपने को किसी तरह पहले वह संयत कर धीरे से मुस्कराया, फिर जरा जोर से बनाई हुई हँसी हँसता हुआ बोला 'बस?'
सफिया संकोच से लाल होकर मुस्कराती हुई वाहिद के सीने में छिप गई।
वहाँ से हटकर जब वाहिद दूसरे कमरे में आ गया तो निढाल सा खाट में पड़ गया। भीतर से उफनती रुलाई का आवेग पलकों पर, ओठों पर बिछल रहा था। मुँह पोंछने के बहाने रुमाल से उसने आँखें पोंछीं और अपने लरज रहे ओंठ बाँहों में भींच लिए।
उस बात को भी तीन माह हो गए थे। सफिया ने एक-दो बार अप्रत्यक्ष रूप से पूछने की कोशिश की और चुप रह गई। उस रकम की वाहिद को आज भी प्रतीक्षा है।
वाहिद ने करवट बदली। मुनीर साहब के यहाँ का शोर थम गया था और इक्की-दुक्की आवाजें आ रही थीं। सफिया थककर सो गई थी।

सर्दी की सुबह वाहिद के लिए आठ से पहले नहीं होती। पर उस दिन देर से सोने पर भी आँख सुबह जल्दी खुल गई। वैसे काम होने या न होने पर भी वह चाय आदि से निपटकर नौ से पहले ही बाहर निकल जाता है लेकिन उस दिन उसकी चाय दस बजे हुई।
बाहर मुनीर साहब के यहाँ भीड़ इकट्ठी हो रही थी साइकिल और पाँवों की रौंद से उभड़-उभड़कर धूल का बादल फैल-बिखर रहा था और दिनों की तरह चाय देते हुए आज सफिया ने न तो राशन के समाप्त होने की बात कही और न पूछा कि आज वाहिद कहाँ से क्या प्रबंध करेगा। पिछली रात भी कुछ नही था। सुबह का बच रहा थोड़ा खाना वाहिद और सफिया ने मिलकर खा लिया था। रात की मीलाद की शीरनी नाश्ते का काम दे गई थी।
वाहिद ने पूछा 'क्यों, क्या मुनीर साहब के यहाँ से कोई आया था?'
सफिया ने थोड़ा झिझकते हुए जवाब दिया 'नहीं, हज्जाम आया था, आम दावत की खबर दे गया है।'
वाहिद ने और कुछ नहीं पूछा और बाहर निकल आया। मुनीर साहब के घर के सामने से लेकर दूसरे मोड़ तक लोगों का आना-जाना लगा था। रंगीन धारीदार तहमत लपेटे, सफेद और काली टोपियाँ लगाए, सिर में रूमाल बाँधे लोग, मुनीर साहब के घर की ओर बढ़ रहे थे। एकाएक सामने से रिजवी साहब दिखाई दिए। वाहिद उनसे कतराना चाहता था पर जब सामने पड़ ही गए, तो बरबस मुस्कराकर आदाब करना ही पड़ा। रिजवी साहब के साथ नौ से लेकर तीन साल तक के चार बच्चे चल रहे थे, जिनके सिर पर आढ़ी-टेढ़ी, गंदी और तेल में चीकट मुड़ी-मुड़ाई टोपियाँ थी।
रिजवी साहब ने मुस्कराकर पूछा 'क्यों भाई, मुनीर साहब के यहाँ से आए हो क्या?'
वाहिद ने झिझककर कहा 'जी नहीं।'
वाहिद से रिजवी साहब बोले 'तो फिर चलो न?'
वाहिद क्षण भर चुप रहा। फिर सँभलकर बोला 'आप चलिए, मैं अभी आया।'
रिजवी साहब आगे बढ़ गए।
कोई दो घंटों के बाद जब वाहिद लौटा, तो मुनीद साहब के घर के सामने से भीड़ छँट गई थी, पर महफिल अभी भी चल रही थी। कोई पूछे या न पूछे, स्वागत करे या न करे, लोग आते, सामने के नल पर हाथ धोते और बैठ जाते थे।
एक ओर से कंधे पर कपड़े से ढका तश्त लिए, चिंचोड़ी गई हड्डियों के गिर्द फैले ढेर सारे कुत्तों को हँकालती हमीदा की माँ निकली। हमीदा की माँ पिछले पाँच वर्षों से मुनीर साहब के यहाँ नौकर थी। अक्सर तीज-त्यौहारों के अवसर पर मुनीर साहब के यहाँ से शीरनी लेकर हमीदा की माँ वाहिद के यहाँ आया करती थी। उससे बात करने की न तो वाहिद को ही कभी आवश्यकता पड़ी और न अवसर ही आया। फिर भी वाहिद ने आज रोककर पूछा 'हमीदा की माँ, क्या लिए जा रही हो?'
हमीदा की माँ ने पल्लू सँभालकर कहा 'खाना है भैया, सिटी साहब के यहाँ पहुँचाने जा रही हूँ।'
'भला वह क्यों?'
'अब पता नहीं, सिटी साहब आम दावत में आना पसंद करें, न करें, सो बेगम साहबा भिजवा रही हैं।'
और हमीदा की माँ आगे बढ़ने लगी, तभी एकाएक चौंककर, (जैसे कोई महत्वपूर्ण और विशेष बात छूटी जा रही हो) जरा आवाज ऊँची करके, रोकने के अंदाज में वाहिद ने पूछा, 'और कहाँ-कहाँ ले जाना है हामिद की माँ?'
हामिद की माँ ने थोड़ा रुककर कहा 'पता नहीं भैया! फिर भी इतना जानती हूँ, अभी मेरी जान को छुटकारा नहीं।'
वाहिद ओठों में ही मुस्कराया और मुनीर साहब के घर की ओर बढ़ा। सामने आँगन में दो-तीन बड़ी-बड़ी दरियाँ (जो संभवतः हर दावत में पहुँच-पहुँच कर गंदी हो चली थीं) बिछी हुई थीं, जिन पर साफ, नए कपड़े पहने कुछ बच्चे खेल रहे थे। पास के नल से क्षण-प्रतिक्षण बह रहे पानी से आँगन के आधे हिस्से में कीचड़ फैल चुका था। पास ही दो-तीन चारपाइयाँ डाल दी गई थीं। चारपाइयाँ शायद उन उम्मीदवारों के बैठने के लिए जो देर से आने के कारण चल रही पाँत समाप्त होने और दूसरी पाँत के प्रारंभ होने की प्रतीक्षा करते हैं। उन्ही लोगों में से क्या वाहिद भी है? वह बड़े फीके ढंग से मन-ही-मन हँसा। रस्सी भले ही जल गई हो, पर क्या उसका बल इतनी जल्दी निकल जाएगा।
थोड़ी देर वाहिद वहीं खड़ा रहा। वहाँ बैठने-बिठाने अथवा पूछने के लिए किसी की आवश्यकता नहीं थी। लोग आते थे, जाते थे।
भीतर के कमरे से जहाँ खाना चल रहा था, बर्तनों की टकराहट के साथ पुलाव की महक साँसों के साथ वाहिद के फेंफड़ों में भर गई। मुँह भर आया, घूँट हलक के नीचे उतारकर वाहिद एक ओर खड़े दाँत खोदते औक थूकते दो-तीन दाढ़ी वाले बुजुर्गों के पास जा खड़ा हुआ। दाँत के अँतरों में फँस गए गोश्त के टुकड़ों को तीली से निकाल फेंकने की जी-तोड़ कोशिश करते हुए उन लोगों ने केवल वही सवाल किया, जिसका जवाब वाहिद पिछले डेढ़ बरस से प्रायः हर मिलने वाले को दिया करता था कि उसके केस का क्या हुआ, किस वकील को लगाया है, कितनी परेशानियाँ हो गई और अपील के फैसले को कितनी देर है? आदि।
वाहिद ने सैकड़ों बार कही बात एक बार फिर अपने अनमने ढंग से दोहरा दी। तबी दरवाजे के पास मुनीर साहब दिखाई दिए। इधर से ध्यान हटाकर वाहिद ने मुनीर साहब के चेहरे की तरफ अपनी आँखें जमा दी। पर लगातार कई मिनटों तक मुनीर साहब के चेहरे की तरफ देखते रहने पर भी उनका ध्यान वाहिद की तरफ नहीं लौटा और वह अपने किसी नौकर को हिदायतें देकर लौटने लगे, तो अपनी जगह से एकदम आगे आ, पुकारकर वाहिद ने कहा, 'मुनीर साहब, आदाब अर्ज है।'
मुनीर साहब जाते-जाते पल भर को रुके, आदाब लिया, वाहिद की ओर देखकर मुस्कराए और तेजी से भीतर चले गए।
एक दम पीछे अपनी जगह से लौटने से पूर्व वाहिद ने सुना, पास के दाढ़ी वाले सज्जन उसका नाम लेकर पुकार रहे थे। लौटकर देखा तो उन्होंने कहा 'वाहिद मियाँ, पान लीजिए।'
एक कम उम्र का लड़का वाहिद के आगे पान की तश्तरी बढ़ाए खड़ा था। क्षण भर रुककर वाहिद ने अपने इर्द-गिर्द देखा, सामने खड़े लड़के पर एक निगाह डाली, तश्तरी से एक पान उठाकर मुँह में रखा और लौट रहे लोगों के पीछे हो लिया।
घर पहुँचकर देखा, सफिया तकिए में मुँह डाले चुपचाप पड़ी थी। बावर्चीखाने की ओर निगाह गई, चूल्हा लिपा-पुता साफ था और धुले-मँजे बर्तन चमक रहे थे। वाहिद को देखकर सफिया उठ बैठी और अपनी ओर घूरकर देख रहे वाहिद की आँखों में केवल निमिष-भरे के लिए देखकर ठंडे स्वर में पूछा 'कितने लोग थे दावत में?
हामिद की माँ तो आई नहीं?'

वाहिद के जले पर जैसे किसी ने नमक छिड़क दिया हो। तिलमिलाकर तीखे स्वर में उसने कहा, 'हमीदा की माँ की ऐसी की तैसी! मैं ऐसी दावतों में नहीं जाता, यह जानकर भी तुम ऐसे सवाल करती हो? हमने क्या पुलाव नहीं खाया? जिसने न देखा हो वह सालों के यहाँ जाए!'

सआदत हसन मंटो की लघुकथाएँ

सआदत हसन मंटो दुनिया के सर्वश्रेष्ठ कहानीकारों में से एक थे. मंटो ने कोई उपन्यास नहीं लिखा, केवल अपनी कहानियों के दम पर साहित्य में अपनी जगह बना ली. जहाँ एक और उनकी कहानियों में विभाजन, दंगों और सांप्रदायिकता पर तीखे कटाक्ष देखने को मिलते हैं वहीँ दूसरी ओर मानवीय संवेदना के सूत्र भी कथानक में बिखरे होते हैं. 
प्रस्तुत है उनकी पाँच लघु कहानियाँ -

घाटे का सौदा
दो दोस्तों ने मिलकर दस-बीस लड़कियों में से एक लड़की चुनी और बयालीस रुपए देकर उसे खरीद लिया।
रात गुजारकर एक दोस्त ने उस लड़की से पूछा-तुम्हारा नाम क्या है?”
लड़की ने अपना नाम बताया तो वह भिन्ना गया-"हमसे तो कहा गया था कि तुम दूसरे मजहब की हो…"
लड़की ने जवाब दिया- "उसने झूठ बोला था।"
यह सुनकर वह दौड़ा-दौड़ा अपने दोस्त के पास गया और कहने लगा- "उस हरामजादे ने हमारे साथ धोखा किया हैहमारे ही मजहब की लड़की थमा दीचलो, वापस कर आएँ।"

करामात
लूटा हुआ माल बरामद करने के लिए पुलिस ने छापे मारने शुरू किए।
लोग डर के मारे लूटा हुआ माल रात के अँधेरे में बाहर फेंकने लगे; कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने अपना माल भी मौका पाकर अपने से अलहदा कर दिया, ताकि कानूनी गिरफ्त से बचे रहें।
एक आदमी को बहुत दिक्कत पेश आई। उसके पास शक्कर की दो बोरियाँ थीं जो उसने पंसारी की दुकान से लूटी थीं। एक तो वह जूँ-तूँ रात के अँधेरे में पास वाले कुएँ में फेंक आया, लेकिन जब दूसरी उसमें डालने लगा तो खुद भी साथ चला गया।
शोर सुनकर लोग इकट्ठे हो गए। कुएँ में रस्सियाँ डाली गईं। जवान नीचे उतरे और उस आदमी को बाहर निकाल लिया गया; लेकिन वह चंद घंटों के बाद मर गया।
दूसरे दिन जब लोगों ने इस्तेमाल के लिए कुएँ में से पानी निकाला तो वह मीठा था।
उसी रात उस आदमी की कब्र पर दीए जल रहे थे।

बँटवारा
एक आदमी ने अपने लिए लकड़ी का एक बड़ा संदूक चुना। जब उसे उठाने लगा तो संदूक अपनी जगह से एक इंच न हिला।
एक शख्स ने, जिसे अपने मतलब की शायद कोई चीज मिल ही नहीं रही थी, संदूक उठाने की कोशिश करनेवाले से कहा- "मैं तुम्हारी मदद करूँ?"
संदूक उठाने की कोशिश करनेवाला मदद लेने पर राजी हो गया।
उस शख्स ने जिसे अपने मतलब की कोई चीज नहीं मिल रही थी, अपने मजबूत हाथों से संदूक को जुंबिश दी और संदूक उठाकर अपनी पीठ पर धर लिया। दूसरे ने सहारा दिया और दोनों बाहर निकले।
संदूक बहुत बोझिल था। उसके वजन के नीचे उठानेवाले की पीठ चटख रही थी और टाँगें दोहरी होती जा रही थीं; मगर इनाम की उम्मीद ने उस शारीरिक कष्ट के एहसास को आधा कर दिया था।
संदूक उठानेवाले के मुकाबले में संदूक को चुननेवाला बहुत कमजोर था। सारे रास्ते एक हाथ से संदूक को सिर्फ सहारा देकर वह उस पर अपना हक बनाए रखता रहा।
जब दोनों सुरक्षित जगह पर पहुँच गए तो संदूक को एक तरफ रखकर सारी मेहनत करनेवाले ने कहा-"बोलो, इस संदूक के माल में से मुझे कितना मिलेगा?"
संदूक पर पहली नजर डालनेवाले ने जवाब दिया-"एक चौथाई।"
"यह तो बहुत कम है।"
"कम बिल्कुल नहीं, ज्यादा हैइसलिए कि सबसे पहले मैंने ही इस माल पर हाथ डाला था।"
"ठीक है, लेकिन यहाँ तक इस कमरतोड़ बोझ को उठाके लाया कौन है?"
"अच्छा, आधे-आधे पर राजी होते हो?"
"ठीक हैखोलो संदूक।"
संदूक खोला गया तो उसमें से एक आदमी बाहर निकला। उसके हाथ में तलवार थी। उसने दोनों हिस्सेदारों को चार हिस्सों में बाँट दिया।


हैवानियत
मियाँ-बीवी बड़ी मुश्किल से घर का थोड़ा-सा सामान बचाने में कामयाब हो गए।
एक जवान लड़की थी, उसका पता न चला।
एक छोटी-सी बच्ची थी, उसको माँ ने अपने सीने के साथ चिमटाए रखा।
एक भूरी भैंस थी, उसको बलवाई हाँककर ले गए।
एक गाय थी, वह बच गई; मगर उसका बछड़ा न मिला।
मियाँ-बीवी, उनकी छोटी लड़की और गाय एक जगह छुपे हुए थे।
सख्त अँधेरी रात थी।
बच्ची ने डरकर रोना शुरू किया तो खामोश माहौल में जैसे कोई ढोल पीटने लगा।
माँ ने डरकर बच्ची के मुँह पर हाथ रख दिया कि दुश्मन सुन न ले। आवाज दब गई। सावधानी के तौर पर बाप ने बच्ची के ऊपर गाढ़े की मोटी चादर डाल दी।
थोड़ी दूर जाने के बाद दूर से किसी बछड़े की आवाज आई।
गाय के कान खड़े हो गए। वह उठी और पागलों की तरह दौड़ती हुई डकराने लगी। उसको चुप कराने की बहुत कोशिश की गई, मगर बेकार
शोर सुनकर दुश्मन करीब आने लगा। मशालों की रोशनी दिखाई देने लगी।
बीवी ने अपने मियाँ से बड़े गुस्से के साथ कहा- "तुम क्यों इस हैवान को अपने साथ ले आए थे?"

साम्यवाद
वह अपने घर का तमाम जरूरी सामान एक ट्रक में लादकर दूसरे शहर जा रहा था कि रास्ते में लोगों ने उसे रोक लिया।
एक ने ट्रक के माल-असबाब पर लालच भरी नजर डालते हुए कहा- "देखो यार, किस मजे से इतना माल अकेला उड़ाए चला जा रहा है!"
असबाब के मालिक ने मुस्कराकर कहा- "जनाब, यह माल मेरा अपना है।"
दो-तीन आदमी हँसे- "हम सब जानते हैं।"
एक आदमी चिल्लाया- "लूट लोयह अमीर आदमी हैट्रक लेकर चोरियाँ करता है…!"

गोपाल सिंह नेपाली की रचनाएँ

मेरा धन है स्वाधीन कलम

राजा बैठे सिंहासन पर, यह ताजों पर आसीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम

जिसने तलवार शिवा को दी
रोशनी उधार दिवा को दी
पतवार थमा दी लहरों को
खंजर की धार हवा को दी
अग-जग के उसी विधाता ने, कर दी मेरे आधीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम

रस-गंगा लहरा देती है
मस्ती-ध्वज फहरा देती है
चालीस करोड़ों की भोली
किस्मत पर पहरा देती है
संग्राम-क्रांति का बिगुल यही है, यही प्यार की बीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम

कोई जनता को क्या लूटे
कोई दुखियों पर क्या टूटे
कोई भी लाख प्रचार करे
सच्चा बनकर झूठे-झूठे
अनमोल सत्य का रत्नहार, लाती चोरों से छीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम

बस मेरे पास हृदय-भर है
यह भी जग को न्योछावर है
लिखता हूँ तो मेरे आगे
सारा ब्रह्मांड विषय-भर है
रँगती चलती संसार-पटी, यह सपनों की रंगीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम

लिखता हूँ अपनी मर्जी से
बचता हूँ कैंची-दर्जी से
आदत न रही कुछ लिखने की
निंदा-वंदन खुदगर्जी से
कोई छेड़े तो तन जाती, बन जाती है संगीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम

तुझ-सा लहरों में बह लेता
तो मैं भी सत्ता गह लेता
ईमान बेचता चलता तो
मैं भी महलों में रह लेता
हर दिल पर झुकती चली मगर, आँसू वाली नमकीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम


अपनेपन का मतवाला

अपनेपन का मतवाला था भीड़ों में भी मैं
खो न सका
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ इतना सस्ता
मैं हो न सका

देखा जग ने टोपी बदली
तो मन बदला, महिमा बदली
पर ध्वजा बदलने से न यहाँ
मन-मंदिर की प्रतिमा बदली
मेरे नयनों का श्याम रंग जीवन भर कोई
धो न सका
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ इतना सस्ता
मैं हो न सका

हड़ताल, जुलूस, सभा, भाषण
चल दिए तमाशे बन-बनके
पलकों की शीतल छाया में
मैं पुनः चला मन का बन के
जो चाहा करता चला सदा प्रस्तावों को मैं
ढो न सका
चाहे जिस दल में मैं जाऊँ इतना सस्ता
मैं हो न सका

दीवारों के प्रस्तावक थे
पर दीवारों से घिरते थे
व्यापारी की जंजीरों से
आजाद बने वे फिरते थे
ऐसों से घिरा जनम भर मैं सुखशय्या पर भी
सो न सका
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ इतना सस्ता
मैं हो न सका



बदनाम रहे बटमार

बदनाम रहे बटमार मगर, घर तो रखवालों ने लूटा
मेरी दुल्हन-सी रातों को, नौ लाख सितारों ने लूटा

दो दिन के रैन बसेरे की,
हर चीज चुराई जाती है
दीपक तो अपना जलता है,
पर रात पराई होती है
गलियों से नैन चुरा लाए
तस्वीर किसी के मुखड़े की
रह गए खुले भर रात नयन, दिल तो दिलदारों ने लूटा
मेरी दुल्हन-सी रातों को, नौ लाख सितारों ने लूटा

शबनम-सा बचपन उतरा था,
तारों की गुमसुम गलियों में
थी प्रीति-रीति की समझ नहीं,
तो प्यार मिला था छलियों से
बचपन का सँग जब छूटा तो
नयनों से मिले सजल नयना
नादान नये दो नयनों को, नित नये बजारों ने लूटा
मेरी दुल्हन-सी रातों को, नौ लाख सितारों ने लूटा

हर शाम गगन में चिपका दी,
तारों के अक्षर की पाती
किसने लिक्खी, किसको लिक्खी,
देखी तो पढ़ी नहीं जाती
कहते हैं यह तो किस्मत है
धरती के रहनेवालों की
पर मेरी किस्मत को तो इन, ठंडे अंगारों ने लूटा
मेरी दुल्हन-सी रातों को, नौ लाख सितारों ने लूटा


अब जाना कितना अंतर है,
नजरों के झुकने-झुकने में
हो जाती है कितनी दूरी,
थोड़ा-सी रुकने-रुकने में
मुझ पर जग की जो नजर झुकी
वह ढाल बनी मेरे आगे
मैंने जब नजर झुकाई तो, फिर मुझे हजारों ने लूटा
मेरी दुल्हन-सी रातों को नौ लाख सितारों ने लूटा



मैं प्यासा भृंग जनम भर का

मैं प्यासा भृंग जनम भर का
फिर मेरी प्यास बुझाए क्या,
दुनिया का प्यार रसम भर का ।
मैं प्यासा भृंग जनम भर का ।।

चंदा का प्यार चकोरों तक
तारों का लोचन कोरों तक
पावस की प्रीति क्षणिक सीमित
बादल से लेकर भँवरों तक
मधु-ऋतु में हृदय लुटाऊँ तो,
कलियों का प्यार कसम भर का ।
मैं प्यासा भृंग जनम भर का ।।

महफिल में नजरों की चोरी
पनघट का ढंग सीनाजोरी
गलियों में शीश झुकाऊँ तो,
यह दो घूँटों की कमजोरी
ठुमरी ठुमके या गजल छिड़े,
कोठे का प्यार रकम भर का ।
मैं प्यासा भृंग जनम भर का ।।

जाहिर में प्रीति भटकती है
परदे की प्रीति खटकती है
नयनों में रूप बसाओ तो
नियमों पर बात अटकती है
नियमों का आँचल पकड़ूँ तो,
घूँघट का प्यार शरम भर का ।
मैं प्यासा भृंग जनम भर का ।।

जीवन से है आदर्श बड़ा
पर दुनिया में अपकर्ष बड़ा
दो दिन जीने के लिए यहाँ
करना पड़ता संघर्ष बड़ा
संन्यासी बनकर विचरूँ तो
संतों का प्यार चिलम भर का ।

मैं प्यासा भृंग जनम भर का ।।

महेंद्र भटनागर की कविताएँ

(1) यथार्थ
.
राह का
नहीं है अंत
चलते रहेंगे हम!
.
दूर तक फैला
अँधेरा
नहीं होगा ज़रा भी कम!
.
टिमटिमाते दीप-से
अहर्निश
जलते रहेंगे हम!
.
साँसें मिली हैं
मात्र गिनती की
अचानक एक दिन
धड़कन हृदय की जायगी थम!
समझते-बूझते सब
मृत्यु को छलते रहेंगे हम!
.
हर चरण पर
मंज़िलें होती कहाँ हैं?
ज़िन्दगी में
कंकड़ों के ढेर हैं
मोती कहाँ हैं?


   
(2) लमहा

एक लमहा
सिर्फ़ एक लमहा
एकाएक छीन लेता है
ज़िन्दगी!
हाँ, फ़क़त एक लमहा।
हर लमहा
अपना गूढ़ अर्थ रखता है,
अपना एक मुकम्मिल इतिहास
सिरजता है,
बार - बार बजता है।
.
इसलिए ज़रूरी है —
हर लमहे को भरपूर जियो,
जब-तक
कर दे न तुम्हारी सत्ता को
चूर - चूर वह।
.
हर लमहा
ख़ामोश फिसलता है
एक-सी नपी रफ़्तार से
अनगिनत हादसों को
अंकित करता हुआ,
अपने महत्त्व को घोषित करता हुआ!


     
(3) निरन्तरता 

हो विरत ...
एकान्त में,
जब शान्त मन से
भुक्त जीवन का
सहज करने विचारण —
झाँकता हूँ
आत्मगत
अपने विलुप्त अतीत में —
.
चित्रावली धुँधली
उभरती है विशृंखल ... भंग-क्रम
संगत-असंगत
तारतम्य-विहीन!
.
औचक फिर
स्वतः मुड़
लौट आता हूँ
उपस्थित काल में!
जीवन जगत जंजाल में!


      
(4) नहीं

लाखों लोगों के बीच
अपरिचित अजनबी
भला,
कोई कैसे रहे!
उमड़ती भीड़ में
अकेलेपन का दंश
भला,
कोई कैसे सहे!
.
असंख्य आवाज़ों के
शोर में
किसी से अपनी बात
भला,
कोई कैसे कहे!


      
(5) अपेक्षा

कोई तो हमें चाहे
गाहे-ब-गाहे!
.
निपट सूनी
अकेली ज़िन्दगी में,
गहरे कूप में बरबस
ढकेली ज़िन्दगी में,
निष्ठुर घात-वार-प्रहार
झेली ज़िन्दगी में,
कोई तो हमें चाहे,
सराहे!
किसी की तो मिले
शुभकामना
सद्भावना!
अभिशाप झुलसे लोक में
सर्वत्र छाये शोक में
हमदर्द हो
कोई
कभी तो!
.
तीव्र विद्युन्मय
दमित वातावरण में
बेतहाशा गूँजती जब
मर्मवेधी
चीख-आह-कराह,
अतिदाह में जलती
विध्वंसित ज़िन्दगी
आबद्व कारागाह!
.
ऐसे तबाही के क्षणों में
चाह जगती है कि
कोई तो हमें चाहे
भले,
गाहे-ब-गाहे!


     
(6) चिर-वंचित

जीवन - भर
रहा अकेला,
अनदेखा -
सतत उपेक्षित
घोर तिरस्कृत!
.
जीवन - भर
अपने बलबूते
झंझावातों का रेला
झेला !
जीवन - भर
जस-का-तस
ठहरा रहा झमेला !
जीवन - भर
असह्य दुख - दर्द सहा,
नहीं किसी से
भूल
शब्द एक कहा!
अभिशापों तापों
दहा - दहा!
.
रिसते घावों को
सहलाने वाला
कोई नहीं मिला -
पल - भर
नहीं थमी
सर - सर
वृष्टि - शिला!
.
एकाकी
फाँकी धूल
अभावों में -
घर में :
नगरों-गाँवों में!
यहाँ - वहाँ
जानें कहाँ - कहाँ!


     
(7) जीवन्त

दर्द समेटे बैठा हूँ!
रे, कितना-कितना
दुःख समेटे बैठा हूँ!
बरसों-बरसों का दुख-दर्द
समेटे बैठा हूँ!
.
रातों-रातों जागा,
दिन-दिन भर जागा,
सारे जीवन जागा!
तन पर भूरी-भूरी गर्द
लपेटे बैठा हूँ!
.
दलदल-दलदल
पाँव धँसे हैं,
गर्दन पर, टख़नों पर
नाग कसे हैं,
काले-काले ज़हरीले
नाग कसे हैं!
.
शैया पर
आग बिछाए बैठा हूँ!
धायँ-धायँ!                            
दहकाए बैठा हूँ!


      
(8) अतिचार

अर्थहीन हो जाता है
सहसा
चिर-संबंधों का विश्वास -
नहीं, जन्म-जन्मान्तर का विश्वास!
अरे, क्षण-भर में
मिट जाता है
वर्षों-वर्षों का होता घनीभूत
अपनेपन का अहसास!
.
ताश के पत्तों जैसा
बाँध टूटता है जब
मर्यादा का,
स्वनिर्मित सीमाओं को
आवेष्टित करते विद्युत-प्रवाह-युक्त तार
तब बन जाते हैं
निर्जीव अचानक!
लुप्त हो जाती हैं सीमाएँ,
छलाँग भर-भर फाँद जाते हैं
स्थिर पैर,
डगमगाते काँपते हुए
स्थिर पैर!
भंग हो जाती है
शुद्ध उपासना
कठिन सिद्ध साधना!
धर्म-विहित कर्म
खोखले हो जाते हैं,
तथाकथित सत्य प्रतिज्ञाएँ
झुठलाती हैं।
बेमानी हो जाते हैं
वचन-वायदे!
और —
प्यार बन जाता है
निपट स्वार्थ का समानार्थक!
अभिप्राय बदल लेती हैं
व्याख्याएँ
पाप-पुण्य की,
छल -
आत्माओं के मिलाप का
नग्न सत्य में / यथार्थ रूप में
उतर आता है!
संयम के लौह-स्तम्भ
टूट ढह जाते हैं,
विवेक के शहतीर स्थान-च्युत हो
तिनके की तरह
डूब बह जाते हैं।
जब भूकम्प वासना का
‘तीव्रानुराग’ का
आमूल थरथरा देता है शरीर को,
हिल जाती हैं मन की
हर पुख़्ता-पुख़्ता चूल!
आदमी
अपने अतीत को, वर्तमान को, भविष्य को
जाता है भूल!
.

Contact :
DR. MAHENDRA BHATNAGAR,
110 BALWANT NAGAR, GANDHI ROAD, GWALIOR — 474 002 [M.P.]
Phone :
M-8109730048 / 0751-4092908
E-Mail :
drmahendra02@gmail.com

Monday 26 December 2016

विजय पुष्पम पाठक की कविता



सदियों से यही होता आया था
चुप रहकर सुनती रही थी
शिकायतें, लान्छनाएँ  
बोलने की अनुमति
न ही अवसर दिया गया
आदत ही छूट गयी प्रतिवाद की
अपना पक्ष रखने की
घर की चारदीवारी
कब बन गयी नियति
आसमान आँगन भर में सिमट गया
तीज-त्यौहार आते रहे
शादी-ब्याह देते रहे
गीतों में अपनी व्यथा व्यक्त करने का अवसर
घिसे बिछुए चित्रित करते रहे
पावों के लगते चक्कर
कालिख ने भर दी हथेलियों की लकीर कोई पंडित भी बाँच नहीं सकता अब उनका लेखा
जन्मकुण्डली एक बार मिलाकर
फिर दुबारा देखी भी नहीं गयी
सुना है इन दिनों
वो कुछ बिगड़ सी गयी गई है
बहुत जुबान चलने लगी है उसकी
और कभी-कभी उठे हुए हाथ को
रोकने के लिए

उठा देती है अपने हाथ भी 

कहानी - बिंदा

-   महादेवी वर्मा

भीत-सी आँखों वाली उस दुर्बल, छोटी और अपने-आप ही सिमटी-सी बालिका पर दृष्टि डालकर मैंने सामने बैठे सज्जन को, उनका भरा हुआ प्रवेशपत्र लौटाते हुए कहा - 'आपने आयु ठीक नहीं भरी है। ठीक कर दीजिए, नहीं तो पीछे कठिनाई पड़ेगी।' 'नहीं, यह तो गत आषाढ़ में चौदह की हो चुकी', सुनकर मैंने कुछ विस्मित भाव से अपनी उस भावी विद्यार्थिनी को अच्छी तरह देखा, जो नौ वर्षीय बालिका की सरल चंचलता से शून्य थी और चौदह वर्षीय किशोरी के सलज्ज उत्साह से अपरिचित।

उसकी माता के संबंध में मेरी जिज्ञासा स्वगत न रहकर स्पष्ट प्रश्न ही बन गई होगी, क्योंकि दूसरी ओर से कुछ कुंठित उत्तर मिला - 'मेरी दूसरी पत्नी है, और आप तो जानती ही होंगी...' और उनके वाक्य को अधसुना ही छोड़कर मेरा मन स्मृतियों की चित्रशाला में दो युगों से अधिक समय की भूल के नीचे दबे बिंदा या विंध्येश्वरी के धुँधले चित्र पर उँगली रखकर कहने लगा - ज्ञात है, अवश्य ज्ञात है।

बिंदा मेरी उस समय की बाल्यसखी थी, जब मैंने जीवन और मृत्यु का अमिट अंतर जान नहीं पाया था। अपने नाना और दादी के स्वर्ग-गमन की चर्चा सुनकर मैं बहुत गंभीर मुख और आश्वस्त भाव से घर भर को सूचना दे चुकी थी कि जब मेरा सिर कपड़े रखने की आल्मारी को छूने लगेगा, तब मैं निश्चय ही एक बार उनको देखने जाऊँगी। न मेरे इस पुण्य संकल्प का विरोध करने की किसी को इच्छा हुई और न मैंने एक बार मर कर कभी न लौट सकने का नियम जाना। ऐसी दशा में, छोटे-छोटे असमर्थ बच्चों को छोड़कर मर जाने वाली माँ की कल्पना मेरी बुद्धि में कहाँ ठहरती। मेरा संसार का अनुभव भी बहुत संक्षिप्त-सा था। अज्ञानावस्था से मेरा साथ देने वाली सफेद कुत्ती-सीढ़ियों के नीचे वाली अँधेरी कोठरी में आँख मूँदे पड़े रहने वाले बच्चों की इतनी सतर्क पहरेदार हो उठती थी कि उसका गुर्राना मेरी सारी ममता-भरी मैत्री पर पानी फेर देता था। भूरी पूसी भी अपने चूहे जैसे निःसहाय बच्चों को तीखे पैने दाँतों में ऐसी कोमलता से दबाकर कभी लाती, कभी ले जाती थी कि उनके कहीं एक दाँत भी न चुभ पाता था। ऊपर की छत के कोने पर कबूतरों का और बड़ी तस्वीर के पीछे गौरैया का जो भी घोंसला था, उसमें खुली हुई छोटी-छोटी चोचों और उनमें सावधानी से भरे जाते दोनों और कीड़े-मकोड़ों को भी मैं अनेक बार देख चुकी थी। बछिया को हटाते हुए ही रँभा-रँभा कर घर भर को यह दुखद समाचार सुनाने वाली अपनी श्यामा गाय की व्याकुलता भी मुझसे छिपी न थी। एक बच्चे को कंधे से चिपकाए और एक उँगली पकड़े हुए जो भिखरिन द्वार-द्वार फिरती थी, वह भी तो बच्चों के लिए ही कुछ माँगती रहती थी। अतः मैंने निश्चित रूप से समझ लिया था कि संसार का सारा कारबार बच्चों को खिलाने-पिलाने, सुलाने आदि के लिए ही हो रहा है और इस महत्वपूर्ण कर्तव्य में भूल न होने देने का काम माँ नामधारी जीवों को सौंपा गया है।

और बिंदा के भी तो माँ थी जिन्हें हम पंडिताइन चाची और बिंदा 'नई अम्मा' कहती थी। वे अपनी गोरी, मोटी देह को रंगीन साड़ी से सजे-कसे, चारपाई पर बैठ कर फूले गाल और चिपटी-सी नाक के दोनों ओर नीले काँच के बटन सी चमकती हुई आँखों से युक्त मोहन को तेल मलती रहती थी। उनकी विशेष कारीगरी से सँवारी पाटियों के बीच में लाल स्याही की मोटी लकीर-सा सिंदूर उनींदी-सी आँखों में काले डोरे के समान लगने वाला काजल, चमकीले कर्णफूल, गले की माला, नगदार रंग-बिरंगी चूड़ियाँ और घुँघरूदार बिछुए मुझे बहुत भाते थे, क्योंकि यह सब अलंकार उन्हें गुड़िया की समानता दे देते थे।

यह सब तो ठीक था; पर उनका व्यवहार विचित्र-सा जान पड़ता था। सर्दी के दिनों में जब हमें धूप निकलने पर जगाया जाता था, गर्म पानी से हाथ मुँह धुलाकर मोजे, जूते और ऊनी कपड़ों से सजाया जाता था और मना-मनाकर गुनगुना दूध पिलाया जाता था, तब पड़ोस के घर में पंडिताइन चाची का स्वर उच्च से उच्चतर होता रहता था। यदि उस गर्जन-तर्जन का कोई अर्थ समझ में न आता, तो मैं उसे श्याम के रँभाने के समान स्नेह का प्रदर्शन भी समझ सकती थी; परंतु उसकी शब्दावली परिचित होने के कारण ही कुछ उलझन पैदा करने वाली थी। 'उठती है या आऊँ', 'बैल के-से दीदे क्या निकाल रही है', मोहन का दूध कब गर्म होगा', 'अभागी मरती भी नहीं', आदि वाक्यों में जो कठोरता की धारा बहती रहती थी, उसे मेरा अबोध मन भी जान ही लेता था।

कभी-कभी जब मैं ऊपर की छत पर जाकर उस घर की कथा समझने का प्रयास करती, तब मुझे मैली धोती लपेटे हुए बिंदा ही आँगन से चौके तक फिरकनी-सी नाचती दिखाई देती। उसका कभी झाड़ू देना, कभी आग जलाना, कभी आँगन के नल से कलसी में पानी लाना, कभी नई अम्मा को दूध का कटोरा देने जाना, मुझे बाजीगर के तमाशा जैसे लगता था; क्योंकि मेरे लिए तो वे सब कार्य असंभव-से थे। पर जब उस विस्मित कर देने वाले कौतुक की उपेक्षा कर पंडिताइन चाची का कठोर स्वर गूँजने लगता, जिसमें कभी-कभी पंडित जी की घुड़की का पुट भी रहता था, तब न जाने किस दुख की छाया मुझे घेरने लगती थी। जिसकी सुशीलता का उदाहरण देकर मेरे नटखटपन को रोका जाता था, वहीं बिंदा घर में चुपके-चुपके कौन-सा नटखटपन करती रहती है, इसे बहुत प्रयत्न करके भी मैं न समझ पाती थी। मैं एक भी काम नहीं करती थी और रात-दिन ऊधम मचाती रहती; पर मुझे तो माँ ने न मर जाने की आज्ञा दी और न आँखें निकाल लेने का भय दिखाया। एक बार मैंने पूछा भी - 'क्या पंडिताइन चाची तुमरी तरह नहीं है?' माँ ने मेरी बात का अर्थ कितना समझा यह तो पता नहीं, उनके संक्षिप्त 'हैं' से न बिंदा की समस्या का समाधान हो सका और न मेरी उलझन सुलझ पाई।

बिंदा मुझसे कुछ बड़ी ही रही होगी; परंतु उसका नाटापन देखकर ऐसा लगता था, मानों किसी ने ऊपर से दबाकर उसे कुछ छोटा कर दिया हो। दो पैसों में आने वाली खँजड़ी के ऊपर चढ़ी हुई झिल्ली के समान पतले चर्म से मढ़े और भीतर की हरी-हरी नसों की झलक देने वाले उसके दुबले हाथ-पैर न जाने किस अज्ञात भय से अवसन्न रहते थे। कहीं से कुछ आहट होते ही उसका विचित्र रूप से चौंक पड़ना और पंडिताइन चाची का स्वर कान में पड़ते ही उसके सारे शरीर का थरथरा उठना, मेरे विस्मय को बढ़ा ही नहीं देता था, प्रत्युत उसे भय में बदल देता था। और बिंदा की आँखें तो मुझे पिंजड़े में बंद चिड़िया की याद दिलाती थीं।

एक बार जब दो-तीन करके तारे गिनते-गिनते उसने एक चमकीले तारे की ओर उँगली उठाकर कहा - 'वह रही मेरी अम्मा', तब तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। क्या सबकी एक अम्मा तारों में होती है ओर एक घर में? पूछने पर बिंदा ने अपने ज्ञान-कोष में से कुछ कण मुझे दिए और तब मैंने समझा कि जिस अम्मा को ईश्वर बुला लेता है, वह तारा बनकर ऊपर से बच्चों को देखती रहती है और जो बहुत सजधज से घर में आती है, वह बिंदा की नई अम्मा जैसी होती है। मेरी बुद्धि सहज ही पराजय स्वीकार करना नहीं जानती, इसी से मैंने सोचकर कहा - 'तुम नई अम्मा को पुरानी अम्मा क्यों नहीं कहती, फिर वे न नई रहेंगी और न डाँटेंगी।'

बिंदा को मेरा उपाय कुछ जँचा नहीं, क्योंकि वह तो अपनी पुरानी अम्मा को खुली पालकी में लेटकर जाते और नई को बंद पालकी में बैठकर आते देख चुकी थी, अतः किसी को भी पदच्युत करना उसके लिए कठिन था।

पर उसकी कथा से मेरा मन तो सचमुच आकुल हो उठा, अतः उसी रात को मैंने माँ से बहुत अनुनयपूर्वक कहा - 'तुम कभी तारा न बनना, चाहे भगवान कितना ही चमकीला तारा बनावें।' माँ बेचारी मेरी विचित्र मुद्रा पर विस्मित होकर कुछ बोल भी न पाई थी कि मैंने अकुंठित भाव से अपना आशय प्रकट कर दिया - 'नहीं तो, पंडिताइन चाची जैसी नई अम्मा पालकी में बैठकर आ जाएगी और फिर मेरा दूध, बिस्कुट, जलेबी सब बंद हो जाएगी - और मुझे बिंदा बनना पड़ेगा।' माँ का उत्तर तो मुझे स्मरण नहीं, पर इतना याद है कि उस रात उसकी धोती का छोर मुट्ठी में दबाकर ही मैं सो पाई थी।

बिंदा के अपराध तो मेरे लिए अज्ञात थे; पर पंडिताइन चाची के न्यायालय से मिलने वाले दंड के सब रूपों से मैं परिचित हो चुकी थी। गर्मी की दोपहर में मैंने बिंदा को आँगन की जलती धरती पर बार-बार पैर उठाते ओर रखते हुए घंटों खड़े देखा था, चौके के खंभे से दिन-दिन भर बँधा पाया था और भूश से मुरझाए मुख के साथ पहरों नई अम्मा ओर खटोले में सोते मोहन पर पंखा झलते देखा था। उसे अपराध का ही नहीं, अपराध के अभाव का भी दंड सहना पड़ता था, इसी से पंडित जी की थाली में पंडिताइन चाची का ही काला मोटा और घुँघराला बाल निकलने पर भी दंड बिंदा को मिला। उसके छोटे-छोटे हाथों से धुल न सकने वाले, उलझे, तेलहीन बाल भी अपने स्वाभाविक भूरेपन ओर कोमलता के कारण मुझे बड़े अच्छे लगते थे। जब पंडिताइन चाची की कैंची ने उन्हें कूड़े के ढेर पर, बिखरा कर उनके स्थान को बिल्ली की काली धारियों जैसी रेखाओं से भर दिया तो मुझे रुलाई आने लगी; पर बिंदा ऐसे बैठी रही, मानों सिर और बाल दोनों नई अम्मा के ही हों।

और एक दिन याद आता है। चूल्हे पर चढ़ाया दूध उफना जा रहा था। बिंदा ने नन्हें-नन्हें हाथों से दूध की पतीली उतारी अवश्य; पर वह उसकी उँगलियों से छूट कर गिर पड़ी। खौलते दूध से जले पैरों के साथ दरवाजे पर खड़ी बिंदा का रोना देख मैं तो हतबुद्धि-सी हो रही। पंडिताइन चाची से कह कर वह दवा क्यों नहीं लगवा लेती, यह समझाना मेरे लिए कठिन था। उस पर जब बिंदा मेरा हाथ अपने जोर से धड़कते हुए हृदय से लगाकर कहीं छिपा देने की आवश्यकता बताने लगी, तब तो मेरे लिए सब कुछ रहस्यमय हो उठा।

उसे मैं अपने घर में खींच लाई अवश्य; पर न ऊपर के खंड में माँ के पास ले जा सकी और न छिपाने का स्थान खोज सकी। इतने में दीवारें लाँघ कर आने वाले, पंडिताइन चाची के उग्र स्वर ने भय से हमारी दिशाएँ रूँध दीं, इसी से हड़बडाहट में हम दोनों उस कोठरी में जा घुसीं, जिसमें गाय के लिए घास भरी जाती थी। मुझे तो घास की पत्तियाँ भी चुभ रही थीं, कोठरी का अंधकार भी कष्ट दे रहा था; पर बिंदा अपने जले पैरों को घास में छिपाए और दोनों ठंडे हाथों से मेरा हाथ दबाए ऐसे बैठी थी, मानों घास का चुभता हुआ ढेर रेशमी बिछोना बन गया हो।

मैं तो शायद सो गई थी; क्योंकि जब घास निकालने के लिए आया हुआ गोपी इस अभूतपूर्व दृश्य की घोषणा करने के लिए कोलाहल मचाने लगा, तब मैंने आँखें मलते हुए पूछा, 'क्या सबेरा हो गया?'

माँ ने बिंदा के पैरों पर तिल का तेल और चूने का पानी लगाकर जब अपने विशेष संदेशवाहक के साथ उसे घर भिजवा दिया, तब उसकी क्या दशा हुई, यह बताना कठिन है; पर इतना तो मैं जानती हूँ कि पंडिताइन चाची के न्याय विधान में न क्षमता का स्थान था, न अपील का अधिकार।

फिर कुछ दिनों तक मैंने बिंदा को घर-आँगन में काम करते नहीं देखा। उसके घर जाने से माँ ने मुझे रोक दिया था; पर वे प्रायः कुछ अंगूर और सेब लेकर वहाँ हो आती थीं। बहुत खुशामद करने पर रुकिया ने बताया कि उस घर में महारानी आई हैं। 'क्या वे मुझसे नहीं मिल सकती' पूछने पर वह मुँह में कपड़ा ठूँस कर हँसी रोकने लगी। जब मेरे मन का कोई समाधान न हो सका, तब मैं एक दिन दोपहर को सभी की आँख बचाकर बिंदा के घर पहुँची। नीचे के सुनसान खंड में बिंदा अकेली एक खाट पर पड़ी थी। आँखें गड्ढे में धँस गई थीं, मुख दानों से भर कर न जाने कैसा हो गया था और मैली-सी सादर के नीचे छिपा शरीर बिछौने से भिन्न ही नहीं जान पड़ता था। डाक्टर, दवा की शीशियाँ, सिर पर हाथ फेरती हुई माँ और बिछौने के चारों चक्कर काटते हुए बाबूजी के बिना भी बीमारी का अस्तित्व है, यह मैं नहीं जानती थी, इसी से उस अकेली बिंदा के पास खड़ी होकर मैं चकित-सी चारों ओर देखती रह गई। बिंदा ने ही कुछ संकेत और कुछ अस्पष्ट शब्दों में बताया कि नई अम्मा मोहन के साथ ऊपर खंड में रहती हैं, शायद चेचक के डर से। सबेरे-शाम बरौनी आकर उसका काम कर जाती है।

फिर तो बिंदा को दुखना संभव न हो सका; क्योंकि मेरे इस आज्ञा उल्लंघन से माँ बहुत चिंतित हो उठी थीं।

एक दिन सबेरे ही रुकिया ने उनसे न जाने क्या कहा कि वे रामायण बंद कर बार-बार आँखें पोंछती हुई बिंदा के घर चल दीं। जाते-जाते वे मुझे बाहर न निकलने का आदेश देना नहीं भूली थीं, इसी से इधर-उधर से झाँककर देखना आवश्यक हो गया। रुकिया मेरे लिए त्रिकालदर्शी से कम न थी; परंतु वह विशेष अनुनय-विनय के बिना कुछ बताती ही नहीं थी और उससे अनुनय-विनय करना मेरे आत्म-सम्मान के विरुद्ध पड़ता था। अतः खिड़की से झाँककर मैं बिंदा के दरवाजे पर जमा हुए आदमियों के अतिरिक्त और कुछ न देख सकी और इस प्रकार की भीड़ से विवाह और बारात का जो संबंध है, उसे मैं जानती थी। तब क्या उस घर में विवाह हो रहा है, और हो रहा है तो किसका? आदि प्रश्न मेरी बुद्धि की परीक्षा लेने लगे। पंडित जी का विवाह तो तब होगा, जब दूसरी पंडिताइन चाची भी मर कर तारा बन जाएँगी और बैठ न सकने वाले मोहन का विवाह संभव नहीं, यही सोच-विचार कर मैं इस परिणाम तक पहुँची कि बिंदा का विवाह हो रहा है ओर उसने मुझे बुलाया तक नहीं। इस अचिंत्य अपमान से आहत मेरा मन सब गुड़ियों को साक्षी बनाकर बिंदा को किसी भी शुभ कार्य में न बुलाने की प्रतिज्ञा करने लगा।

कई दिन तक बिंदा के घर झाँक-झाँककर जब मैंने माँ से उसके ससुराल से लौटने के संबंध में प्रश्न किया, तब पता चला कि वह तो अपनी आकाश-वासिनी अम्मा के पास चली गई। उस दिन से मैं प्रायः चमकीले तारे के आस-पास फैले छोटे तारों में बिंदा को ढूँढ़ती रहती; पर इतनी दूर से पहचानना क्या संभव था?

तब से कितना समय बीत चुका है, पर बिंदा ओर उसकी नई अम्मा की कहानी शेष नहीं हुई। कभी हो सकेगी या नहीं, इसे कौन बता सकता है?

केदार के मुहल्ले में स्थित केदारसभगार में केदार सम्मान

हमारी पीढ़ी में सबसे अधिक लम्बी कविताएँ सुधीर सक्सेना ने लिखीं - स्वप्निल श्रीवास्तव  सुधीर सक्सेना का गद्य-पद्य उनके अनुभव की व्यापकता को व्...