Tuesday 30 December 2014

स्मृति- यशस्वी साहित्यकार अनंतमूर्ति

          भारतीय साहित्‍य के महान कथाकार यू आर अनंतमूर्ति बेशक दैहिक रूप से हमारे बीच न रहे हों, लेकिन एक यशस्‍वी रचनाकार के रूप में उनकी उपस्थिति साहित्‍य जगत में सदैव अनुभव की जाती रहेगी। वे कन्‍नड़ भाषा के उन युगान्‍तरकारी रचनाकारों में थे, जिन्‍होंने भारतीय चिन्‍तन धारा को नया उन्‍मेष दिया। 21 दिसंबर, 1932 को कर्नाटक के तीर्थहल्‍ली तालुक के छोटे-से कस्‍बे मेलिगे में जन्‍मे अनंतमूर्ति ने अपनी आठ दशक की जीवन-यात्रा में भारतीय साहित्‍य को अमूल्‍य योगदान दिया। साहित्‍य की विभिन्‍न विधाओं में उनकी 20 से अधिक कृतियाँ प्रकाशित हैं, जिनमें 'संस्‍कार', 'भारतीपुर', 'अवस्‍थे' और 'भव' जैसे प्रसिद्ध उपन्‍यासों के अलावा 5 कहानी संग्रह, 3 काव्‍य-संग्रह, एक नाटक और 5 समीक्षा ग्रंथ अपना विशिष्‍ट स्‍थान रखते हैं।

          प्रो अनंतमूर्ति के बारे यह सर्वविदित है कि उनकी पूरी सृजन-यात्रा सामाजिक रूढ़ियों और गैर-बराबरी के विरुद्ध एक विद्रोही मानवतावादी लेखक की रचनात्‍मक यात्रा रही है और अपने लोकतांत्रिक विचारों और मानवीय सिद्धान्‍तों पर कायम रहने वाले एक बेबाक व्‍यक्ति के रूप में मुखर छवि उन्‍हें भारतीय रचनाकारों में अलग पहचान देती है। अपने लेखन में वे लोहिया की समाजवादी विचारधारा से बेहद प्रभावित रहे, जिसमें जाति और लिंग के आधार पर होने वाले विभाजन की तीखी आलोचना मुखर है, लेकिन इसी के समानान्‍तर उनका लेखन सार्त्र और लॉरेंस के सौन्‍दर्यबोध सहित अन्‍य दर्शनों से भी बहुत से तत्‍व ग्रहण करता रहा है।

          सन् 1965 में प्रकाशित प्रो यू आर अनंतमूर्ति का सर्वाधिक चर्चित उपन्‍यास 'संस्‍कार' अनेकार्थी जटिल रूपकों से परिपूर्ण माना जाता है, जिसमें लेखक ब्राह्मणवादी मूल्‍यों और सामाजिक व्‍यवस्‍था की भर्त्‍सना करता है - उपन्‍यास की कथा एक ऐसे नेक व्‍यक्ति प्राणेशाचार्य के विद्रोह और जीवन-संघर्ष को सामने लाती है, जो उसी सामाजिक व्‍यवस्‍था की उपज है। इसी तरह उनका चौथा उपन्‍यास 'भव' (1994) विचार के स्‍तर पर उनके पिछले कथा-लेखन से तो अलग है ही, उनकी रचना-यात्रा में बदलाव का नया संकेत भी देता है। इस उपन्‍यास के माध्‍यम से लेखक ने सामाजिक रूढ़ियों से टकराव के साथ व्‍यक्ति के मनोलोक की बारीकियों को भी बहुत खूबसूरती से उजागर किया है।  

          प्रो अनंतमूर्ति को अपने रचनात्‍मक योगदान के लिए राष्‍ट्रीय और अन्‍तर्राष्‍ट्रीय स्‍तर के अनेक पुरस्‍कार और सम्‍मान प्राप्‍त हुए, जिनमें भारतीय ज्ञानपीठ सम्‍मान, साहित्‍य अकादमी सम्‍मान और अनेक विश्‍व-स्‍तरीय सम्‍मान शामिल हैं। उनकी कृतियों के भारतीय भाषाओं में तो अनुवाद हुए ही, फ्रैंच, जर्मन, बुल्‍गेरियन, अंग्रेजी आदि अनेक भाषाओं में अनुवाद उपलब्‍ध हैं। अपने साहित्यिक अवदान के साथ वे साहित्‍य अकादमी और नेशनल बुक ट्रस्‍ट के अध्‍यक्ष रहे। साथ ही, वे भारतीय फिल्‍म और टीवी प्रशिक्षण संस्‍थान, पुणे के भी चेयरमैन रहे। उनकी कृतियों पर दूरदर्शन और अन्‍य माध्‍यमों पर फिल्‍म निर्माण हुआ, वे दूरदर्शन की कालजयी कथा-श्रृंखला में कोर कमेटी के माननीय सदस्‍य रहे। ऐसे महान् रचनाकार का अवसान निश्‍चय ही एक गहरा अवसाद और खालीपन छोड़ गया है। उनकी पावन स्‍मृति को प्रणाम।  

प्रस्तुति- राहुल देव
rahuldev.bly@gmail.com

Monday 29 December 2014

यादों से- संजय मिश्र ‘हबीब’


स्व. संजय मिश्र 'हबीब'

कह मुकरी  
गोदी में सिर रख सो जाऊँ

कभी रात भर संग बतियाऊँ
रस्ता मेरा देखे दिन भर 
क्या सखि साजन? ना सखि बिस्तर
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ग़ज़ल

फिर मिलेंगे अगर खुदा लाया


क्या पता अच्छा या बुरा लाया।
चैन दे, तिश्नगी उठा लाया।

जो कहो धोखा तो यही कह लो,
अश्क अजानिब के मैं चुरा लाया।

क्यूँ फिजायें धुआँ-धुआँ सी हैं,
याँ शरर कौन है छुपा लाया।

बाग में या के हों बियाबाँ में,
गुल हों महफूज ये दुआ लाया।

लूटा वादा उजालों का करके,
ये बता रोशनी कुजा लाया?

मेरा साया मुझी से कहता है,
अक्स ये कैसा बदनुमा लाया।  

लो सलाम आखिरी कजा लायी,
फिर मिलेंगे अगर खुदा लाया।

             हो मेहरबाँ 'हबीब' उसुर मुझपे,                       
इम्तहाँ रोज ही जुदा लाया।
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लघुकथाएँ
चाबी

राजकुमार तोते को दबोच लाया और सबके सामने उसकी गर्दन मरोड़ दी. तोते के साथ राक्षस भी मर गयाइस विश्वास के साथ प्रजा जय-जयकार करती हुई सहर्ष अपने-अपने कामों में लग गई।

उधर दरबार में ठहाकों का दौर तारीं था. हंसी के बीच एक कद्दावर, आत्मविश्वास भरी गंभीर आवाज़ गूँजी. युवराज! लोगों को पता ही नहीं चल पाया कि हमने अपनी जानतोते में से निकालकर अन्यत्र छुपा दी है.  प्रजा की प्रतिक्रिया से प्रतीत होता है कि आपकी युक्ति काम आ गई. राक्षस के मारे जाने के उत्साह और उत्सव के बीच प्रजा अब स्वयं अपने हाथों से सत्तारानीके कक्ष कि चाबी आपको सौंपकर जाएगी.

राजकुमार के होंठों के साथ ही पूरे दरबार में एक आशावादी मुस्कुराहट नृत्य करने लगी। 
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अध्यादेश 

शरीर पर बेदाग पोशाक, स्वच्छ जेकेट, सौम्य पगड़ी एवं चेहरे पर विवशता, झुंझलाहट, उदासी और आक्रोश के मिले जुले भाव लिए वे गाड़ी से उतरे. ससम्मान पुकारती अनेक आवाजों को अनसुना कर वे तेजी से समाधि स्थल की ओर बढ़ गए. फिर शायद कुछ सोच अचानक रुके, मुड़े और चेहरे पर स्थापित विभिन्न भावों की सत्ता के ऊपर मुस्कुराहट का आवरण डालने का लगभग सफल प्रयास करते हुए धीमे से बोले- मैं जानता हूँ, जो आप पूछना चाहते हैं. देखिए, आप सबको, देश को यह समझना चाहिए और समझना होगा कि गांधी जी के पदचिह्नों पर, उनके दिखाए, बताए, सुझाए रास्तों पर चलना ही हमारी प्रथम प्राथमिकता एवं प्रतिबद्धता है.कहकर वे मुड़े और तेजी से चलते हुये भीतर प्रवेश कर गए. शीघ्र ही वातावरण में गांधीजी के प्रिय भजन की स्वर लहरियाँ तैरने लगीं. वैष्णव जन तो....“ 

Sunday 28 December 2014

संगीता शर्मा की दो कविताएँ

          संगीता शर्मा ‘अधिकारी’

चाय की प्याली

चाय की प्याली का
होठों तक आते-आते रुक जाना
उड़ने देना भाप को
ऊँचा और ऊँचा
उस ऊँचाई के ठीक नीचे से
सबकी नज़रे बचा
प्याली का बट जाना
दो हिस्सों में
आज भी बहुत सताता है
आज भी बहुत याद आता है ।
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ग्लोबल वार्मिंग

बाहर-भीतर
भिन्न व्यवहार करना
गिरगिट की मानिंद
रंग बदलना
स्वयं का दंभ भरना
अपनी कुटिल हँसी में
सैकड़ों को निपटाना
तो कोई आपसे सीखे

यही विशेषण
आपको कुर्सी पर जमाए हुए है
किन्तु ‘सावधान‘
ग्लोबल वार्मिंग में
सब कुछ
पिघलने लगा है |

Saturday 27 December 2014

प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा की दो लघुकथाएँ

प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा 

बाल श्रम
कई प्रतिष्ठित समाजसेवी संगठनों में उच्च पदधारिका तथा सुविख्यात समाज सेविका निवेदिता आज भी बाल श्रम पर कई जगह ज़ोरदार भाषण देकर घर लौटीं. कई-कई कार्यक्रमों में भाग लेने के उपरान्त वह काफी थक चुकी थीं. पर्स और फाइल को मेज पर फेंकते हुए निढाल सोफे पर पसर गईं. झबरे बालों वाला प्यारा सा पप्पी तपाक से उनकी गोद में कूद गया.

"रमिया! पहले एक ग्लास पानी ला... फिर एक कप गर्म-गर्म चाय......" 

दस-बारह बरस की रमिया भागती हुई पानी लिए सामने चुपचाप खड़ी हो जाती है.

"ये बता री, आज पप्पी को टहलाया था?"


"माफ़ कर दो मेम साब, सारा दिन बर्तन माँजने, घर की सफाई और कपडे धोने में निकल गया इसलिए आज पप्पी को टहला नहीं पाई...."
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आइना 

नीलम, जब से तुम इस घर में ब्याह के आई तभी से घर-बाहर, टॉयलेट आदि की साफ-सफाई करती रही हो. अब ये सब कैसे होगा डॉक्टर ने तुम्हें शारीरिक श्रम हेतु मना किया है। क्यों न इस कार्य हेतु किसी को रख लिया जाए. 
नीलम ने सकुचाते हुए कहा, मुझे कोई आपत्ति नहीं पर आप तो महात्मा गाँधी के सच्चे अनुयायी हैं। 

अनुपमा सरकार की कविता



                अनुपमा सरकार

हाथों की लकीरों में


जाने क्या ढूँढती हूँ
हाथों की इन लकीरों में
शायद उलझे सपने, झूठी ख्वाहिशें
बेतरतीब ख्वाब, अनसुलझे सवाल और...
और क्या!

अरे! ढूँढने से कभी कुछ मिला है क्या?
ये लकीरें, तकदीरें तो
पलटती ही रहती हैं हर पल
मौसम की तरह
बस, जब जो मिले
वह काफी नहीं होता

है जीवन एक अनंत सफर
और हम अनथक पथिक
राहें समझते-समझते
मंज़िलें बदल जाती हैं

Sunday 21 December 2014

क्यों न तुझे ही

किरण सिंह

शब्द चुनकर छन्द में गढ़ 
उठे मन के भावना भर
सुन्दर सॄजन कर डालूँ
क्यों न तुझे ही विषय बना लूँ


कोरा कागज़ मन मेरा है
जहाँ तुम्हारा चित्र सजा है
तेरे प्रीत से चित्र रंगा लूँ
क्यों न तुझे ही विषय बना लूँ


नित्य भोर उठ प्रीति भैरवी
हाथ जोडकर करूँ पैरवी
रागिनियाँ संग राग मिला लूँ
क्यों न तुझे ही विषय बना लूँ


शाम सुनहरी सज रही है
ताल लय में बज रही है
तुझ संग गीतों को मैं गा लूँ
क्यों न तुझे ही विषय बना लूँ


रात चाँद और तारे प्रहरी
नयन देखते स्वप्न सुनहरी
कुछ पल तेरे संग बिता लूँ
क्यों न तुझे ही विषय बना लूँ


Sunday 14 December 2014

अभिनव अरुण को ‘’आगमन साहित्य सम्मान‘’

          आगमन वार्षिक सम्मान समारोह रविवार दिनांक 23 नवम्बर 14 को कैलाश हॉस्पिटल, नोएडा के प्रेक्षागृह  में आयोजित किया गया | कार्यक्रम की अध्यक्षता डॉ० केशरी लाल वर्मा (चेयरमैन, तकनीकी एवं वैज्ञानिक शब्दावली आयोग एवं निदेशक, केंद्रीय हिंदी निदेशालय, नई दिल्ली) ने की  तथा "काव्य-संध्या" सत्र की अध्यक्षता मशहूर शायर डॉ० गुलज़ार देहलवी एवं वरिष्ठ साहित्यकार प्रो० लल्लन प्रसाद ने की। मुख्य अतिथि के रूप में डॉ० मधुप मोह्टा (वरिष्ठ साहित्यकार एवं भारतीय विदेश सेवा) तथा विशिष्ट अतिथि के रूप में सर्वश्री लक्ष्मी शंकर बाजपेई (उपमहानिदेशक, आकाशवाणी, नई दिल्ली), डॉ० हरि सुमन विष्ट (सचिव, हिंदी अकादमी, दिल्ली), डॉ० रमा सिंह (वरिष्ठ गीतकार एवं कवयित्री) एवं आलोक यादव (क्षेत्रीय भविष्य निधि आयुक्त, बरेली) उपस्थित रहे। इस अवसर पर आकाशवाणी वाराणसी में वरिष्ठ उद्घोषक एवं युवा ग़ज़लकार अभिनव अरुण को साहित्य के क्षेत्र में योगदान के लिए ‘’आगमन साहित्य सम्मान २०१४‘’ प्रदान किया गया इस अवसर पर 4 पुस्तकों एवं 1 एल्बम का लोकार्पण भी  हुआ। देशभर से 20 से अधिक कवि-कवयित्रियों व साहित्यकारों को सम्मानित किया गया तथा 70 से अधिक रचनाकारों ने काव्यपाठ किया। कार्यक्रम का सञ्चालन लोकप्रिय गीतकार डॉ० अशोक मधुप, आकाशवाणी उदघोषिका सुश्री अल्पना सुहाषिनी एवं
हास्य व्यंग्य कवयित्री सुश्री बलजीत कौर ने किया। कार्यक्रम का संयोजन आगमन समूह के संस्थापक एवं संयोजक श्री पवन जैन एवं श्री एम० के० चोपड़ा द्वारा किया गया। श्री मनोज कामदेव ने सभी आए हुए अतिथियों, साहित्यकारों, कवियों एवं पत्रकारों का धन्यवाद ज्ञापन किया।
                                                                       -       
अभिनव अरुण

माँ


- राम दत्त मिश्र अनमोल

सपने में माँ मिलती है।
कली हृदय की खिलती है।।

करुणा की है वो मूरत,
आँसू देख पिघलती है।

सुखी रहे मेरा जीवन,
नित्य मनौती करती है।

बिठा के मुझको गोदी में,
सौ-सौ सपने बुनती है।

उसकी तो नाराजी भी,
आशीषों-सी फलती है।

नहीं किसी के दल में है,
नहीं किसी से जलती है।

भटक न जाऊँ कभी कहीं,
थाम के अँगुली चलती है।

दुख-तम हरने को  ‘अनमोल’,
दीप सरीखी जलती है।।

‘सारांश समय का’ लोकार्पण समारोह एवं काव्य गोष्ठी

जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, दिल्ली के अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन केंद्रमें 'शब्द व्यंजना' और 'सन्निधि संगोष्ठी' के संयुक्त तत्वाधान में 'सारांश समय का' कविता-संकलन का लोकार्पण समारोह एवं काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया.


कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रसून लतांत ने की, जबकि लक्ष्मी शंकर वाजपेयी मुख्य अतिथि एवं रमणिका गुप्ता, डॉ. धनंजय सिंह, अतुल प्रभाकर विशिष्ट अतिथि के रूप में कार्यक्रम में उपस्थित थे. कार्यक्रम के मुख्य वक्ता अरुण कुमार भगत थे तथा संचालन
महिमा श्री ने किया.
इस आयोजन में बड़ी संख्या में कवि, लेखक तथा साहित्य प्रेमी सम्मिलित हुए. कार्यक्रम दोपहर ढाई बजे से शाम सात बजे तक चला.
'सारांश समय का' कविता संकलन का संपादन बृजेश नीरज और अरुण अनंत ने किया है.  इस संकलन में अस्सी रचनाकारों की बेहतरीन कविताएँ सम्मिलित हैं जिसकी सराहना अतिथियों ने की. लक्ष्मी शंकर वाजपेयी ने कविताओं के चयन की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहा कि यह संकलन हिन्दी साहित्य के लिए शुभ संकेत देता है. इसमें कई मुक्कमल कविताएँ हैँ. उन्होंने संकलन में सम्मिलित कई कविताओं का सस्वर पाठ कर रचनाकारों को प्रोत्साहित किया. 
उन्होंने कहा कि १२५ करोड़ के देश में अगर ८० लाख लोग भी यदि कवि हो जाएँ तो समाज बेहतर हो जाएगा.  कविता अभी संकट में हैकई विधाएँ लुप्त हो रही है उन पर भी काम होना चाहिए. वाचिक परम्परा समाप्त हो रही है, पहले एक शेर, एक कविता भी हलचल मचा देती थी. बिना साधन के जहाँ बिजली भी नहीं थी उस गाँव में भी कविता पढ़ी जाती थी. आज शब्दों की चाट परोसी जाती है.  हिन्दी में मंच पर हल्के स्तर की कविताऐं कही जाती हैं. एक अलग ही तरह का गणित है. गम्भीर रचनाकारों ने मंच से दूरी बना ली है. साहित्य का विघटन हुआ है. साम्प्रदायिकता पैदा की गई है. इससे कविता को बड़ा नुकसान हुआ है. उर्दू में ये बंटवारा नहीं है, मंच से दूरी नहीं है. निदा फ़ाज़ली ग़ज़ल पढ़ने मस्कट भी जाते हैं.


मुख्य वक्ता अरुण कुमार भगत का कहना था कि कविता अणु से अनंत की यात्रा है. कविता की विशेषता और लिखने से पहले की रचनाकारों की संवेदनाओं के घनीभूत होने की आवश्यकता के बारे में उन्होंने विस्तार से चर्चा की. उन्होंने कहा कि कविता पाठक के सीधे ह्रदय तक पहुँचती है और हर पाठक अपनी तरह से उसकी अभिव्यंजना करता है. पाठक कविता के लिए तथ्य समाज से लेता है और स्वयं के साथ समाज को भी रचना के साथ जोड़ता है. कविता में जो असर और क्षमता है वह किसी अन्य विधा में नहीं है. कविता में जन समाज को आंदोलित करने की क्षमता है. स्वतंत्रता काल हो या आपातकाल कवियों ने अपनी लेखनी से समाज को झकझोरा भी और दिशा भी दी. समाज में व्याप्त संताप, पीड़ा, दुःख को कवियों ने बखूबी रेखांकित किया. उन्होंने कहा रचना सयास नहीं लिखी जाती है, ये उतरती है, माजिल होती है, प्रकट होती है. अपनी बात को विस्तार देते हुए उन्होंने कहा कि पिछले कुछ वर्षों से जन-जीवन के कृष्णपक्ष को ही बड़ी संख्या में रेखांकित करने की परम्परा चल पड़ी है. देश और समाज में भोग गया यथार्थ इन रचनाओं में है पर अगर रचना को कालजयी करना है तो जीवन के शुक्लपक्ष को भी रेखांकित करना होगा.

रमणिका गुप्ता ने अपनी बात कहते हुए कहा आज जन सरोकार का चलन है उसी विषय को माध्यम बनाकर लिखा जाना चाहिए. लोगों तक आपकी बात पहुँचेगी, लोगों के विचारों में परिवर्तन आएगा. उन्होंने कहा मैं आदिवासीयों, पीड़ित दलितों और स्त्रियों के बीच उनके समस्याओं के निवारण के लिए लम्बे समय से काम कर रही हूँ आप भी इन सरोकारों को लेकर लिखें.
आयोजन दो सत्रों में चला. लोकार्पण सत्र में डॉ धनजंय सिंह, अतुल कुमार, लतांत प्रसून व संग्रह के सम्पादक द्वय बृजेश नीरज और अरुन अनंत ने भी अपनी बात रखी.


लोकार्पण के बाद काव्य गोष्ठी में कवि और कवियत्रियों ने उत्साह के साथ अपनी प्रस्तुति दी. आयोजन की उपलब्धि रही कि हर विधा में रचना पढ़ी गयी. गीत, नवगीत, ग़ज़ल, घनाक्षरी, कुंडलिया, अतुकांतपद्य की सभी प्रचलित विधाओं की रचनाएँ सुनी और सुनायी गईं. कार्यक्रम के अंत में किरण आर्या ने धन्यवाद ज्ञापन किया.

                                                                   - महिमा श्री


लघु कथा- रक्षा बंधन

अलीशा माँ की उँगली पकड़े लगभग घिसटती-सी चली जा रही थी। उसकी नजरें सड़क के दोनों ओर दुल्हन-सी सजी मिठाई और राखी की दुकानों पर टिकी थीं। 
दोनों जब पुष्पा दीदी के घर पहुँचे तो वहाँ भी रक्षा बंधन के पर्व पर जश्न का माहौल था। 
पुष्पा दीदी की पौत्री अंशिका जब अपने भाई अंशु की कलाई में रक्षा सूत्र बाँध रही थी तब कोने में शांत बैठी अलीशा के दिल में उठ रहे भावों को अंशु ने पढ़ लिया। अंशिका जब रक्षा सूत्र बाँध चुकी तो अंशु ने थाली में से एक रक्षा सूत्र उठाया और अलीशा को थमाते हुए अपनी कलाई उसकी ओर बढ़ा दी। 
अलीशा सकपकाते हुए बोली, “मैं मुसलमान....” 

अंशु बोला, “तुम और कोई नहीं सिर्फ और सिर्फ मेरी बहन हो!
- प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा 

Friday 12 December 2014

हाइकु गीत

रक्त रंजित
हो रहे फिर फिर
हमारे गाँव।

हर तरफ
विद्वेष की लपटें
हवा है गर्म,

चल रहा है
हाथ में तलवार
लेकर धर्म,

बढ़ रहें हैं
अनवरत आगे
घृणा के पाँव।

भय जगाती
अपरचित ध्वनि
रोकती पथ,

डगमगाता
सहज जीवन का
सुखद रथ,

नहीं मिलती
दग्ध मन को कहीं
शीतल छाँव।
--- त्रिलोक सिंह ठकुरेला 

राहुल देव - परिचय



राहुल देव
जन्म- 20 मार्च 1988
माता- श्रीमती मंजू श्रीवास्तव
पिता- श्रीप्रकाश
शिक्षा- एम.ए. (अर्थशास्त्र), बी.एड.
प्रकाशित– एक कविता संग्रह, पत्र-पत्रिकाओं एवं अंतरजाल मंचों पर कवितायें/लेख/ कहानियां/ समीक्षाएं आदि|
शीघ्र प्रकाश्य- एक बाल उपन्यास एक कविता संग्रह तथा एक कहानी संग्रह|
सम्मान- अखिल भारतीय वैचारिक मंच, लखनऊ तथा हिंदी सभा, सीतापुर द्वारा पुरुस्कृत|
रूचि- साहित्य अध्ययन, लेखन, भ्रमण
सम्प्रति- उ.प्र. सरकार के एक विभाग में कार्यरत|
संपर्क सूत्र- 9/48 साहित्य सदन, कोतवाली मार्ग, महमूदाबाद (अवध), सीतापुर, उ.प्र. 261203
मो.– 09454112975
ईमेल- rahuldev.bly@gmail.com

त्याग और समर्पण ही सच्चा प्रेम है

एक स्त्री का जब जन्म होता है तभी से उसके लालन-पालन और संस्कारों में स्त्रीयोचित गुण डाले जाने लगते हैं| जैसे-जैसे वह बड़ी होती है उसके
अन्दर वे गुण विकसित होने लगते हैं| प्रेम, धैर्य, समर्पण, त्याग ये सभी भावनाएँ वह किसी के लिए संजोने लगती है और यूँ ही मन ही मन किसी अनजाने-अनदेखे राजकुमार के सपने देखने लगती है और उसी अनजाने से मन ही मन प्रेम
करने लगती है| किशोरावस्था का प्रेम यौवन तक परिपक्व हो जाता है, तभी दस्तक होती है दिल पर और घर में राजकुमार के स्वागत की तैयारी होने लगती है| गाजे-बाजे के साथ वह सपनों का राजकुमार आता है, उसे ब्याह कर ले जाता है जो वर्षों से उससे प्रेम कर रही थी, उसे लेकर अनेकों सपने बुन रही थी|
उसे लगता है कि वह जहाँ जा रही है किसी स्वर्ग से कम नही, अनेकों सुख-सुविधाएँ बाँहें पसारे उसके स्वागत को खड़े हैं| इसी झूठ को सच मानकर
वह एक सुखद भविष्य की कामना करती हुई अपने स्वर्ग में प्रवेश कर जाती है| कुछ दिन के दिखावे के बाद कड़वा सच आखिर सामने आ ही जाता है| सच कब तक छुपा रहता और सच जानकर स्त्री आसमान से जमीन पर आ जाती है| उसके सारे सपने चकनाचूर हो जाते हैं| फिर भी वह राजकुमार से प्रेम करना नहीं छोड़ती| आँसुओं को आँचल में समेटती वह अपनी तरफ़ से प्रेम समर्पण और त्याग करती
हुई आगे बढ़ती रहती है| पर, आखिर कब तक? शरीर की चोट तो सहन हो जाती है पर हृदय की चोट नहीं सही जाती| आत्मविश्वास को कोई कुचले सहन होता है पर आत्मसम्मान और चरित्र पर उँगली उठाना सहन नहीं होता, वह भी अपने सबसे करीबी और प्रिय से| वर्षों से जो स्त्री अपने प्रिय के लम्बी उम्र के
लिए निर्जला व्रत करती है, हर मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे मत्था टेकती है, हर समय उसके लिए समर्पित रहती है, उसकी दुनिया सिर्फ और सिर्फ उसी तक होती है | एक लम्बी पारी बिताने के बाद भी उससे वह मनचाहा प्रेम नहीं मिलता है, न ही सम्मान तो वह बिखर जाती है| उसके सब्र का बाँध टूट जाता है और फिर उसका प्रेम नफरत
में परिवर्तित होने लगता है, फिर भी उस रिश्ते को जीवन भर ढोती है वह, एक बोझ की तरह|दूसरी तरफ़ क्या वह पुरुष भी उसे उतना ही प्रेम करता है? जिसके लिए एक स्त्री ने सब कुछ छोड़कर अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया| वह उसे जीवन भर
भोगता रहा, प्रताड़ित करता रहा, अपमानित करता रहा और अपने प्रेम की दुहाई देकर उसे हर बार वश में करता रहा| क्या एक चुटकी सिन्दूर उसकी माँग में
भर देना और सिर्फ उतने के लिए ही उसके पूरे जीवन उसकी आत्मा, सोच, उसकी रोम-रोम तक पर आधिकार कर लेना यही प्रेम है उसका? क्या किसी का प्रेम जबरदस्ती या अधिकार से पाया जा सकता है? क्या यही सब एक स्त्री एक पुरुष  के साथ करे तो वह पुरुष ये रिश्ता निभा पाएगा या बोझ की तरह भी ढो पाएगा इस रिश्ते को? क्या यही प्रेम है एक पुरुष का स्त्री से? नहीं, प्रेम उपजता है हृदय की गहराई से और उसी के साथ अपने प्रिय के लिए त्याग और समर्पण भी उपजता है| सच्चा प्रेमी वही है जो अपने प्रिय की खुशियों के लिए समर्पित रहे, न केवल सिर्फ छीनना जाने, कुछ देना भी जाने| वही सच्चा प्रेम है जो निःस्वार्थ भाव से एक-दूसरे के प्रति किया जाए, नहीं तो प्रेम का धागा एक बार टूट जाए तो लाख कोशिशों के बाद भी दुबारा नहीं जुड़ता उसमें गाँठ पड़ जाती है और वह गाँठ एक दिन रिश्तों का नासूर बन जाता है, फिर रिश्ते जिए नहीं जाते, ढोए जाते हैं एक बोझ की तरह| शायद इसीलिए रहीम
दास ने कहा है-
             
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरेउ चटकाय |
             
टूटे से फिर ना जुरै, जुरै गाँठ परि जाय ||


                                      - मीना पाठक
                                                                          कानपुर, उत्तर प्रदेश

केदार के मुहल्ले में स्थित केदारसभगार में केदार सम्मान

हमारी पीढ़ी में सबसे अधिक लम्बी कविताएँ सुधीर सक्सेना ने लिखीं - स्वप्निल श्रीवास्तव  सुधीर सक्सेना का गद्य-पद्य उनके अनुभव की व्यापकता को व्...