Saturday 22 December 2012
Poem
जब भी करती हूं मैं,मेरे घर की सफाईपता नबीं क्या हो जाता है,मुझे,पुरानी चीजों को देखकर,चाहती हूं रख लूंउन सभी को समेटकरऔर संजोलूं उन्हेजो छेड़ देता हैंसारी अतीत की यादें...अवचेतन पचल पर अंकित,वो सारी बातें...जो दबी हैं अन्त:स्थल मेंबंधी हैं एक अनकहे बन्धन सेबन्धन,जो अटूट हैनहीं टूटता काल के प्रहार सेअवरोधों की बयार सेपरे है जोक्रीन्ति के आयाम सेतभी तो एक छोटा सा टेलीवीजन(जो गूंगा सा हो गया है)भी दिलाता है मुझे यादजैसे कल की ही हो बातकितनी विह्वलता से की थी प्रतीक्षाउसके आगमन कीकितनी खुशियां मनाईं थीउसके शुभागमन की...वो दादा जी का बेंत,जोआज भी याद दिलाता हैउनके जोश भरी चाल कीटूटा हुआ ऐनकजो कभी शोभा था उनके भाल कीएसी कितनी अमूल्य यादें हैं बसा हैं इन पुरानी चीजों मेकैसे भूल जाऊंवो खुशबू अपनेपन कीजो बसी है इन पुरानी चीजों मेभाई-बहन का क्षणिक झगड़ादोस्तों का प्यारमां का वात्सल्यपिता का दुलार...सभी कुछ तो छिपा हैइन पुरानी चीजों मेंकैसे भूल जाउं वो नन्ही-नन्ही सी खुशियां जोनिहित हैं इन पुरानी चीजों मे,नहीं छोड़ सकती मैं चाहकर भीमोह इन पुरानी चीजों से...नही तोड़ सकती जुदा बन्धनइन पुरानी चीजों से...सोचती हूं कभी-कभीयह निर्जीव पुरानी चीजेंकह जाती हैं बहुत कुछजो सुन सकती हूं मैं,दे जाती है एक अहसास जोमहसूस कर सकती हीं मैंफिर लोग कैसे नही महसूस कर पातेएहसास जीते जागते रिश्तों केकैसे भुला देते हैंमाता पिता का अगाध स्नेह का प्रवाहको...और तोड़ देते हैं,सारे बन्धनएक पल मे...कैसे...?मैं कभी समझ न पाईऔर शायद न कभी समझ पाउंगी।'' - क्रांति बाजपेई हरदोई
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